
निलेश शुक्ला
भारतीय लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। यहाँ 90 करोड़ से अधिक मतदाता हर पाँच वर्ष में अपना प्रतिनिधि चुनते हैं और सरकारों को सत्ता सौंपते हैं। लेकिन दुख की बात है कि जैसे-जैसे भारतीय लोकतंत्र परिपक्व होना चाहिए था, वैसे-वैसे यह जाति, धर्म और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के दलदल में और गहराई तक धँसता जा रहा है। आज स्थिति यह है कि राजनीतिक दलों के पास विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि संकट या रोजगार जैसे असली मुद्दों पर जनता के सामने कुछ ठोस कहने को नहीं है। इसके बजाय वे समाज को हिंदू–मुस्लिम, अगड़ा–पिछड़ा, दलित–सवर्ण जैसे खानों में बाँटकर चुनावी अंकगणित साधने में लगे हैं।
हिंदू–मुस्लिम राजनीति से जातीय खाई तक
आज़ादी के बाद से ही भारतीय राजनीति में सांप्रदायिक कार्ड समय-समय पर खेला गया। कभी मंदिर–मस्जिद विवाद, कभी दंगे, कभी ‘मुस्लिम तुष्टिकरण’ और कभी ‘हिंदू एकजुटता’ की बात करके पार्टियों ने सत्ता की सीढ़ियाँ चढ़ीं। लेकिन आज एक और खतरनाक प्रवृत्ति सामने आ रही है—जातीय ध्रुवीकरण।
बिहार चुनाव इसका ताजा उदाहरण है। चुनाव नजदीक आते ही राजनीतिक दल इस कोशिश में जुट जाते हैं कि कैसे दलित, पिछड़े और उच्च वर्ग को अलग-अलग खेमों में बाँटकर अपने-अपने लिए वोट बैंक तैयार किया जाए। कोई अपने को ‘पिछड़ों का मसीहा’ कहता है, तो कोई ‘दलितों का रक्षक’। वहीं कुछ पार्टियाँ उच्च जातियों के हितों की बात करके सामाजिक संतुलन बिगाड़ने का प्रयास करती हैं।
जब तक जनता ऐसे मुद्दों पर नेताओं से सवाल नहीं पूछेगी, तब तक यह राजनीति जारी रहेगी। जनता को यह तय करना होगा कि उनका वोट जाति और धर्म के नाम पर मिलेगा या विकास और नीतियों के आधार पर। लोकतंत्र में जनता ही सबसे बड़ी शक्ति है, लेकिन जब जनता ही जाति-धर्म के चक्रव्यूह में फँस जाती है, तो राजनीतिक दलों को असली जवाबदेही से छूट मिल जाती है।
बिहार की राजनीति हमेशा से जातीय समीकरणों पर टिकी रही है। मंडल राजनीति के बाद से यह राज्य जातीय आधार पर ही नेताओं और दलों का गढ़ बन गया। 2025 का चुनाव भी इससे अछूता नहीं दिखता।
राष्ट्रीय जनता दल (RJD)
तेजस्वी यादव के नेतृत्व में RJD अभी भी यादव–मुस्लिम (MY) समीकरण पर सबसे ज्यादा भरोसा करती है। पार्टी खुद को “पिछड़ों और वंचितों की आवाज़” बताती है। हाल के दिनों में तेजस्वी ने युवाओं और रोजगार का मुद्दा उठाकर अपनी अपील बढ़ाने की कोशिश की है, लेकिन चुनाव आते-आते पार्टी फिर से जातीय पहचान की ओर लौट आती है।
जनता दल यूनाइटेड (JDU)
नीतीश कुमार एक समय “सुशासन बाबू” के नाम से पहचाने जाते थे और उन्होंने जातीय राजनीति से ऊपर उठकर काम करने की कोशिश की थी। लेकिन लंबे समय से सत्ता में रहते-रहते उनकी राजनीति भी फिर से जातीय समीकरण पर टिक गई है। कुर्मी–कोइरी और अतिपिछड़ा वर्ग उनका मुख्य वोट बैंक है। इस चुनाव में वे फिर उसी आधार पर अपनी पकड़ बनाए रखने की कोशिश कर रहे हैं।
