तनवीर जाफ़री
केंद्र सरकार द्वारा पिछले दिनों एम एस पी (न्यूनतम समर्थन मूल्य ) व किसानों व कृषि से जुड़े अन्य कई मुद्दों पर बनाई गई समिति की घोषणा की गयी। पूर्व कृषि सचिव संजय अग्रवाल को इस समिति का चेयरमैन बनाया गया है। कुल 29 सदस्यीय इस समिति में चेयरमैन संजय अग्रवाल के अतिरिक्त नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद, कृषि अर्थशास्त्री डॉ. एस. सी. शेखर और डॉ. सुखपाल सिंह सहित भारत भूषण त्यागी, गुणवंत पाटिल, कृष्णवीर चौधरी, प्रमोद कुमार चौधरी, गुणी प्रकाश, सैयद पाशा पटेल, इफ़को के चेयरमैन दिलीप संघानी और विनोद आनंद को भी सम्मिलित किया गया है। इन सदस्यों के अलावा, राज्य और केंद्र सरकार की ओर से कई वरिष्ठ अधिकारी भी कमेटी में शामिल होंगे। केंद्र सरकार की तरफ़ से कमेटी में कृषि सचिव, आइसीएआर के महानिदेशक, खाद्य सचिव, सहकारिता सचिव, वस्त्र सचिव चार राज्य सरकारों कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, सिक्किम और ओडिशा के कृषि विभाग के अपर मुख्य सचिवों को भी इसमें रखा गया है। केंद्रीय कृषि व किसान कल्याण मंत्रालय के अनुसार ‘ज़ीरो-बजट फ़ार्मिंग को बढ़ावा देने, फ़सलों के पैटर्न में बदलाव करने और एमएसपी को ज़्यादा प्रभावी एवं पारदर्शी बनाने के लिए इस कमेटी का गठन किया गया है। समिति में तीन सदस्यों के स्थान संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा सुझाये गए नामों को समिति में शामिल करने के उद्देश्य से रिक्त छोड़े गये हैं।
कहने को तो किसानों की मांग पर भारत सरकार ने एमसपी पर एक कमेटी का गठन कर दिया है। सरकार ने संसद का मानसून सत्र शुरू होने से पहले ही इस समिति का गठन कर इस विषय को लेकर संसद में पैदा होने वाले किसी गतिरोध से बचने की भी कोशिश की है। साथ ही किसानों को यह संदेश देने की भी कोशिश की है कि गत वर्ष किसान आंदोलन की समाप्ति के समय सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य व किसानों व कृषि से जुड़े अन्य कई विषयों पर जिस कमेटी को गठित करने का वादा किया गया था वह पूरा किया जा चुका है। परन्तु इस समिति के गठन के बाद इसके स्वरूप को लेकर उठ रहे सवालों ने फिर से नये विवादों को जन्म दे दिया है। उदाहरण के तौर पर सरकार की ओर से इसमें पंजाब के किसी कृषि विशेषज्ञ,किसान नेता अथवा राज्य के अधिकारी को शामिल नहीं किया गया है। भले ही पंजाब राजनीतिज्ञों की नज़रों में लोकसभा में 13 और राज्य सभा में मात्र 7 सदस्य भेजकर देश में कम राजनैतिक हैसियत रखने वाला राज्य क्यों न नज़र आता हो परन्तु यह भी सच है कि राष्ट्र्रीय अन्न भंडार में सबसे अधिक योगदान इसी पंजाब राज्य का है। आज यदि पूरे विश्व को गर्व से यह बताया जाता है कि ‘भारत पूरी दुनिया को अन्न खिला सकता है’ तो ऐसे दावे पंजाब और हरियाणा के बल पर ही किये जाते हैं। लिहाज़ा पंजाब के किसानों की तरफ़ से यह संदेह जताना मुनासिब ही है कि केंद्र सरकार द्वारा गठित एम एस पी समिति से पंजाब प्रतिनिधित्व का नदारद रहना कहीं गत वर्ष चले किसान आंदोलन में पंजाब के किसानों की अत्यधिक भागीदारी की सज़ा तो नहीं ?
