सोनम लववंशी
हमारे देश में धर्म के नाम पर अशांति फैलाने का घृणित कार्य किया जाना कोई नई बात नहीं। अभी नूपुर शर्मा को लेकर देश में विवाद शांत भी हुआ कि अब एक डाक्यूमेंट्री फिल्ममेकर लीना मणिमेकलाई ने एक नया बखेड़ा खड़ा कर दिया। लेकिन अफ़सोस की उन्हें ऐसा करने में कुछ गलत नहीं लगा। उन्होंने हिंदू आस्था की देवी माँ काली का सिगरेट पीते पोस्टर दिखाया। यह गलती से किया गया काम नहीं था। बल्कि जानबूझकर इस तरह से लोकप्रियता हासिल करने की पूरी स्क्रिप्ट लिखी गई। हिन्दू धर्म के खिलाफ दुष्प्रचार करना कोई बड़ी बात नहीं है। सदियों से हिंदू धर्म का मजाक बनाया जाता रहा है। शायद लीना ने भी यही सोचकर विवादित पोस्ट के जरिए लोकप्रियता हासिल करने की कोशिश की है। उन्होंने माँ काली के पोस्टर में एक हाथ में सिगरेट और दूसरे हाथ में एलजीबीटीक्यू (LGBTQ) का झंडा लिए स्त्री के मॉर्डन स्वरूप भर को तो नहीं दिखाया होगा, क्योंकि उसके पहले भी उनके मन में भगवान राम को लेकर जहर दिखा था। तमिलनाडु के मदुरै में जन्मी लीना मणिमेकलाई कनाडा की टोरंटो में बेस्ट फिल्ममेकर है। लीना ने 2002 में अपने करियर की शुरुआत की। यह पहली बार नहीं है जब वह विवादों में घिरी है। इससे पहले भी उनकी फिल्में ‘सेंगडल’, ‘पराई’, ‘व्हाइट वैन स्टोरी’ भी विवादित रही है।
ऐसे में बात सीधी सी है कि अपनी फिल्म को प्रचारित करना है तो हिन्दू देवी-देवताओं का मजाक बनाओ। हिन्दू तो वैसे भी माफी की प्रतिमूर्ति है। वे कौन सा गला काटने के लिए आगे आने वाले है! कौन उनके खिलाफ कोई फतवा जारी होगा! न ही इसके विरोध में कोई आंदोलन खड़ा होगा। अगर कोई ऐसा करने का विचार करेगा तो मीडिया में हिन्दू को कट्टरवादी दिखाकर शांत कराने वाले ठेकेदारों की भी हमारे देश में कमी नहीं है। इसी का फायदा तो लीना मणिमेकलाई जैसे लोग उठाते हैं। इतना ही नहीं आजकल देश में यूं भी सस्ती लोकप्रियता पाने का नया ट्रेंड चलन में आ गया है। फिर चाहे वह कोई फिल्मकार, चित्रकार या कोई सेकुलर हो। सभी हिन्दू देवी देवताओं का मज़ाक उड़ाते है। अब मुन्नवर फारुखी को ही ले लो। कुछ समय पहले तक मुन्नवर फारुखी का कोई नाम तक नहीं जानता था। लेकिन अगले ही पल में मुन्नवर फारुखी मशहूर हो गए। शायद उसने भी मशहूर होने के लिए चित्रकार एम एफ हुसैन की तरह देवी देवताओं के अपमान का रास्ता चुनना ज्यादा उचित समझा।
हमारे देश की विडंबना देखिए यहां अभिव्यक्ति की आजादी भी धर्म विशेष के लिए अलग-अलग परिभाषित की जाती है। जब 2015 में फ़्रांस में पैग़म्बर मोहम्मद का कार्टून एक समाचार पत्र ने प्रसारित किया गया तो उस समाचार पत्र में काम करने वाले 12 लोगो की हत्या कर दी गई थी। वहीं साल 2020 में फ़्रांस के टीचर का गला रेत दिया गया क्योंकि उसने पैगम्बर मोहम्मद का कार्टून बच्चो को दिखाया था। लेकिन जब हमारे देश मे एम एफ हुसैन ने हिन्दू देवी- देवताओं का नग्न चित्र बनाया तो उनका समर्थन करने वालों की लंबी फ़ौज खड़ी हो गई। ये अलग बात है कि इस बखेड़े के बाद हुसैन साहब ने भारत छोड़ दिया था। बात अगर फिल्मों की करें तो फिल्म पीके में भी ईश्वर के नाम पर नौटंकी दिखाई गयी लेकिन इसका कहीं कोई विरोध नहीं हुआ। जबकि यही बातें किसी और धर्म के लिए होती तो हाहाकार मच गया होता। नूपुर शर्मा विवाद का ही जिक्र करें तो एक तरफ एक धर्म विशेष की धार्मिक किताब के पन्ने पर लिखी बात का जिक्र करने भर से विदेशों तक से विरोध के स्वर उठ खड़े हुए यहां तक कि नूपुर शर्मा का समर्थन करने वाले लोगों तक की जान ले ली गई और दुनिया मूकदर्शक बनकर तमाशा देखती रही। एक धर्म की आस्था का समर्थन और दूसरे धर्म का विरोध करना कहां तक सही कहा जा सकता है? ऐसे में यह अपने-आपमें बड़ा सवाल बन जाता है।
