पुरुषों के सीने में भी दिल होता है

पिंकी सिंघल

हम सभी ने समाज में हर दूसरे व्यक्ति के मुंह से अक्सर यह कहते अवश्य सुना होगा कि स्त्रियां स्वभाव से ही बहुत नाजुक होती हैं ,भावुक होती है ,कमजोर होती है ।वे छोटी-छोटी बात को दिल से लगा लेती हैं और जल्दी ही उनकी आंखें नम हो जाती हैं क्योंकि उनका हृदय बहुत कोमल होता है, पवित्र होता है। हां, बिल्कुल सही है कि प्रकृति ने महिलाओं को ऐसा ही बनाया है।वे सुकोमल हृदय होती हैं। अपनों का छोटा सा दुख भी उन्हें सहन नहीं होता और वे अश्क बहा देती हैं,उनका मन पवित्र होता है ,करुणा से भरा होता है और वह दूसरों की मन स्थिति को बहुत जल्दी भांप लेती हैं और दूसरों का कष्ट उन्हें व्यथित कर देता है।

उपरोक्त बात में जितनी सच्चाई है उतनी ही सच्चाई इस बात में भी है कि पुरुष भी सहृदय होते हैं।लेकिन, अक्सर पुरुषों के बारे में समाज के लोगों की धारणा कुछ अलग ही होती है। उनके अनुसार पुरुष को प्रकृति ने दृढ़ और मजबूत बनाया है । वे बड़े से बड़ा दुख बहुत ही सहजता से सहन कर लेते हैं ।तनाव और परेशानी में उनके चेहरे पर जरा शिकन तक नहीं आती और वे जल्दी बेचैन और व्यथित नहीं होते, परेशान नहीं होते ,आंसू नहीं बहाते। अपनी भावनाओं पर बेहतर नियंत्रण कर सकते हैं। कुछ लोगों के अनुसार, पुरुषों में दिल नहीं होता इसलिए वे भावनाओं पर बेहतर नियंत्रण कर लेते हैं अर्थात ऐसे लोगों का मानना है कि पुरुषों का हृदय पत्थर से बना होता है ।जैसा कि अक्सर कुछ महिलाएं भी पुरुषों को पत्थरदिल की संज्ञा दे देती हैं, परंतु ऐसा नहीं है।

जहां तक मेरा अनुभव रहा है, या यूं कहूं कि मैं आज तक जिन भी पुरुषों के संपर्क में आई हूं चाहे वह मेरे पिता ,भाई ,मित्र ,संबंधी अथवा जानकार रहे हों, मुझे कभी ऐसा महसूस नहीं हुआ कि पुरुष पत्थर हृदय होते हैं ,अपितु मुझे तो हमेशा यही लगा कि पुरुष स्त्रियों की अपेक्षा अधिक संवेदनशील और भावुक होते हैं। एक पिता के रूप में यदि पुरुष को देखा जाए तो वह अपने बच्चों की छोटी से छोटी तकलीफ को सहन नहीं कर पाते हैं ।यह बात अलग है कि वह आंसू नहीं बहा,ते क्योंकि वे नहीं चाहते कि वे कमजोर पडकर परिवार को और भी अधिक कमजोर बनाएं।वे मजबूती से दूसरों को संभालना बेहतर जानते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि यदि इस मुश्किल समय में वे भी कमजोर पड़ गए तो परिवार के बाकी जनों को बहुत दुख होगा जो वे कभी नहीं चाहते।

एक पुत्र के रूप में देखा जाए तो अपने माता-पिता की तकलीफ और पीड़ा को पुरुष बर्दाश्त नहीं कर पाते ।बचपन से लेकर अपने जीवन के अंतिम काल तक माता-पिता का मोह कभी कम नहीं होता।जिस प्रकार स्त्रियों के बारे में कहा जाता है कि शादी के बाद भी उनका मायका नहीं छूटता ,उसी प्रकार पुरुष भी शादी के बाद नए रिश्ते में बंधते जरूर हैं,किंतु माता-पिता का रिश्ता उनके लिए सदैव ताजगी भरा,स्नेह से परिपूर्ण ही होता है। माना कि वे कई परिस्थितियों में अपने आप को मजबूर अवश्य महसूस करते हैं ,परंतु दिल से वे सदैव अपने को माता पिता का स्वयंसेवक ही समझते हैं और माता पिता की जरा सी पीड़ा पर उन्हें भी भीतर तक पीड़ा होती है उनकी रूह संतप्त होती है और वे हर संभव कोशिश करते हैं कि किसी प्रकार वे अपने माता-पिता की उस पीड़ा को दूर कर दें।

