
बांके बिहारी पाठक
समाज शब्द का प्रयोग आमतौर पर हमारे आस-पास चल रहे कुरीतियों को जिम्मेदार ठहराने के लिए किया जाता है। कोई भी कार्य शुरू करने से पहले सोचा जाता है कि समाज क्या सोचेगा? चाहे वो काम बच्चों को बाहर पढ़ने भेजना हो, शादी करनी हो, घर में कुछ आयोजन करना हो, लड़की की उच्च शिक्षा की बात हो या फिर लड़के के रोजगार की बात हो, तब यह सवाल मन में आता है कि सामाजिक रूप से ये काम ठीक तो है न? कहीं कोई इसमें कमियां तो नहीं निकालेगा? ऐसे कई तरह के सवाल दिमाग में घूमते रहते हैं। यानी हमारे बीच के बुराइयों का पहला चेहरा समाज को ही माना जाता है। जबकि इसकी परिभाषा ऐसी कल्पना से पृथक है।
समाज हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग है, जिसका निर्माण व्यक्तियों को संगठित करने, सहयोग करने तथा सभ्यता के विकास के लिए होता है, जो अनेक रूपों में हमारे जीवन में विद्यमान है, जैसे समाज हमें हमारे दायित्वों का बोध कराता रहता है। शिष्टाचार, एकता की शक्ति, आपसी सामंजस्य, कर्तव्य, और अनुशासन में रहना सिखाता है। अर्थात पृथ्वी पर जीव उत्पति के बाद समाज की भूमिका से ही इंसान बाकी जीवों से इतना अग्रणी हो पाया है। अगर मानव जाति में समाज के रूप में एकजुटता की ताकत नहीं होती तो इसका आधुनिक होना आसान नहीं हो पाता।
मनुष्य की औसत आयु लगभग 80 साल की होती है, जिसमें जन्म से लेकर मृत्यु तक अलग-अलग धर्मों के अनुसार संस्कार होते हैं। इन सभी संस्कारों में समाज की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जिससे आपस में अटूट व्यवहार बना रहता है। माहौल खुशनुमा रहता है। परिणामस्वरूप मानव जीवन के अवसाद भी काफी हद तक कम हो जाते हैं। समाज इंसान के जीवन की कठिनाइयों को कम कर देता है। इसमें एक ऐसी संरचना विकसित हो चुकी है जो किसी ज़रूरतमंद की मदद आर्थिक, शारीरिक और मानसिक रूप में करती रहती है। हम शादी-विवाह में एक दूसरे की मदद पैसे के लेन-देन, वस्तुओं का आदान-प्रदान, शारीरिक मेहनत तथा समय का योगदान देते देख सकते हैं।
कृषि संबंधित कार्यों में भी सामाजिक सहयोग देखने को मिलता रहता है। आपस में एकजुट होकर बीज की बुआई, फसल की कटाई मिल-जुल कर करते हैं। किसी के मृत्यु के पश्चात या बीमारी के दौरान समाज की उपस्थिति के महत्व का पता चलता है, जब लोग एक-दूसरे के दुःख को समझने और उससे उबरने हर संभव प्रयास करते हैं। आर्थिक और भावनात्मक सहयोग करते हैं। जहां समाजिक एकता और सशक्तिकरण परिभाषित होता है।
हम सभी ने अपने आसपास कई सामाजिक संस्थाओं को काम करते देखा है जो विभिन क्षेत्रों में अपने सराहनीय योगदान देते हैं। जैसे शिक्षा को बढ़ावा देना, शिक्षा के लिए सबको प्रेरित करना, साक्षरता की ताकत समझाना, कौशल और संस्कृति को सहेजना, धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करना, नुक्कड़ नाटक जैसे कला से जागरूकता फैलाना, विभिन्न खेलों का आयोजन कराना, स्वास्थ्य संबंधी गतिविधियों का आयोजन कराना शामिल है।
समाज पीढ़ियों पुरानी समृद्ध संस्कृति को लेकर चलता है। पीढ़ियों पहले के स्वर्णिम कलाओं को सहेजता है तथा आधुनिकता के भाव के साथ विस्तार के लिए भी प्रेरित करता है। वर्षों से चले आ रहे रीति-रिवाजों को हमारे सामने रखता है साथ ही इसका वास्तविक अर्थ बताता है। जिससे हम शिष्टाचार में रहते हैं। जिसकी बदौलत हम बचपन से आपस में संचार करना, कार्य कुशल, व्यवहार कुशल तथा अनुशासित हो पाते हैं। कई बार समाज, लोगों के आपसी द्वेष, गलतफहमी, तथा विवाद जैसे मुद्दों पर कानूनी प्रक्रियाओं और कोर्ट कचहरी के चक्करों से बचाता है।
समाज के कुछ बौद्धिक क्षमता वाले लोग आपस में बातचीत कर मामलों को सही नतीजे तक ले आते हैं और न्यायसंगत तरीके से सुलह करा देते हैं। समाज मानव जाति के परंपराओं, कला, रिति-रिवाजों, तथा प्रथाओं को संरक्षण देता है, जो लोगों को उनके इतिहास उनके विरासत से जोड़ता है, अपनत्व का भाव पैदा करता है। समाज जरूरतमंदों के लिए ऐसी संरचना तैयार करता है जिसमे असहायों के लिए धर्मशाला या आश्रम बनाना, भूखों के लिए भंडारे चलवाना, कपड़ो का वितरण, बीमारों के लिए दवाओं का वितरण, आर्थिक सहायता उपलब्ध कराना, तथा संसाधन उपलब्ध कराता है। साथ ही समाज एक नैतिक मार्गदर्शक भी होता है जो व्यक्तियों को बताता है कि किस तरह उन्हें कानूनी दायरे में रहना चाहिए, न्यायपूर्ण व्यवहार करना चाहिए, तथा एक दूसरे के भलाई के लिए कार्य करना चाहिए।
समाज एक आइना के रूप का भी निर्वहन करता है, जो व्यक्ति द्वारा किए गये कार्य का प्रतिबिंब बनाता है। रहन-सहन सभ्य है कि नहीं, उनके व्यवहार का दुष्परिणाम किसी और पर तो नहीं पड़ रहा जैसे बातों का बोध कराता रहता है। जिससे हम कोई भी अनैतिक कार्य करने से पहले हजार बार सोचते हैं, कहीं हमारा सामाजिक बहिष्कार ना हो जाये, कहीं हमारे गलत कृत्यों का प्रभाव हम पर ही ना पड़े, हमारे किए गये गलत कर्मों की सजा समाज आने वाली पीढ़ियों को न दे। इस तरह से भी समाज हमें अनुशासित रखता है और हमें कर्तव्य विमुख नहीं होने देता।
भारतीय संस्कृति में जब से सभ्यता विकसित हुई तब से समाज को प्रधानता दी जाती है। अंततः समाज इंसान के अस्तित्व और विकास के लिए उतना ही आवश्यक है जितना जीवन के लिए हवा और पानी। समाज मनुष्य के एकता की ताकत को परिभाषित करता है, इसीलिए हमारी संस्कृति में सदियों से वसुधैव कुटुम्बकम् की परंपरा चली आ रही है।