भारतीय जनता पार्टी (BJP)
बीजेपी का फोकस इस बार सवर्ण और अति पिछड़ा वर्ग (EBC) को साथ लेकर चलने पर है। पार्टी हिंदू एकजुटता के एजेंडे के साथ-साथ जातीय बिखराव का भी फायदा उठाना चाहती है। पार्टी का चुनावी नैरेटिव अक्सर राष्ट्रीय मुद्दों (राम मंदिर, राष्ट्रीय सुरक्षा, मोदी नेतृत्व) पर होता है, लेकिन बिहार में वह ब्राह्मण, भूमिहार और बनिया वोट को साथ रखने के लिए लगातार प्रयास करती है।
कांग्रेस और वाम दल
कांग्रेस राज्य में अपनी खोई हुई जमीन वापस पाने की कोशिश कर रही है। वह दलित और अल्पसंख्यक वर्ग को टारगेट करती है, लेकिन संगठनात्मक कमजोरी उसकी सबसे बड़ी चुनौती है।
वाम दल (CPI, CPI-ML, CPI-M) किसानों और मजदूरों के मुद्दों पर सक्रिय रहते हैं और सीमित इलाकों में उनका असर भी है। जातीय समीकरणों से परे उनका वोट बैंक वर्ग आधारित राजनीति पर टिकता है।
जातीय समीकरण का खेल
• यादव वोट RJD के साथ परंपरागत रूप से जुड़े हैं।
• कुर्मी–कोइरी JDU का आधार हैं।
• सवर्ण वोट बीजेपी की रीढ़ हैं।
• दलित वोट विभाजित हैं—पासवान (LJP), माँझी (HAM), और अन्य दल अपने-अपने हिस्से के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
• मुस्लिम वोट पारंपरिक रूप से RJD–कांग्रेस के पास रहते हैं, लेकिन कुछ हिस्सों में असंतोष भी दिखाई देता है।
असली मुद्दे फिर गायब
2025 के इस चुनाव में भी महँगाई, बेरोजगारी, पलायन, बुनियादी ढाँचा, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे सवाल पीछे छूट गए हैं। बिहार से लाखों लोग रोज़गार के लिए बाहर जाते हैं, लेकिन यह समस्या चुनावी बहस में गौण रहती है। राजनीति फिर से “कौन किस जाति का है?” और “किसका वोट किसे मिलेगा?” जैसे सवालों तक सीमित हो जाती है।
बिहार चुनाव 2025 यह साफ़ कर देता है कि भारतीय राजनीति किस स्तर तक पहुँच चुकी है। यहाँ भी जातीय खेमेबंदी ही असली आधार है, जबकि जनता के वास्तविक मुद्दे गायब हैं।
RJD यादव–मुस्लिम कार्ड खेल रही है, JDU अतिपिछड़ा–कुर्मी कार्ड, बीजेपी सवर्ण–EBC कार्ड, और कांग्रेस–वाम दल दलित–अल्पसंख्यक कार्ड। हर कोई अपनी-अपनी जातीय गोटियाँ फिट कर रहा है।
यह स्थिति बेहद खतरनाक है क्योंकि यह समाज में स्थायी खाई पैदा करती है। लोकतंत्र की बुनियाद यही है कि राजनीति जनता के जीवन को बेहतर बनाने के लिए हो, लेकिन आज लगता है कि राजनीति केवल सत्ता पाने का खेल बन गई है।
यदि बिहार जैसे राज्य, जिसने देश को सामाजिक न्याय की राजनीति का मॉडल दिया था, आज भी जातीय खेमेबंदी से बाहर नहीं निकल पा रहे, तो यह पूरे भारतीय लोकतंत्र के लिए चिंता की बात है। भारत को अब नई राजनीति चाहिए—जो जाति और धर्म की दीवारें गिराकर विकास, शिक्षा, रोजगार और समान अवसर को अपना असली एजेंडा बनाए।