‘कट-कॉपी-पेस्ट’ कल्चर समाप्त हो माई लॉर्ड

'Cut-copy-paste' culture should end my lord

प्रो. नीलम महाजन सिंह

‘ओ माई गोड, ओ माई लोर्ड’ ! भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा ने, अन्तरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में भारतीय न्यायपालिका की बौद्धिक प्रभुता की धज्जियाँ उड़ा दी हैं। इसी सप्ताह एक बड़ी शर्मिन्दगी, सिंगापुर सर्वोच्च न्यायालय ने भारत में समर्पित ‘माल गलियारों के प्रबंधन’ के लिए स्थापित विशेष प्रयोजन वाहन – एसपीवी (SPVC) के खिलाफ एक मध्यस्थता पुरस्कार को रद्द कर दिया है। एसपीवी का मतलब है ‘स्पेशल पर्पस व्हीकल’ (Special Purpose Vehicl, जो एक कानूनी इकाई है, जिसे किसी खास लक्ष्य को हासिल करने के लिए बनाया गया है। ‘एस. पी.वी.’ का इस्तेमाल अक्सर जोखिम को अलग करने, पूंजी जुटाने व परियोजनाओं को वित्तपोषित करने के लिए किया जाता है। यह कहते हुए दुःख होता है कि सेवानिवृत्त, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाले न्यायाधिकरण, ने एक ही पक्ष से जुड़े, दो फैसलों से 451 पैराग्राफ में से, 212 पैराग्राफ की अलग-अलग मुद्दों पर नकल की है। इसे ‘परजरी’ कहा जाता है। हालाँकि न्यायाधिकरण में मध्यप्रदेश न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश के.के. लाहोटी व जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय की पूर्व चीफ जस्टिस गीता मित्तल भी शामिल थीं। फ़िर क्या ये तीनों न्यायधीशों ने अपनी बुद्धिमत्ता व ज्ञान का प्रयोग ना कर ‘कट-कॉपी- पेस्ट’ संस्कृति को अपनाया। हालांकि वकील व नौजवान अधिवक्ता भी ‘स्मार्ट ड्यूड’ बन कर कंप्युटर से नकलबाज़ी करने में माहिर हैं। सिंगापुर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति सुंदरेश मेनन (Justice Sudndresh Menon, Chief Justice of Singapore Supreme Court); की अगुवाई वाली सिंगापुर सर्वोच्च न्यायालय की बेंच ने कहा कि चूंकि अन्य दो पहले के आदेशों का ये हिस्सा नहीं थे, इसलिए यह पता नहीं लगाया जा सकता है कि उन्हें जस्टिस दीपक मिश्रा के ‘कट-कॉपी-पेस्ट’ के बारे में पता भी था या नहीं। सिंगापुर सर्वोच्च न्यायालय दृढ़ था कि नकल ने, ‘मिडियेशन – मध्यस्थता प्रक्रिया की अखंडता से समझौता’ किया व इस प्रकार यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन नहीं करते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, “समानांतर मध्यस्थता से प्राप्त स्पष्ट रूप से पर्याप्त सामग्री में बाहरी विचार थे, जिन पर पक्षों का ध्यान नहीं गया। यह सामग्री अवार्ड- ऑर्डर का इतना व्यापक हिस्सा थी कि इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता”। यह स्पष्ट है कि पार्टियों द्वारा न तो इस पर विचार किया गया व न ही इस पर सहमति व्यक्त की गई, कि इस तरह की प्रक्रिया से ऑर्डर-आदेश तैयार नहीं किया जा सकता है। सिंगापुर उच्च न्यायालय के न्यायाधीश से सहमती रखते हुए,। निष्पक्ष सुनवाई नियम का उल्लंघन हुआ था। न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा के नेतृत्व वाले न्यायाधिकरण ने अगस्त 2015 में पश्चिमी समर्पित माल ढुलाई गलियारे के लिए अनुबंध हासिल करने के लिए एक संघ बनाने वाली तीन फर्मों के पक्ष में फैसला सुनाया था। उन्हें यह केस स्वीकार करने से मना करना चाहिए था (He should have recused himself from this case)। भारतीय सरकार द्वारा श्रमिकों की मज़दूरी बढ़ाने के निर्णय के कारण विवाद उत्पन्न हुआ, जिसके कारण संघ ने अधिक धन की मांग की, जिसका एस.पी.वी. ने विरोध किया, तथा मामले को न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा के नेतृत्व वाले मध्यस्थता न्यायाधिकरण को भेज दिया गया था। सिंगापुर उच्च न्यायालय के निर्णय को बरकरार रखते हुए, न्यायमूर्ति मेनन व न्यायमूर्ति स्टीवन चोंग ने 40-पृष्ठ के निर्णय में विश्लेषण किया है। उन्होंने पाया कि यह केस ‘नकल से ग्रस्त’ है तथा प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन है। सिंगापुर उच्च न्यायालय ने कहा, “यह भी सर्वविदित है कि निर्णय को नए सिरे से तैयार नहीं किया गया था। इसके बजाय, समानांतर निर्णयों का उपयोग “टेम्पलेट’ के रूप में किया गया, जिसमें मध्यस्थता की विशिष्टताओं को ध्यान में रखते हुए समायोजन किया गया था”। जस्टिस मेनन ने कहा कि एस.पी.वी. ने समानांतर मध्यस्थता में किए गए कुछ सबमिशन छोड़ दिये थे व उन्हें मध्यस्थता के लिए अद्वितीय नए तर्कों के साथ बदल दिया। ये नए तर्क मध्यस्थता द्वारा प्रस्तुत किए गए थोड़े अलग तथ्यात्मक मैट्रिक्स के कारण उत्पन्न हुए। उदाहरण के लिए, अधिसूचना जारी करने व संघ के दावे के बीच देरी की अवधि में अंतर ने एस.पी.वी. को ‘एस्टोपल’ Estoppel पर अतिरिक्त तर्क देने की अनुमति दी। इसके बावजूद, समानांतर आदेशों, अवार्ड का मसौदा तैयार करने में बहुत हद तक ‘टेम्पलेट’ के रूप में किया गया। मध्यस्थों के बीच समानता की अपेक्षा से समझौता किया जाता है। न्यायाधिकरण के सदस्यों के बीच क्या हुआ, इसका कोई सबूत नहीं था, लेकिन यह ज्ञात है कि इस मामले में दो सह-मध्यस्थ समानांतर मध्यस्थता के बारे में जानकारी नहीं रखते थे। इस प्रकार, उन कार्यवाहियों से प्राप्त किसी भी सामग्री या ज्ञान तक उनकी कोई सीधी पहुँच नहीं थी, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि इसने वर्तमान मध्यस्थता के परिणाम को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया है”। यह भारतीय न्यायालयों में न्यायाधीशों की खराब गुणवत्ता व उनके द्वारा दिए जा रहे निर्णयों के बारे में आंखें खोलने वाला वाक्या है। यह विशेष रूप से चौंकाने वाला है क्योंकि यह भारत के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के बारे में है जिन्होंने देश के सर्वोच्च न्यायिक मंच को बदनाम किया है। यह सही समय है कि न्यायिक भर्ती व पदोन्नति प्रणाली में आमूलचूल सुधार के लिए कदम उठाए जाएं और इसे ‘कॉलेजियम के हाथों से बाहर निकाला जाए’। इससे भारत के तीन वरिष्ठ न्यायधीशों ने अपनी तो बदनामी की ही, परंतु भारतीय न्यायपालिका के बौद्धिक विकास पर भी ग्रहण लगा दिया है। “रियली शाकिंग माई लॉर्ड”! भारत सरकार के लिए यह आकाशवाणी है कि न्यायिक प्रणाली में सुधार अनिवार्य है। सरकार को ‘न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम’ को फिर से लागू करने के लिए तेजी से आगे बढ़़ाना चाहिए व संसद के दोनों सदनों को एक स्वर में इसके पक्ष में मतदान करना चाहिए। संविधान में भी उचित संशोधन किया जाना चाहिए ताकि यह प्रावधान किया जा सके कि उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालय के पास, संसद द्वारा बनाए गए कानून को पलटने का कोई अधिकार नहीं होगा। संसद में भारत के आम लोगों के चुने हुए प्रतिनिधि