निलेश शुक्ला
भारत में एक समय था जब राजनीति को सेवा का माध्यम माना जाता था। गांधी, पटेल, अटल और जयप्रकाश जैसे नेताओं ने राजनीति को लोककल्याण का पवित्र धर्म माना था। लेकिन आज राजनीति का स्वरूप पूरी तरह बदल चुका है। शिक्षा, आरोग्य और धर्म के बाद अब राजनीति भी एक लाभ का व्यवसाय बन चुकी है। सत्ता का अर्थ सेवा नहीं रहा, बल्कि सत्ता अब लाभ और संरक्षण का साधन बन गई है।
आज भारत के लोकतंत्र की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि राजनीति में आने के लिए कोई शैक्षणिक योग्यता या नैतिक पात्रता की आवश्यकता नहीं है। डॉक्टर बनने के लिए डिग्री चाहिए, इंजीनियर बनने के लिए प्रमाणपत्र चाहिए, शिक्षक बनने के लिए परीक्षा देनी पड़ती है, लेकिन देश की नीति और कानून बनाने वाले नेताओं के लिए कोई योग्यता आवश्यक नहीं। कोई भी व्यक्ति, चाहे अनपढ़ हो या अपराधी पृष्ठभूमि का, चुनाव लड़ सकता है और मंत्री बन सकता है।
यह वही क्षेत्र है जो तय करता है कि देश की शिक्षा कैसी होगी, स्वास्थ्य नीति क्या होगी, उद्योग कैसे चलेंगे, विदेश नीति कैसी होगी, लेकिन विडंबना यह है कि इन नीतियों को बनाने वाले लोगों के पास स्वयं कोई योग्यता या नैतिक प्रशिक्षण नहीं होता। यही कारण है कि राजनीति अब सेवा का नहीं, अवसरवाद का माध्यम बन गई है।
भारत के चुनाव आयोग के आंकड़े बताते हैं कि हर तीसरा जनप्रतिनिधि किसी न किसी आपराधिक मामले में आरोपी है। इनमें से कई पर गंभीर आरोप — हत्या, अपहरण, बलात्कार या भ्रष्टाचार के हैं। बावजूद इसके वे चुनाव लड़ते हैं और संसद या विधानसभा में पहुंच जाते हैं। इसका कारण यह है कि कानून में “दोषसिद्धि से पहले अयोग्यता” की कोई स्पष्ट व्यवस्था नहीं है। जब तक कोर्ट सजा नहीं देता, व्यक्ति चुनाव लड़ सकता है। और भारतीय न्याय व्यवस्था में फैसले आने में दशकों लग जाते हैं। परिणामस्वरूप, अपराधी तत्व राजनीति में प्रवेश कर जाते हैं और राजनीति उनके लिए ढाल बन जाती है।
राजनीति अब “करियर” बन चुकी है। आज युवा राजनीति में देशसेवा के लिए नहीं आते, बल्कि इसे एक आसान कैरियर मानते हैं — जिसमें न डिग्री चाहिए, न नौकरी की परीक्षा, बस पैसा, जातीय समीकरण और प्रचार तंत्र चाहिए। जहां एक सरकारी नौकरी पाने के लिए पीएचडी तक की मांग होती है, वहीं सांसद या विधायक बनने के लिए केवल एक नामांकन पत्र काफी है। राजनीति अब लोकतंत्र नहीं, बल्कि ‘लोक-तंत्र’ बन गई है, जहां ताकतवर तंत्र जनता पर शासन करता है।
इस गिरावट की सबसे बड़ी जिम्मेदारी जनता और बुद्धिजीवी वर्ग दोनों की है। देश का शिक्षित और चिंतनशील वर्ग राजनीति से दूरी बनाकर बैठ गया है। वह राजनीति को “गंदा खेल” कहकर उससे अलग हो गया, और इसी खाली जगह को अपराधी और अवसरवादी लोगों ने भर लिया। अब वक्त आ गया है कि बुद्धिजीवी वर्ग यह सवाल उठाए कि क्या राजनीति में भी शिक्षा और नैतिक पात्रता की अनिवार्यता नहीं होनी चाहिए?
भारत का संविधान निस्संदेह दुनिया का सबसे प्रगतिशील दस्तावेज है, लेकिन अब उसमें समय के अनुरूप बदलाव की जरूरत है। लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करने के लिए जरूरी है कि संविधान में सुधार किए जाएं —
राजनीति में न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता तय हो, आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने से रोका जाए, राजनीतिक दलों को यह बताना अनिवार्य किया जाए कि वे किन आधारों पर टिकट दे रहे हैं, और राजनीतिक फंडिंग को पूरी तरह पारदर्शी बनाया जाए। जब तक ये सुधार नहीं होंगे, तब तक राजनीति में शुद्धता केवल भाषणों में सीमित रहेगी।
अगर कोई नेता इस दिशा में कदम उठा सकता है, तो वह नरेंद्र मोदी हैं। उनके पास जनसमर्थन, राजनीतिक इच्छाशक्ति और प्रशासनिक अनुभव तीनों हैं। मोदी ने 2014 में भ्रष्टाचार के खिलाफ, 2019 में राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर, और 2024 में विकास और स्थिरता के नाम पर जनता का भरोसा जीता है। जनता ने उन्हें 2029 तक का समय दिया है। अब यह अवसर है कि वे राजनीति में शुद्धता लाने का अभियान शुरू करें।
यदि मोदी चाहें, तो राजनीति में शिक्षा और नैतिक पात्रता को अनिवार्य कर भारत के लोकतंत्र को नई दिशा दे सकते हैं। यह कदम केवल सुधार नहीं, बल्कि एक राष्ट्रीय पुनर्जागरण होगा। राजनीति में अपराध और अवसरवाद के स्थान पर आदर्श और सेवा की भावना लौटेगी।
भारत आज विज्ञान, तकनीक, रक्षा और कूटनीति के क्षेत्र में तेजी से आगे बढ़ रहा है, लेकिन अगर राजनीति का तंत्र दूषित रहा, तो यह प्रगति टिक नहीं पाएगी। राजनीति ही वह जड़ है जिससे शासन और समाज का पेड़ पनपता है। अगर जड़ सड़ी हो तो पेड़ फल नहीं देगा। इसलिए राजनीति को शुद्ध करना ही राष्ट्र को बचाना है।
जनता को भी अपनी सोच बदलनी होगी। वोट जाति, धर्म या मुफ्त योजनाओं के आधार पर नहीं, बल्कि योग्यता, ईमानदारी और दृष्टिकोण के आधार पर देना होगा। क्योंकि जब तक जनता जिम्मेदार नहीं बनेगी, राजनीति कभी जवाबदेह नहीं बनेगी।
भारत को फिर से वैसा देश बनाना है जहां राजनीति धर्म का पर्याय हो — जहां सत्ता सेवा का साधन हो, लाभ का नहीं; जहां नेता का लक्ष्य देश का कल्याण हो, न कि अपने परिवार या दल का। नरेंद्र मोदी के पास यह अवसर है कि वे 2029 तक इस दिशा में निर्णायक सुधार करें।
क्योंकि अगर राजनीति सुधर गई तो शिक्षा, आरोग्य, धर्म, उद्योग और समाज — सब अपने आप सुधर जाएंगे। राजनीति ही मूल है, और वही आज सबसे बड़ा रोग भी बन चुकी है। अब इलाज जरूरी है। देश की आत्मा राजनीति में ही बसती है — और इस आत्मा को पवित्र करने का समय आ गया है।





