सूर्य श्रद्धा का छठ महापर्व की नहाय-खाय के साथ उपासना शुरू

The worship of the Chhath Mahaparva of Surya Shraddha begins with Nahay-Khaay

संजय सक्सेना

छठ महापर्व की शुरुआत नहाय-खाय के साथ हो चुकी है और इसके साथ ही वातावरण में भक्ति और पवित्रता का अद्भुत संगम दिखाई देने लगा है। नदियों, तालाबों और पोखरों के किनारे श्रद्धालुओं की भीड़ जमा है। लोग अपने शरीर और मन को शुद्ध करने के लिए स्नान कर रहे हैं, ताकि आने वाले दिनों में वे पूरी तपस्या और संकल्प के साथ व्रत का पालन कर सकें। छठ पर्व भारतीय संस्कृति का एक उज्ज्वल प्रतीक है, जो यह सिखाता है कि जीवन में पवित्रता, संयम और प्रकृति के प्रति सम्मान बनाए रखने से ही सच्ची समृद्धि संभव है। यह पर्व हर वर्ष हमें याद दिलाता है कि सूर्य न केवल हमारे शरीर को रोशनी देता है, बल्कि हमारी आत्मा को भी ऊर्जा प्रदान करता है। छठ महापर्व विज्ञान, अध्यात्म, लोक और प्रकृति, विचारों तत्वों का ऐसा संगम है जिसमें भारतीय जीवन-दर्शन की समग्र झलक दिखाई देती है। इस दिन व्रत रखने वाले शुद्ध शाकाहारी आहार ग्रहण करते हैं, जिसमें अक्सर लौकी और चने की दाल का उपयोग होता है। यह भोजन जल ग्रहण से पूर्व तैयार किया जाता है और उसे पूर्ण श्रद्धा से ग्रहण किया जाता है। इसके साथ ही घरों में स्वच्छता और शुद्धता का विशेष ध्यान रखा जाता है, क्योंकि छठ पर्व में पवित्रता सर्वोपरि मानी जाती है।

छठ महापर्व भारत के उत्तर और पूर्वी भागों में विशेष रूप से बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता है। इस पर्व की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें किसी प्रकार की मूर्ति पूजा नहीं होती, बल्कि सीधे सूर्य देव और उनकी पत्नी ऊषा की आराधना की जाती है। छठ के चारों दिनों में अनुशासन, संयम और भक्ति का अनुपम उदाहरण देखने को मिलता है। नहाय-खाय के बाद दूसरे दिन खरना होता है, जिसमें व्रती पूरे दिन निर्जला उपवास रखते हैं और शाम को गन्ने के रस या गुड़ से बने खीर-रोटी का प्रसाद ग्रहण करते हैं। फिर तीसरे और चौथे दिन अस्ताचलगामी तथा उदयाचल सूर्य को अर्घ्य देकर व्रत संपन्न किया जाता है। इस दौरान घाटों पर लोकगीतों की मनमोहक ध्वनि, ढोल-मंजीरे की ताल और दीपों की रौशनी पूरे वातावरण को भावनाओं से भर देती है।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार छठ पर्व की शुरुआत त्रेतायुग से हुई थी। कहा जाता है कि जब भगवान राम वनवास से लौटकर अयोध्या आए, तब माता सीता ने कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि पर सूर्य देव की उपासना की थी और तभी से यह पर्व लोकजीवन में प्रचलित हुआ। एक अन्य कथा के अनुसार, महाभारत काल में सूर्यपुत्र कर्ण प्रतिदिन सूर्य देव की उपासना करते थे। वे अपने जीवन में असीम शक्ति और तेज प्राप्त करने के लिए उदय और अस्ताचल दोनों काल में सूर्य को अर्घ्य देते थे। यही कारण है कि छठ पर्व में उगते और डूबते सूर्य, दोनों की पूजा का विधान है। यह पर्व इस तथ्य को भी उजागर करता है कि सूर्य को केवल ऊर्जा के स्रोत के रूप में नहीं, बल्कि जीवनदायी शक्ति के रूप में भी देखा जाता है।

