स्वाद की क़ीमत कहीं ज़िंदगी तो नहीं?

Isn't life the price of taste?

सोनम लववंशी

अब समोसे, जलेबी, पकौड़े और मिठाइयों पर भी चेतावनी छपने की नौबत आ चुकी है कुछ वैसे ही जैसे सिगरेट के पैकेट पर होती है। स्वास्थ्य मंत्रालय ने सभी सरकारी संस्थानों को कहा है कि कैफेटेरिया और सार्वजनिक जगहों पर ऐसे बोर्ड लगाए जाएं, जो सबसे प्रचलित भारतीय नाश्ते में छिपी चीनी और तेल की मात्रा दिखाएं। इनका मकसद लोगों को यह बताना है कि वे जो कुछ भी खा रहे हैं वह स्वाद में भले लाजवाब हो, लेकिन सेहत के लिए कितना भारी पड़ सकता है। एम्स नागपुर के अधिकारियों ने इसे फूड लेबलिंग में एक नया मोड़ कहा है, कि ‘अब खाने के साथ भी उतनी ही गंभीर चेतावनी दिखेगी, जैसी सिगरेट पर होती है।’ समोसा, जलेबी, पकौड़े, वड़ा पाव, गुलाब जामुन, लड्डू, खस्ता कचौरी, मिठाइयों की थालियां इन सबके सेवन पर कितनी शक्कर और तेल आपके शरीर में जाएगा, इस बारे में बाकायदा बोर्ड पर सूचना लगी होगी। इस पूरी मुहिम को देश की स्वास्थ्य समस्या के निदान के तौर पर पेश किया जा रहा है। सुनने में भले अटपटा लगे, लेकिन भारत अब सिर्फ कुपोषण से नहीं, बल्कि ‘अति पोषण’ के संकट से भी जूझ रहा है। स्वाद के मोह में हम कब अपने ही शरीर के दुश्मन बन बैठे, यह शायद हमें खुद भी नहीं पता चला। अब स्वास्थ्य मंत्रालय को यह निर्देश देना पड़ा है कि सभी सरकारी कैंटीनों में यह जानकारी दी जाए कि किस व्यंजन में कितनी चीनी और तेल डाला जा रहा है। अब सरकारी संस्थानों में बकायदा बोर्ड लगेंगे, जिन पर लिखा होगा, “एक जलेबी में इतनी ग्राम चीनी है” या “एक समोसे में इतना तेल”। बात सिर्फ एक जलेबी की नहीं है, बल्कि उस मानसिकता की है जिसमें स्वाद जीवन के सेहत पर भारी पड़ रहा है।

नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 के मुताबिक भारत में 20 से 24 फीसदी वयस्क अब मोटापे की श्रेणी में हैं। यह स्थिति महिलाओं में ज्यादा गंभीर पाई गई है, और सबसे चौंकाने वाली बात ये है कि अब यह बीमारी बच्चों को भी अपनी गिरफ्त में ले रही है। एक रिपोर्ट के अनुसार मोटापा से ग्रस्त बच्चों की संख्या के मामले में भारत दुनिया में दूसरे स्थान पर है। भारत में करीब 8.4 फीसदी बच्चे मोटापे का शिकार हैं। इतना ही नहीं विशेषज्ञों की मानें तो देश में 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों में मोटापे की दर चिंताजनक रूप से बढ़ रही है। जो वर्तमान और भविष्य दोनों को प्रभावित कर रही है। ऐसे में मोटापा सिर्फ एक शारीरिक समस्या नहीं, यह कई बीमारियों की जड़ है। फैटी लिवर, हाई ब्लड प्रेशर, डायबिटीज़, हृदय रोग, थायरॉइड और यहां तक कि मानसिक अवसाद तक इससे जुड़ते हैं। ये सब रोग धीरे-धीरे शरीर को भीतर से खोखला कर देते हैं। यह धीमा ज़हर है, जो मिठास की परत में छुपा हुआ है।

इसका असर सिर्फ शरीर पर नहीं, अर्थव्यवस्था पर भी पड़ रहा है। रिपोर्ट के अनुसार, भारत को मोटापे के कारण हर साल जीडीपी का 1.7 फीसदी हिस्सा गंवाना पड़ता है, और विशेषज्ञों का मानना है कि आने वाले 30–35 वर्षों में यह लागत 19 गुना तक बढ़ सकती है। यही नहीं, जिन लोगों का वजन अधिक होता है, उनका सालाना औसत स्वास्थ्य खर्च आमजन की तुलना में करीब 32 प्रतिशत ज्यादा होता है। यह सीधे तौर पर मध्यम वर्ग और गरीब तबकों के लिए दोहरी मार है, स्वास्थ्य भी बिगड़े और खर्च भी बढ़े। वहीं इस विकराल संकट के बीच जब वजन कम करने वाली दवाएं ‘फैशन’ की तरह प्रचारित हो रही हैं, तो खतरा और बढ़ जाता है। भारत में एंटी ओबेसिटी दवाओं का बाजार अब तकरीबन 628 करोड़ तक पहुंच गया है, जबकि वैश्विक स्तर पर यह 63,400 करोड़ का आंकड़ा पार कर चुका है। सोशल मीडिया से लेकर जिम, हेल्थ क्लब, कॉर्पोरेट मीटिंग्स तक में यह चर्चा का विषय बन गया है कि कौन-सी दवा वजन कम करने में मदद करती है। इन दवाओं के नाम हैं ओजेम्पिक, विगोवी, रेबेलसस आदि, जो मूलतः टाइप-2 डायबिटीज़ के इलाज के लिए बनी थीं, लेकिन अब इन्हें वजन घटाने के लिए भी इस्तेमाल किया जा रहा है।

मगर सवाल ये है कि क्या वजन घटाने की यह शॉर्टकट संस्कृति सुरक्षित है? डॉक्टरों का मानना है कि इन दवाओं से भूख कम होती है, लेकिन इनके दुष्प्रभाव भी कम नहीं। जी मिचलाना, उल्टी, थकावट, और कई बार मानसिक तनाव। सबसे गंभीर बात यह कि लोग इन दवाओं को “आसान उपाय” मानकर अपनी जीवनशैली और खानपान में कोई बदलाव नहीं लाते। नतीजा यह होता है कि वजन तो कुछ समय घटता है, मगर बीमारी बनी रहती है। इसी गंभीर परिस्थिति को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले वर्ष 2024 में अपने ‘मन की बात’ कार्यक्रम में मोटापे के खतरे पर खुलकर बात की। उन्होंने बताया कि 2022 में दुनिया भर में करीब 250 करोड़ लोग ओवरवेट थे और भारत में हर पांचवां शहरी वयस्क मोटापे से जूझ रहा है। अनुमान है कि 2050 तक भारत में 45 करोड़ लोग मोटापे की चपेट में आ सकते हैं। प्रधानमंत्री ने फिटनेस को व्यक्तिगत नहीं, बल्कि पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारी बताया। उन्होंने मीराबाई चानू, आनंद महिंद्रा, श्रेया घोषाल जैसे प्रमुख लोगों से इसे जन-आंदोलन बनाने की अपील की।

आज जब हर गली-नुक्कड़ पर फास्ट फूड, तला-भुना खाना, और रंग-बिरंगे पेय पदार्थ आसानी से उपलब्ध हैं, तब यह लड़ाई और मुश्किल हो जाती है। चेतावनी बोर्ड एक अच्छी शुरुआत हैं, लेकिन इससे कहीं अधिक जरूरी है एक राष्ट्रीय जागरूकता अभियान, स्कूलों में स्वास्थ्य शिक्षा, और शहरों में ‘हेल्दी फूड ज़ोन’ की व्यवस्था। हमें यह समझना होगा कि बीमारी आने के बाद डॉक्टर के पास जाना एक मजबूरी होती है, मगर बीमारी को आने से रोकना एक जिम्मेदारी है। हमारे बच्चे, हमारे युवा और हमारे बुज़ुर्ग सबको यह जिम्मेदारी निभानी होगी। स्वाद ज़रूरी है, लेकिन उससे ज़्यादा ज़रूरी है जीवन को संपूर्ण ऊर्जा और आत्मविश्वास के साथ जीना। इसीलिए सिर्फ चेतावनी बोर्डों से बात नहीं बनेगी। ज़रूरत है एक राष्ट्रीय स्तर पर ठोस रणनीति की, स्कूलों में ‘फूड लिटरेसी’ की पढ़ाई, शहरी क्षेत्रों में वॉकिंग जोन और साइकल पाथ, सब्सिडी के जरिए हेल्दी फूड को सस्ता बनाना और विज्ञापनों पर नियंत्रण जो बच्चों को जंक फूड के लिए ललचाते हैं। स्वास्थ्य सिर्फ डॉक्टर का विषय नहीं, यह नीति निर्माता, शिक्षक, माता-पिता और समाज सभी की साझा जिम्मेदारी है।