कुछ सुधिजनों का यह कहना कि शादी के बाद बेटे भी पराए हो जाते हैं, से मैं बिल्कुल सरोकार नहीं रखती। यहां संस्कारों की बात होती है ।ऐसी कई महिलाएं भी हम सभी ने देखी होंगी जो विवाह के पश्चात अपने मायके से ज्यादा संबंध नहीं रखती ,वजह चाहे जो भी रहती हो ।तो केवल पुरुष को इस कटघरे में लाकर खड़ा करना कि शादी के बाद वे बदल जाते हैं और अपने माता-पिता से अधिक अहमियत अपनी पत्नी को देते हैं, सर्वथा अनुचित है।

पुरुषों को यदि एक भाई के रूप में देखा जाए तो अपने भाई बहनों को सुरक्षा की भावना देने में कोई पुरूष कभी पीछे नहीं हटते ।अपने भाई बहनों की हर छोटी बड़ी खुशी का भी ख्याल रखते हैं, उनकी हर दुख चिंता परेशानी में स्वयं को आगे रखते हैं और उनका प्रयास हमेशा रहता है कि उनकी कोई भी परेशानी उन से पहले उन्हें छू कर जाए।

जहां तक आंसू बहाने की बात है इस बात से इस का कोई ताल्लुक नहीं बनता कि पुरुषों के दिल में भावनाएं नहीं होती। पुरुष भी रोते हैं ,हां यह सत्य है। आंसू केवल वह नहीं होते जो आंखों से बहते हैं,अपितु आंसू वह भी होते हैं जो दिल को पसीज डालते हैं ,अंदर ही अंदर जो पीड़ा का अनुभव कराते हैं, बेचैनी उत्पन्न करते हैं। जरूरी नहीं है कि बेचैनी को ,परेशानी को, व्यथा को अश्क बहा कर जमाने को दिखाया जाए ।खुद पर नियंत्रण जितना पुरुष कर सकते हैं उतना शायद स्त्रियां भी नहीं ।

यहां मेरे कहने का तात्पर्य बिल्कुल भी नहीं है कि स्त्रियां किसी भी मामले में पुरुषों से कम होती हैं।हां ,बहुत सी स्त्रियां पुरुषों से अधिक आत्म नियंत्रण करना जानती हैं,परंतु यह सही नहीं है कि दोनों में तुलना की जाए। दोनों ही सामाजिक प्राणी हैं,दोनों के भीतर भावनाएं हैं ,जज्बात हैं, एहसास हैं।किसी भी आधार पर दोनों की तुलना करना सही नहीं है। यह तर्क नहीं दिया जा सकता कि महिलाओं की अपेक्षा में पुरुष ज्यादा मजबूत होते हैं क्योंकि जीवन में कई परिस्थितियां ऐसी भी आती हैं जब पुरुष भी फूट-फूटकर रोते हैं ,परंतु उनका रोना उन्हें कमजोर बना देता है, ऐसा लोगों का मानना है ।

अक्सर हम सभी ने काफी लोगों को यह भी कहते सुना होगा कि अरे ,क्यों लड़कियों की तरह रो रहा है।इसका क्या अर्थ लिया जाए? जब कोई लड़का रोना भी चाहे तो वह यह सोच कर अपने आंसू पर नियंत्रण कर लेता है कि आंसू बहाने पर समाज के ही लोग उसे कमजोर बनाने पर तुल जाएंगे। स्त्री हो या पुरुष ,अश्क बहाने का मतलब यह कतई नहीं है कि वे कमजोर हैं या किसी भी मामले में किसी से कम हैं।

जिस प्रकार स्त्रियों को दुख होता है उसी प्रकार पुरुषों को भी पीड़ा होती है। पति पत्नी के रिश्ते की यदि बात की जाए तो जिस प्रकार कोई भी पत्नी अपने पति को कष्ट में नहीं देख सकती, उसी प्रकार कोई भी पति अपनी पत्नी को ,अपनी अर्धांगिनी को पीड़ा में नहीं देख सकता ।वह अपनी पीड़ा को भूल कर उसकी पीड़ा को कम करने का प्रयास करता है, खुद को मजबूत बनाकर उसे सहारा देता है और वैवाहिक जीवन को सफल बनाने का हर संभव प्रयास भी करता है। कुछ सिद्ध पुरुषों का, प्रबुद्धजनों का कहना यह होता है कि शादी के बाद महिलाएं ससुराल में सामंजस्य बैठाने का प्रयास करती हैं।जी हां, बिल्कुल ठीक महिलाएं ऐसा असर करती हैं,परंतु क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि शादी के बंधन में बंधने के बाद पुरुष भी वैवाहिक जीवन में सामंजस्य बैठाने का उतना ही प्रयास करते हैं जितना कि महिलाएं।महिलाएं तो फिर भी अपना परिवार छोड़कर एक नए परिवार में शामिल होती हैं, परंतु पुरुष को तो अपने परिवार में ही एक नए सदस्य के साथ तमाम उम्र बितानी होती है ,साथ ही अपने परिवार के बाकी सदस्यों और अपनी पत्नी के बीच सामंजस्य बैठाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करनी होती है और किसी कारणवश यदि वे ऐसा नहीं कर पाते हैं तो वैवाहिक जीवन में तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है और कोई भी पुरुष अथवा स्त्री यह नहीं चाहेगा कि उनका पारिवारिक जीवन प्रतिकूल परिस्थितियों में बीते।