वैदिक ग्रंथों में सूर्य को ‘सर्व लोक प्रकाशक’ कहा गया है, जो समस्त जीवों को जीवन प्रदान करते हैं। छठ पूजा के माध्यम से यह विश्वास दृढ़ होता है कि प्रकृति के प्रति सम्मान और आभार का भाव हमारे जीवन का आधार है। ग्रामीण समाज में छठ पर्व केवल धार्मिक अनुष्ठान भर नहीं, बल्कि सामाजिक एकता और पारस्परिक सहयोग की मिसाल भी है। पूरा गाँव, मोहल्ला और समाज इस चार दिवसीय महोत्सव में एक साथ जुड़ जाता है। लोग एक-दूसरे के घर सहयोग से सामान पहुँचाते हैं, घाट साफ करते हैं और सामूहिक रूप से पूजा की तैयारी करते हैं। इसमें न कोई भेदभाव होता है, न ही कोई ऊँच-नीच का भाव। सभी लोग समान आस्था और समान श्रम से इस पर्व को सफल बनाते हैं।

छठ पर्व का एक और अनूठा पहलू यह है कि इसमें व्रत करने वाले अधिकतर महिलाएँ होती हैं, लेकिन पुरुष भी समान श्रद्धा से इस तप में भाग लेते हैं। व्रती लगातार 36 घंटे तक बिना अन्न और जल ग्रहण किए रहकर सूर्य देव से संतान की लंबी आयु, सुख-समृद्धि और परिवार के कल्याण की कामना करते हैं। इस व्रत को करने से मानसिक स्थिरता, आत्म-शुद्धि और आत्म-संयम की भावना विकसित होती है। घाटों पर जब डूबते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है, तो वह दृश्य इतना भावनात्मक होता है कि देखने वाला हर व्यक्ति उस क्षण आध्यात्मिक ऊर्जा से भर उठता है। सैकड़ों दीप जल उठते हैं और जल में उनकी परछाइयाँ टिमटिमाते तारों की तरह नजर आती हैं। लोकगीतों की सजीवता उस पल को और भी जीवंत बना देती है। ये गीत मातृत्व, आस्था, प्रेम और सामाजिक सौहार्द के भावों से रचे होते हैं। इनमें लोक परंपरा की वह गरिमा बसती है जिसने भारत की सांस्कृतिक विरासत को पीढ़ी दर पीढ़ी जीवित रखा है।

छठ महापर्व का वैज्ञानिक महत्व भी गहराई से जुड़ा है। जब सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है, तो जल की सतह पर झुककर सूर्य की किरणों का प्रतिबिंब देखा जाता है। यह प्रक्रिया नेत्रों के लिए लाभकारी मानी जाती है क्योंकि इससे नेत्रों की कोशिकाएँ सक्रिय होती हैं और शरीर में सूर्य ऊर्जा का संतुलन बनता है। इसके अतिरिक्त व्रत से शरीर में विषैले तत्वों का निष्कासन होता है और लंबे उपवास के कारण शरीर को नई ऊर्जा मिलती है। इसी कारण छठ को न केवल धार्मिक बल्कि स्वास्थ्य से जुड़ा पर्व भी कहा जाता है।

लोक मान्यताओं के अनुरूप छठ पूजा के दौरान बनाई जाने वाली हर वस्तु का विशेष अर्थ होता है। बांस की टोकरी में फल, ठेकुआ, केला, नारियल, नींबू और गन्ना रखा जाता है जो समृद्धि और पवित्रता के प्रतीक हैं। व्रती जब घाट पर जाती हैं, तो उनके साथ परिवार के लोग भी प्रसाद की टोकरी उठाकर चलते हैं। यह सामूहिकता का सुंदर प्रतीक है। बच्चे और बुजुर्ग, सभी उत्साह में शामिल होते हैं। घाटों पर सुरक्षा और स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जाता है। प्रशासन और स्थानीय लोग मिलकर सफाई अभियान चलाते हैं ताकि भक्त निर्बाध रूप से पूजा कर सकें। शाम और सुबह का अर्घ्य इस पर्व का चरम क्षण होता है, जब आसमान लालिमा से भर जाता है और जल में उतरता सूर्य दिव्यता का प्रतीक बन जाता है।

छठ महापर्व का समापन उगते सूर्य को अर्घ्य देने के साथ होता है। सूर्योदय के समय जब व्रती जल में खड़े होकर दोनों हाथों से अर्घ्य देते हैं, तो उनके चेहरे पर संतोष और कृतज्ञता की झलक दिखती है। यह केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं बल्कि आस्था और कृतज्ञता का भावनात्मक विसर्जन है। चार दिनों की तपस्या के बाद जब व्रती अपने घर लौटते हैं, तो उनके मन में एक अनोखा आत्मसंतोष होता है कि उन्होंने अपने परिवार के कल्याण के लिए सृष्टि के सबसे बड़े ऊर्जा स्रोत के प्रति अपनी निष्ठा प्रदर्शित की।