जिन्दगी की जरूरत क्यों नहीं रहीं किताबें?

Why are books no longer a necessity in life?

विजय गर्ग

यह भी अजीब विरोधाभास है कि एक ओर जहां इंटरनेट से किताबों की उपलब्धता बढ़ गयी, वहीं दूसरी ओर किताबों के प्रति लोगों की रुचि कम हो गयी। सीमित सूचना के युग में असीमित ज्ञान के प्रति लोगों का रुझान कम क्यों हो गया?
दुनिया के सबसे बड़े पुस्तक मेलों में से एक नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला आज से दिल्ली के प्रगति मैदान में शुरू हो चुका है। पुस्तक मेला इस बार 1 फरवरी से 10 फरवरी आयोजित हो रहे हैं

किताबें इस संसार को बदलने का एक साधन रही है। पर हमारा समय ऐसा है कि अब किताबों का संसार ही बदल रहा है। यह बदलाव, विषय, प्रस्तुति, पाठक वर्ग, व्यापार सभी दिशाओं में गतिशील है।

देश के लेखकों और लेखकों के लिखे को प्रकाशित करने वाले जिस संसार को हम जानते रहे हैं, वह पूरी तरह बदल जाएगा, यह कभी सोचा नहीं था। क्या ऐसा हो सकता है कि किताबों की हमारी दुनिया सिर्फ अतीत की एक याद बनकर रह जाएगी? सोशल मीडिया और एक क्लिक पर जानकारी मिलने के दौर में ऐसा देखा जा रहा है कि मनुष्य किताबों से दूर चला आया है। जो किताबें संसार को बदलने का रहस्य लिए हमारे सिरहाने होती थीं, वे किसी सुदूर संसार की याद भर बनकर रह गई हैं।

1991 के बाद, उदारीकरण ने जहां देश में सामान्य उपभोग की वस्तुओं को सर्वसुलभ बनाने का काम किया, वहीं किताबों की दुकान कहीं खोने लगी। कागज और प्रिटिंग की कीमतें इस तरह आसमान छूने लगीं कि छपी हुई किताबें प्रकाशन घर से लोगों के हाथों मे पहुंचते पहुंचते मध्यवर्गीय परिवार के बजट के बाहर छिटक गई। लेकिन इंटरनेट की क्रांति ने दूर देश की किताबें, लाखों किताबें पाठकों को एक क्लिक पर उपलब्ध करवा दी।

जो किताबें जाने कितनी जगह घेरती थी, और जाने कितनी दुर्लभ होती थी, अब आपके मोबाइल में हैं। ऐसा लगता है जैसे किताबों की दुनिया मोबाइल में समा गई। कम समय में सहज उपलब्ध कराने की तकनीकी के कारण किताबों का संसार भी डिजिटल रूप में घर घर पहुंच गया है। आम आदमी जिसके हिस्से कल तक ‘सड़क का साहित्य’ था, अगर आज उसकी पहुंच के दायरे में ‘विश्व का श्रेष्ठ साहित्य’ सिमट आया है तो उसका कारण इंटरनेट की क्रांति है।

एक अर्थ में देखा जाए तो यह किताबों की उपलब्धता की महाक्रांति है। किताबों के रूप बदले हैं, पर वे पहले से ज्यादा सुलभ हैं। हर जगह उपस्थित है। लेकिन जीवन शायद किताबों से दूर चला आया है। उनकी उपलब्धता जरूर बढ़ी है, पर महत्व और प्रभाव में कमी आई है। अब वे कल्पनाशक्ति को रचती नहीं है, न विचारों को गढ़ पाती है। उनकी ताकत कम हुई है। समाज में उनकी जगह कम हो रही है। अब वे किसी आदमी के एकांत में ऐसा उद्वेलन पैदा नहीं कर पा रहीं कि वह व्यक्ति कुछ और ही बन जाए। जिन किताबों ने लिंकन, गांधी, लेनिन, आइंस्टाइन जैसों को रचा था, और प्रकारांतर से युग को बदल देने का माध्यम बन गई थीं, आज बड़ी अशक्त सी हैं। मानों जिन्दगी को किताबों की जरूरत ही नहीं रही। जिंदगी अब कुछ और मांगती है।

यह कैसी विडंबना का समय है कि जब तकनीक और विज्ञान ने ज्ञान को सर्वसुलभ बनाने के रास्ते खोल दिए हैं, तो ठीक उसी समय उन रास्तों पर चलने वाले कदम कहीं खो गए हैं या फिर उनका चलना तो है, पर उस चलने से कोई यात्रा नहीं बनती, सिर्फ चलना रह जाता है। जीवन ऐसा बदला है कि उसमें गहराई के लिए बहुत जगह नहीं बची।

इंसान के पास उस एकांत का अभाव है, जिसमें वह खुद को निहार सके और रचना कर सके। उसके पास खुद तक पहुंच पाने का कोई रास्ता नहीं बचा है। वह आज महज एक उपभोक्ता है। किताबों का भी वह महज उपभोक्ता है, यदि किताबों तक उसकी जिंदगी का कोई रास्ता जाता है, तो भी।

जीवन सिर्फ विकास की सरकारी परिभाषाएं नहीं है, उसका सौदर्य विराट है, उसके अर्थ असीम है, उसके आयाम विविध है। इस बदलते संसार में इंसान को खुद को नए सिरे से परिभाषित करना होगा। उसे अपने लिए बदलते संसार को अपनी तरह से बदलना होगा, इस तरह कि उसकी खूबसूरती बची रहे, बढ़े और जिंदगी को सृजनात्मक रूप दे। किताबें विद्वता, आदर्श, धर्मशास्त्रगत की जड़वत दुनिया नहीं हैं, वे हमारी अंतरात्मा की हंसी और हमारे भीतर का पल्लवन है। संसार की बहुत-सी किताबें यशप्राप्ति, जड़ता, मिथ्या आचार के प्रचार से जन्मती हैं, और लोगों की जिंदगियों में आ कर उनके अस्तित्व को सीमित कर जाती हैं।

वे किताबें जो मानवीय व्यक्तित्व की जरूरत हैं, उनकी शिनाख्त की एक पगडंडी बनानी होगी और इस पर एक यात्रा रचनी पड़ेगी और यह जानना होगा कि विज्ञान और तकनीक इसमें बहुत सहायक है। बात जहां गलत हो जाती है, वह हमारे ही मन का कोई कोना है, जो भ्रम और हार को अपना सत्य मान लेता है। हमें जिंदगी को नए सिरे से खोजना होगा। किताबों को पढ़ने और औरों को भी पढ़ाने की प्रवृत्ति को बढ़ना होगा। लेखक को भी शब्द वहीं मिलेंगे।

समय के बदलाव ने लेखक, पाठक के माध्यम बदल दिए है, लेकिन अभिव्यक्ति की अभिलाषा यानी एहसास और जज्बातों को लिखने की बैचेनी अब भी वही है, जो गालिब या मीर में थी। यह सत्य है कि तकिए के नीचे किताब रखकर सोने का जमाना अब बीतने वाला है। पाठकों और प्रकाशकों को इसके लिए तैयार रहना होगा। पुस्तक मेले में होने वाली बिक्री में धीरे धीरे आ रही गिरावट इस ओर इशारा कर रही है। एक प्रकाशक का कहना है कि पुस्तक मेले में भीड़ बहुत आती है, पाठक कम आते है। उम्मीद है पुस्तक मेला पुस्तक प्रेमियों को किताबें खरीदकर पढ़ने के लिए प्रेरित करने में सफल रहेगा।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार