सांसें भी किश्तों में…प्रवासी जीवन की अनकही सच्चाई

Even breaths come in installments…the untold truth of migrant life

चमक के पीछे की थकान, वतन से दूर, किस्तों में सांसें — प्रवास की पीड़ा, घर अपना, लेकिन देश पराया।

विदेशों में रह रहे भारतीयों की ज़िंदगी जितनी चमकदार दिखती है, उतनी ही संघर्षपूर्ण होती है। कनाडा में रह रही राजेश नाँदल की कहानी इसी सच्चाई को उजागर करती है — जहाँ ऊँचे मकान और सुविधाएँ हैं, वहीं हर सांस पर किस्तों का बोझ भी है। परिवार से दूरी, बढ़ते खर्च, और मातृभूमि की यादें उन्हें भीतर तक थका देती हैं। यह कहानी हर उस प्रवासी भारतीय की है जो आर्थिक स्थिरता की खोज में भावनात्मक स्थिरता खो बैठता है — क्योंकि सच यही है कि विदेश में सांसें भी किश्तों में चलती हैं।

डॉ प्रियंका सौरभ

आज मुझे फिजियोथेरेपिस्ट के पास जाना था। यहाँ अपॉइंटमेंट लेने से पहले आपको ऑनलाइन पैनल से समय और व्यक्ति चुनना होता है। स्क्रीन पर तीन नाम आए — मैंने देखा, उनमें से एक नाम भारतीय सा लगा। मन में सहज भाव उठा — “चलो, अपने देश की कोई होगी।” विदेश में रहते हुए अपने देशवासियों से मिलना हमेशा एक अलग तरह की आत्मीयता देता है। मैंने उसी नाम को फ़ाइनल किया।

समय तय हुआ रात 11:30 बजे का। अगली सुबह मैं तय समय पर पहुँची। जैसे ही वह मेरे सामने आई, उसके चेहरे की सहज मुस्कान और बोलने के लहज़े से ही लगा — यह भारतीय है। बातचीत की शुरुआत होते-होते पता चला कि वह तो मेरे ही नज़दीक गाँव से ताल्लुक रखती है। फिर तो जैसे एक झटके में दूरी मिट गई और हम दोनों के बीच आत्मीय बातचीत शुरू हो गई।

उसका नाम राजेश नाँदल था। उसने बताया कि उसने भारत में मेडिकल कॉलेज से नर्सिंग की पढ़ाई की थी, परीक्षा पास की और फिर बेहतर अवसरों की तलाश में कनाडा आ गई थी। लेकिन यहाँ आकर उसे एक बड़ी सच्चाई का सामना करना पड़ा — कनाडा सरकार भारतीय डिप्लोमा को मान्यता नहीं देती। इसलिए नौकरी पाने के लिए उसे यहाँ का फिजियोथेरेपी डिप्लोमा फिर से करना पड़ा।

राजेश ने मुस्कराते हुए कहा, “यहाँ पढ़ाई और परीक्षा दोनों आसान नहीं हैं, लेकिन कुछ करने का जज़्बा था, तो कर लिया। अब फिजियोथेरेपिस्ट के तौर पर काम करती हूँ, पर अभी भी चुनौतियाँ खत्म नहीं हुईं।”

मैंने पूछा, “पूरा टाइम काम करती हो?”
वह बोली, “नहीं, अभी मेरी दो बेटियाँ हैं — बड़ी स्कूल जाती है और छोटी डे केयर में रहती है। इसलिए मैं पूरे दिन की नौकरी नहीं कर पाती। घंटों के हिसाब से शिफ़्ट लेती हूँ। बड़ी को स्कूल छोड़ती हूँ, फिर छोटी को डे केयर में देकर काम पर जाती हूँ। शाम को दोनों को लेकर घर लौटती हूँ।”

उसकी बातों में एक सामान्य दिनचर्या की झलक थी, पर हर वाक्य के पीछे संघर्ष की गूँज थी।

फिर उसने अपने जीवन की परतें धीरे-धीरे खोलनी शुरू कीं —
“हम यहाँ बारह साल पहले आए थे। उस समय हालात ठीक थे, खर्च manageable था। पाँच साल पहले हमने यहाँ एक घर ख़रीदा। मकान ख़रीदने का सपना हर प्रवासी भारतीय का होता है — क्योंकि लगता है कि यह हमारे बसने और स्थायित्व का प्रतीक होगा। लेकिन अब लगता है, वही घर हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गया है।”

मैंने पूछा, “क्यों?”
वह बोली — “पहले ब्याज दरें कम थीं। फिर अचानक बैंक का ब्याज बढ़ गया। अब हर महीने की किस्त पहले से दोगुनी हो चुकी है। घर, गाड़ी, बच्चों की पढ़ाई, इंश्योरेंस और रोज़मर्रा का खर्च इतना बढ़ गया है कि अगर हम दोनों पति-पत्नी काम न करें, तो घर चलाना असंभव हो जाता है।”

उसने हल्की हँसी के साथ जोड़ा — “यहाँ तो लगता है कि सांसें भी किश्तों में चलती हैं।”

मैं उस वाक्य पर ठिठक गई। उसमें व्यथा और यथार्थ दोनों समाहित थे।

राजेश आगे बोली — “मकान लेने के बाद हम अपनों से मिलने भारत नहीं जा पाए। पहले हर दो-तीन साल में एक बार अपने वतन जाकर परिवार से मिल आते थे, लेकिन अब पाँच साल हो गए हैं। टिकट के दाम इतने बढ़ गए हैं कि एक परिवार का राउंड ट्रिप भी बहुत महँगा पड़ता है। फिर वहाँ जाते वक्त घरवालों के लिए गिफ्ट्स, कपड़े, बच्चों की चीज़ें — यह सब मिलाकर खर्च इतना हो जाता है कि हमें कई महीने तक बचत करनी पड़ती है। लेकिन यहाँ बचत कहाँ हो पाती है?”