दूसरी तरफ़ संयुक्त किसान मोर्चा के नेता भी सरकार द्वारा गठित इस समिति से पूर्णतयः असहमत हैं। एस के एम ( संयुक्त किसान मोर्चा ) के नेताओं का साफ़ आरोप है कि सरकार द्वारा गठित समिति के सभी नामित सदस्य भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस की विचारधारा रखने वाले तथा गत वर्ष हुए किसान आंदोलन के विरोधी,कार्पोरेट घरानों के हित साधक तथा सत्ता समर्थक हैं लिहाज़ा इस समिति में एस के एम नेताओं के सदस्य के रूप में शामिल होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। किसान मोर्चा नेताओं का कहना है कि कमेटी के इस स्वरूप से सरकार की बदनीयती साफ नज़र आती है, क्योंकि ये सभी लोग या तो सीधे भाजपा-आरएसएस से जुड़े हैं या उनकी नीति की हिमायत करते हैं और किसान आंदोलन के समय आंदोलन के विरुद्ध ज़हर उगलने का काम करते रहे हैं। उदाहरणर्थ कमेटी के अध्यक्ष पूर्व कृषि सचिव संजय अग्रवाल हैं। यह वही हैं जिन्होंने तीनों किसान विरोधी क़ानून की ड्राफ़्टिंग की थी। दूसरे सदस्य नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद हैं जो इन तीनों विवादित किसान विरोधी क़ानूनों के मुख्य पैरोकार थे । समिति में विशेषज्ञ के नाते वे अर्थशास्त्री रखे गये हैं, जो एमएसपी को क़ानूनी दर्जा देने के ख़िलाफ़ रह चुके हैं। इसी प्रकार कृष्णा वीर चौधरी भारतीय कृषक समाज से जुड़े भाजपा के नेता हैं तो सैयद पाशा पटेल महाराष्ट्र से भाजपा के एमएलसी रह चुके हैं। प्रमोद कुमार चौधरी आरएसएस से जुड़े भारतीय किसान संघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य हैं तो गुणवंत पाटिल शेतकरी संगठन से जुड़े, डब्ल्यूटीओ के पक्षधर व भारतीय स्वतंत्र पक्ष पार्टी के महामंत्री हैं जबकि गुणी प्रकाश का नाम किसान आंदोलन का विरोध करने वालों में अग्रणी था। सरकार द्वारा एमएसपी पर गठित इस समिति को संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा इन्हीं कारणों से ख़ारिज कर दिया गया है और स्पष्ट रूप से सरकार को यह भी बता दिया गया है कि संयुक्त किसान मोर्चा, किसान विरोधी कमेटी में किसी तरह की हिस्सेदारी नहीं करेगा ।
सरकार व किसानों के बीच एमएसपी पर गठित इस समिति को लेकर पैदा हुए गतिरोध के बीच एक बार फिर यह सवाल पैदा होता है कि क्या वास्तव में सरकार की नीयत किसानों को उनकी फ़सल का वह न्यूनतम समर्थन मूल्य देने के लिये साफ़ है जोकि किसानों का अधिकार भी है ? और यदि वास्तव में ऐसा है फिर आख़िर संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा यह आरोप क्यों लगाया जा रहा है कि -‘इस समिति में ऐसे सरकारी पिट्ठुओं की भरमार है, जिन्होंने किसान विरोधी क़ानूनों का समर्थन किया था और न्यूनतम समर्थन मूल्य को क़ानूनी गारंटी देने के ख़िलाफ़ उनका रूख़ सार्वजनिक है ‘? और इसी आधार पर एस के एम नेता यह कहने के लिये भी मजबूर हैं कि -‘ ऐसी किसी कमेटी से किसानों के पक्ष में किसी तर्कसंगत रिपोर्ट और न्याय की आशा नहीं की जा सकती ? संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं का यह भी कहना है कि यह समिति सरकार की इच्छा अनुसार फ़ैसला करने व एमएसपी पर ख़ानापूर्ति करने मात्र के लिए बनाई गई है। इसलिए मोर्चा इस कमेटी में शामिल नहीं होने का ऐलान करता है। स्वामीनाथन आयोग के सी 2+50 फ़ीसदी फ़ार्मूले के अनुसार एमएसपी की गारंटी का क़ानून बनवाने के लिए आंदोलन ही हमारे पास एकमात्र रास्ता बचा है।
तो क्या संयुक्त किसान मोर्चा नेता एक बार फिर किसी बड़े आंदोलन की रणनीति तैयार करेंगे ? या वह मोदी सरकार जिसने किसानों की आमदनी दो गुनी करने का वादा किया था और स्वयं को किसानों का हितैषी बताते नहीं थकती, वह एम एस पी समिति को लेकर राजनीति करने,डब्ल्यू टी ओ व कारपोरेट्स का हित साधने का प्रयास करने के बजाये वास्तव में किसान हितैषी क़दम उठाते हुए पूरी नेकनीयती,ईमानदारी व पारदर्शिता से समिति में किसान हितैषी सदस्यों का समावेश करेगी। जब तक किसानों को इस बात का विश्वास नहीं हो जाता तब तक एम एस पी समिति को लेकर सरकार व किसान नेताओं के बीच तू डाल डाल मैं पात पात का खेल जारी रहेगा। और ऐसा वातावरण न तो सरकार के हित में है न किसानों के और न ही देश और देशवासियों के।