कौन लगाएगा मुफ्तखोरी के अपराध पर अंकुश ?

सीता राम शर्मा ” चेतन “

सर्वोच्च न्यायालय को लेकर देश की जनता के मन-मस्तिष्क में कैसी धारणा है ? निर्वाचन आयोग पर जनता को कितना भरोसा है ? केंद्र या राज्य सरकार कैसी हो, उसके प्रति आम जनता की क्या राय है ? और इन तीनों से ही आम नागरिक की क्या आशा और अपेक्षाएँ हैं या होनी चाहिए ? यदि इन सवालों के सही जवाब ढूंढ कर उस पर शत-प्रतिशत सफलतापूर्वक कार्य किया जाए, इनमें आवश्यक और प्रयाप्त सुधार कर इन्हें इनके महत्व और उपयोग के पूर्ण योग्य बनाया जाए तो फिर निःसंदेह सदियों तक इस देश और देश के नागरिकों का वर्तमान और भविष्य सुरक्षित, शांतिपूर्ण, समृद्धशाली और स्वर्णिम हो सकता है । पर क्या यह संभव है ? है तो कैसे ? शुरुआत कहां से और किससे हो ? कौन करे या किसे करनी चाहिए ? स्पष्ट है कि इन महत्वपूर्ण सवालों के जवाब और उसके सफल परिणाम का धरातल पर उतरना बिल्कुल संभव है । गंभीरतापूर्वक आवश्यक विचार, नीतियों, कार्यों से यह शत-प्रतिशत संभव है । सरकार, सुप्रीम कोर्ट और निर्वाचन आयोग, तीनों ही खुद में और एक दूसरे में सुधार के अपने अधिकार, दायित्व और कर्तव्यों के निर्वहन का यदि इमानदार प्रयास करें तो ना सिर्फ तीनों में आवश्यक सुधार संभव है बल्कि तीनों ही सदैव अपनी प्रभावशाली और गरिमामयी उपस्थिति को बनाए रखकर इस देश के करोड़ों लोगों को व्यवस्थित और शानदार जीवन जीने की व्यवस्था उपलब्ध करा सकते हैं ! बेहतर होगा कि लीक से हटकर वर्तमान और भविष्य का चिंतन करते हुए विकास के नित्य नए प्रयास करती मोदी सरकार देश के इन तीन महत्वपूर्ण अंगो में कम से कम तीनों के महत्व, गरिमा और अधिकार क्षेत्र के दायरे को बढ़ाने और इन्हें देश तथा देश की जनता के लिए ज्यादा से ज्यादा सशक्त और प्रभावशाली बनाने के लिए एक साथ एक मंच पर लाकर जरूरी चिंतन और सुधार हेतु कार्य करने का माहौल बनाए । गौरतलब है कि इन तीनों ही व्यवस्थाओं या अंगो का देश को व्यवस्थित रखने और चलाने में महत्वपूर्ण स्थान है । अतः इन्हें ना सिर्फ एकजुट होकर समयानुसार देश के लिए खुद को ज्यादा सशक्त और प्रभावशाली बनाने का सफल प्रयास करते रहना चाहिए बल्कि पूरी इमानदारी से सिर्फ और सिर्फ अपने काम और दायित्व का निर्वहन करते हुए एक दूसरे की गलती पर भी पूर्ण निष्पक्षता और पारदर्शिता से से काम करना चाहिए । दुर्भाग्य से देश के कई महत्वपूर्ण मुद्दों और समस्याओं के समाधान पर इनमें एक दूसरे को लेकर जो असमंजस, असहयोग, टकराव अथवा खुद को असहाय या कमजोर बताने की स्थिति सामने आती है, वह देश के साथ आम जनता के लिए भी बेहद चिंताजनक है । पिछले कुछ वर्षों में देश के राजनीतिक दलों के द्वारा चुनाव जीतने के लिए जिस तरह जनता को धन, संसाधन और कई अन्य सुविधाएँ मुफ्त बांटने का प्रलोभन बिना देशहित और दूरगामी परिणामों को सोचे समझे दिया जा रहा है वह बेहद खतरनाक है । अपने और दलगत स्वार्थ के लिए देश के महत्वपूर्ण धन और संसाधनों का दुरुपयोग करना, जनता को लालच देना, जनता में मुफ्तखोरी की आदत डाल उसके जीवन कौशल को कम या निष्क्रिय करने का प्रयास करना बड़ा, संगीन और अक्षम्य अपराध है, जो देश के राजनीतिक दल खुलकर सरेआम पूरे होश और जोश में साधिकार किए जा रहे हैं । आश्चर्य की बात है कि जब राजनीतिक दलों की इन गैर जिम्मेवार, स्वार्थी, देशघाती और पापी मंशाओं, नीतियों और घोषणाओं के दूरगामी बेहद विस्फोटक नतीजों से चिंताग्रस्त देश का कोई नागरिक, बुद्धिजीवी या संस्थान इन पर रोक लगाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय पहुंचता है तो न्यायालय, सरकार और चुनाव आयोग में से कौन इस पर अंकुश लगा सकता है, इस पर उनमें ही बहस छिड़ जाती है ! सभी एक दूसरे से उनकी राय मांगते हैं और इस पर अपने और उनके अधिकार क्षेत्र पर सवाल उठाने लगते हैं ! उफ्फ, हाँ तब जनता भौंचकी हो यह सोचती रह जाती है कि उसके छोटे-छोटे अपराधों पर कठोर कार्रवाई करने का डर दिखाती देश को चलाने वाली ये महत्वपूर्ण संस्थाएँ पूरे देश को ही गर्त में ले जाने वाले इन राजनीतिक अपराधियों को दंडित करने या इन पर अंकुश लगाने में कितनी असहाय है ! गौरतलब है कि मुफ्त की राष्ट्रघाती राजनीति करने वालों पर अंकुश लगाने के लिए एक याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई जारी है और अब इस मुद्दे पर वित्त आयोग की राय भी मांगी जा रही है, जो एक आम आदमी की सोच और समझ से बाहर की बात है । वह तो सुन्न हुए दिमाग से सन्नाटे में बैठा अपने देश के इन महत्वपूर्ण संस्थानों के बारे में सोचकर विवशता में आँसू बहाने को अभिशप्त हुआ यह सोच रहा है कि राजनीतिक दलों के मुफ्तखोरी के जारी इस अक्षम्य अपराध पर अंकुश आखिर कौन लगाएगा ? और कब ? जिस पर बहस और तारीखों का दौर जारी है !!