कहने का तात्पर्य यह है कि जीवन में संतुलन बनाए रखने के लिए स्त्री और पुरुष बराबर के जिम्मेदार होते हैं ,दोनों ही अपनी अपनी जिम्मेदारियों का बखूबी निर्वहन करते हैं, एक दूसरे के जीवन का अभिन्न अंग बन कर एक दूसरे के सहयोगी बन जाते हैं और एक दूसरे की जिम्मेदारियों को, कर्तव्यों को अपना कर्तव्य ,अपना दायित्व मानकर निभाना शुरू कर देते हैं और यही जीवन का असली अर्थ भी है।

क्या केवल पुरुष या केवल स्त्री सृष्टि को आगे लेकर जा सकती हैं ?क्या केवल पुरुष अथवा केवल स्त्री अकेले ही परिवार का हर कार्य कर सकती है या कर सकता है शायद नहीं। हां वह बात अलग है कि दोनों में से यदि कोई एक असमय दूसरे का साथ छोड़ जाता है तो स्थिति कुछ भिन्न होती है। यूं तो परिस्थितियां व्यक्ति को अपने अनुसार ढाल ही लेती हैं,अथवा व्यक्ति परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को ढाल लेते हैं।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य की बात की जाए तो कुछ महिलाएं भी ऐसी होती हैं जो पुरुषों पर ताने कसने से, फब्तियां कसने से बाज नहीं आती। माना कि समाज में पुरुषों पर यह टैग लगाया जाता है कि वे महिलाओं पर भद्दे कमेंट पास करते हैं परंतु सोशल साइट्स पर यदि गौर किया जाए तो उन महिलाओं की संख्या भी कुछ कम नहीं है जो पुरुषों को बेवजह परेशान करती हैं।

सारयह है कि ना तो सभी महिलाएं एक जैसी होती हैं,और ना ही सभी पुरुष ।अपवाद हर जगह पाए जाते हैं ।किसी एक पुरुष अथवा किसी एक स्त्री के आधार पर पूरी पुरुषजाति अथवा महिला जाति को सही या गलत ठहराना ठीक नहीं है, उचित नहीं है। मानव व्यवहार विभिन्न स्थितियों में विभिन्न प्रकार का हो सकता है। यह जरूरी नहीं कि जो हमें सही लगे वह सही ही हो। कभी कभी आंखों देखा और कानों सुना भी गलत हो जाता है।इसलिए किसी के बारे में पूर्वाग्रह अथवा धारणा बना लेना सही नहीं है। दूसरों के अनुभवों के आधार पर किसी व्यक्ति के बारे में अपनी सोच को बदलना भी किसी भी प्रकार से उचित नहीं ठहराया जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में उनके अपने अनुभव होते हैं ,स्थितियां होती है ,परिस्थितियां होती हैं। सबके जीवन में एक जैसी परिस्थितियां कभी नहीं हो सकती इसलिए किसी भी पुरुष अथवा किसी भी महिला के बारे में कुछ भी कहने से पहले हमें सौ बार सोचना चाहिए ।किसी पर बेवजह उंगली उठाना बहुत आसान है परंतु किसी को समझना उतना ही मुश्किल।

आज के मेरे इस आलेख को लिखने के पीछे केवल और केवल यही मंशा है कि पुरुषों को कठोर हृदय पत्थर दिल समझने वाले लोग अपनी सोच में परिवर्तन लाएं और पुरुष और स्त्री जाति में भेद करना बंद करें ।जिस प्रकार सभी महिलाएं एक जैसी नहीं होती उसी प्रकार सभी पुरुष भी एक जैसे नहीं हो सकते ,यह बात ध्यान रखें।

पुरुष और स्त्री दोनों को ही भगवान ने बनाया है ।पुरुष के सीने में भी भगवान ने स्त्री के जैसा ही दिल रखा है जो दुखी होने पर दर्द का अनुभव करता है और खुश होने पर सुख का अनुभव। किसी भी पुरुष को पुरुष की संज्ञा देने से पहले उन्हें एक सामान्य मनुष्य की श्रेणी में रखकर सोचा जाए तो लोगों के मन से यह गलतफहमी,यह भ्रम स्वत: दूर हो जाएगा कि पुरुष कठोर होते हैं और उन्हें दुख नहीं होता।