बात अगर फ़िल्म की ही करें तो फ़िल्म समाज का आईना है। लेकिन वर्तमान दौर में न केवल फिल्मों का स्वरूप बदला है बल्कि फिल्मों के माध्यम से देश में एक नई क्रांति शुरू हो गयी है। बेशक वर्तमान युग सूचना क्रांति का युग है। सूचना और संचार ने हमारे जीवन को रफ्तार दी है, लेकिन अगर सूचना ही ग़लत परोसी जाएं या ग़लत ढंग से रचकर तथ्यों को सूचना और संवाद के रूप में परोसा जाएं। फ़िर यह सिर्फ़ व्यक्ति-विशेष को ही नहीं प्रभावित करेगी बल्कि पूरे समाज में ही वैमनस्यता फैलाने का काम करेगी और हालिया दौर में यही देखा जा रहा है।
वर्तमान दौर में वेब सीरीज और शॉर्ट फिल्म का चलन बढ़ता जा रहा है और इन फिल्मों पर नजर डाले तो यह केवल एक धर्म विशेष के खिलाफ ही एजेंडे के तहत विवादित कंटेंट प्रसारित करते हैं। वजह शायद यही है कि हिंदुओं को टारगेट करने की ओछी राजनीति बरसों से ही हमारे देश में चली आ रही है। हमारी संस्कृति हमारी आस्था को पश्चिमी संस्कृति ने हमेशा से ही नीचा दिखाने का प्रयास किया है। हिंदू धर्म की व्याख्या को भी सभी धर्मावलंबियों ने अपने- अपने स्वार्थ के अनुसार परिभाषित करने का प्रयास किया है। यही वजह है कि सैकडों साल पहले जब मुगल भारत आए तो उन्होंने हमारी आस्था पर ही चोट करने का काम किया। हमारे मंदिरों को तोड़ दिया। यहां तक कि मूर्ति पूजा की भी निंदा की गई। वहीं जब अंग्रेज भारत आए तो उन्होंने भी हिंदू धर्म को नीचा दिखाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी और एकेश्वरवाद की परिभाषा गढ़ दी।
अतीत में जाकर देखें तो 23 जुलाई 2018 को टाईम्स ऑफ इंडिया में छपे आर्टिकल “महाराष्ट्रा गुडमैन फोर्सेज़ मेन इनटू अन नेचुरल सेक्स, हेल्ड” में फकीर आसिफ नूरी के अपराध की कहानी को छापा गया था; लेकिन तस्वीर एक हिन्दू साधु की लगाई गई थी। इस स्टोरी को मोहम्मद आसिफ नाम के एक व्यक्ति ने लिखा था। जिससे साफ पता चलता है कि कैसे हिन्दूओ के विरोध में कुछ वामी मीडिया संस्थान भी काम करते है। वर्तमान दौर में इस प्रकार के मीडिया संस्थानों की भरमार है। आज टेलीविजन धारावाहिकों को ही देखे तो उनमें केवल और केवल धर्म विरोधी कन्टेंट ही प्रसारित किया जा रहा है। यहां तक कि रियलिटी शो को तो बनाया ही इस उद्देश्य से जाता है जो अश्लीलता फैला सकें। इन कार्यक्रमों को संचालित करने वालो के तर्क भी अजीब रहते हैं। उनका मत है कि जिन दर्शकों को कार्यक्रमों में अश्लीलता महसूस हो वे इन कार्यक्रमों को न देखे। वे देश की युवा पीढ़ी को अश्लील कार्यक्रमों को परोसने में कोई गुरेज नही करते है। हमारे देश में सियासत भी अतरंगी है। राजनीति में नित नए आयाम जुड़ते जा रहे हैं। सियासत के ठेकेदारों ने धर्म को भी अपने राजनीतिक फायदे के अनुसार उपयोग करना सीख लिया है। यहां तक कि हमारी सभ्यता हमारी संस्कृति से जुड़े मुद्दों पर भी राजनीतिक रोटियां सेकने में इन्हें कोई संकोच नही होता है। उन्हें तो बस अपना राजनीतिक लाभ दिखता है। फिर चाहे उसके बदले उन्हें अपने धर्म के खिलाफ ही क्यों ना बोलना पड़े। राजनीति में ईमान, धर्म, मान, मर्यादा और आस्था जैसे शब्द बेमानी से लगने लगे हैं। ऐसे में कैसे यह उम्मीद की जाए कि राजनीति के रणबांकुरे हमारी संस्कृति हमारी आस्था को बनाए रखने का, उसे सहेजकर रखने का प्रयास करेंगे। आज के वर्तमान दौर में यह हमें ही तय करना है कि तकनीकी के इस दौर में सकारात्मकता भी है और नकारात्मकता भी। ऐसे में हमें अपने मूल्यों को खुद समझना होगा और यह हमें ही तय करना होगा कि हम समाज को किस दिशा में लेकर जाए। समाज में फैली बुराई को किस प्रकार खत्म कर सके। इस दिशा में हमें और हमारे समाज को ही सोचना होगा।