शामिल हैं। जस्टिस संजीव खन्ना, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश व पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़ ने निचली अदालतों में ‘न्यायधीशों की बुद्धिमत्ता, ट्रेनिंग व क्वालिटी’ पर सख्त टिप्पणियां की थीं। यह भी सच है कि अनेक न्यायधीश ‘कट-कॉपी- पेस्ट’ को आदत ही बना लेते हैं। कभी-कभी तो ऑर्डर लिखने में ही महीनों लगा देते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने बताय कि निर्णय कैसे लिखे जाएं। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला लिखने के तरीके पर आदेश पारित किये, जिसमें न्यायमूर्ति डी. वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस बात पर ज़ोर दिया कि प्रत्येक निर्णय मौलिक अधिकारों को मज़बूत करने के लिए होना चाहिए। जटिल भाषा का उपयोग करके पाठक को भ्रमित नहीं करना चाहिए क्योंकि यह वर्तमान व भविष्य को दर्शाता है। ‘कट-कॉपी-पेस्ट का शिकार’; हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, पीठ ने यह भी कहा कि मुद्दा कानून के उस प्रश्न को संदर्भित करता है जिस पर अदालत निर्णय ले रही है, जबकि नियम प्रासंगिक मुद्दे पर वकीलों की प्रस्तुति को दर्शाता है। अदालत का तर्क आवेदन का निर्माण करता है जबकि निष्कर्ष अंतिम निर्णय दर्ज करता है। न्यायमूर्ति ए. एस. बोपन्ना की पीठ ने कहा कि हालांकि न्यायाधीशों की निर्णय लिखने की अपनी शैली होती है, उन्हें इन शैलियों में लेखन की स्पष्टता सुनिश्चित करनी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, “न्यायिक लेखन का उद्देश्य पाठक को जटिल भाषा के आवरण के पीछे भ्रमित या उलझन में डालना नहीं है। न्यायाधीश को कानून व तथ्यों के मुद्दों का आसानी से समझने योग्य विश्लेषण प्रदान करने के लिए लिखना चाहिए”। जबकि एक निर्णय उन लोगों द्वारा पढ़ा जाता है जिन्हें कानून में प्रशिक्षण प्राप्त है, वे प्रवचन के पूरे ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने पीठ के लिए फैसला लिखते समय इस बात पर प्रकाश डाला कि न्यायिक प्रक्रिया में विश्वास, उस भरोसे पर आधारित है जो उसके लिखे गए शब्द से उत्पन्न होता है। निर्णय- आदेश, के लेखक ने इसकी कल्पना की हो या नहीं, लिखित उत्पाद भविष्य के लिए बना रहता है, जो सामाजिक संवाद में एक वृद्धिशील कदम का प्रतिनिधित्व करता है। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ व न्यायमूर्ति ए. एस. बोपन्ना ने खेद व्यक्त किया कि न्यायपालिका भी सॉफ्टवेयर डेवलपर्स द्वारा दी जाने वाली ‘कट-कॉपी-पेस्ट’ सुविधा का शिकार बन गई है। न्यायालय और न्यायाधिकरणों को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि अपलोड किए गए निर्णय व आदेश डिजिटल हस्ताक्षरों का उपयोग करके सुलभ व हस्ताक्षरित हों। पीठ ने कहा, वे मुद्रित प्रतियों के स्कैन किए गए संस्करण नहीं होने चाहिए। इस ‘कट-कॉपी-पेस्ट’ सुविधा का शिकार, स्टूडेंट्स, पत्रकार, अध्यापक, वकील आदि; सभी कर रहें हैं, जिससे उनकी मानसिकता विघटित हो रही है। ज़रा सोचिए कि किस प्रकार से तीनों न्यायधीशों गीता मित्तल बोपन्ना व दीपक मिश्रा ने भारतीय न्यायपालिका को कलंकित किया है। ‘कट-कॉपी-पेस्ट’ का कल्चर समाप्त कीजिए “माई लॉर्ड’।

प्रो. नीलम महाजन सिंह (वरिष्ठ पत्रकार, राजनैतिक विश्लेषक, सॉलिसिटर फॉर ह्यूमन राइट्स, दूरदर्शन व्यक्तित्व व परोपकारक)