उसकी आँखें भर आईं।
“हमारे परिवार के लोग सोचते हैं कि हम विदेश में रहते हैं तो बहुत आराम में होंगे, लेकिन उन्हें कैसे बताएं कि हम तो यहाँ दिन-रात मेहनत कर के भी बस किश्तों में ज़िंदगी जी रहे हैं। हमारे लिए ‘सेविंग’ अब एक शब्द भर रह गई है। हर महीने की शुरुआत एक उम्मीद से होती है और अंत चिंता में गुजरता है कि अगले महीने की किस्तें कैसे चुकाएँगे।”

मैंने पूछा — “बच्चियाँ अपने दादा-दादी या नाना-नानी से मिलती हैं?”
वह बोली — “नहीं, उन्होंने आज तक उन्हें सिर्फ़ वीडियो कॉल पर ही देखा है। दोनों कभी भारत नहीं गईं। छोटी तो बस स्क्रीन पर देखकर कहती है — ‘ये इंडिया वाले नाना हैं?’ मुझे बहुत दुख होता है, पर क्या करें, खर्चों का पहाड़ हमें बाँधे रखता है।”

राजेश कुछ देर चुप रही, फिर बोली —
“कई बार हम सोचते हैं, काश मकान न खरीदा होता। किराए पर रहते तो शायद मन हल्का रहता। घर का मालिक बनने की खुशी तो थी, लेकिन उसके बाद जिम्मेदारियों ने हमें बाँध लिया। अब बेचे भी तो घाटा होगा, और रखे तो किस्तों में दम घुटता है।”

उसकी आवाज़ में कहीं न कहीं हर प्रवासी भारतीय का दर्द झलक रहा था।
विदेशों में बसे भारतीय अक्सर आर्थिक दृष्टि से स्थिर माने जाते हैं, पर उनका भावनात्मक संसार हमेशा अपूर्ण रहता है।

यह कहानी सिर्फ़ राजेश की नहीं, बल्कि उन लाखों भारतीयों की है जो कनाडा, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, यूरोप या खाड़ी देशों में अपनी मेहनत से जीवन चलाते हैं। वे वहाँ के समाज का हिस्सा बन जाते हैं, पर उनकी जड़ें हमेशा भारत में रहती हैं। दिल की गहराइयों में यह भावना हमेशा रहती है कि एक दिन वापस लौटेंगे, पर परिस्थितियाँ उन्हें लौटने नहीं देतीं।

प्रवासी जीवन की यही सबसे बड़ी विडंबना है —
सपनों की धरती पर पहुँचे लोग अपने ही सपनों में कैद हो जाते हैं।

राजेश ने कहा, “यहाँ सब कुछ है — अच्छी सड़कें, सुविधाएँ, सिस्टम, लेकिन वह अपनापन नहीं है जो अपने देश में होता है। यहाँ त्योहार भी मनाते हैं, लेकिन वह रौनक कहाँ? दीवाली पर दीये जलाते हैं, पर दिल में वही घर की यादें जलती रहती हैं। बच्चे यहाँ के माहौल में पले-बढ़े हैं, उन्हें शायद कभी वह मिट्टी का एहसास न हो जो हमें अपनी मातृभूमि से जोड़ता है।”

उसने आगे कहा, “जब कभी वीडियो कॉल पर माँ कहती है कि ‘इस बार तो आ जा, बेटा’, तो बस आँखें भर आती हैं। लेकिन छुट्टियाँ सीमित हैं, खर्च बेहिसाब, और यहाँ का सिस्टम इतना सख्त कि मन से चाहकर भी उड़ान नहीं भर पाते।”

उसकी बातें सुनकर मैं भीतर तक हिल गई। मुझे लगा जैसे यह सिर्फ़ राजेश की कहानी नहीं — यह हर उस भारतीय की कहानी है जिसने विदेशों में बेहतर भविष्य की तलाश में अपनी जड़ों से दूरी बना ली।

राजेश के शब्द — “यहाँ तो सांसें भी किश्तों में चलती हैं” — सिर्फ़ एक वाक्य नहीं, बल्कि आधुनिक प्रवासी जीवन का पूरा दर्शन हैं। यह वाक्य बताता है कि जहाँ आर्थिक स्थिरता की खोज होती है, वहीं भावनात्मक अस्थिरता भी उतनी ही गहरी होती है।

प्रवासी भारतीयों के जीवन में एक अजीब विरोधाभास होता है — बाहर से सब कुछ चमकता हुआ लगता है, पर अंदर संघर्ष की लकीरें गहरी होती जाती हैं। उनका हर दिन जिम्मेदारियों का हिसाब-किताब बनकर रह जाता है।
सुबह से रात तक की भागदौड़ के बीच वे अपने अस्तित्व को संभाले रहते हैं — एक ओर नौकरी, दूसरी ओर परिवार; एक ओर सपनों का घर, दूसरी ओर मातृभूमि की याद।

उनकी ज़िंदगी एक निरंतर समझौता है —
सपनों और वास्तविकता, सुख और कर्तव्य, मन और समाज के बीच का।

इस पूरी बातचीत के बाद मैं जब घर लौटी, तो लंबे समय तक राजेश के शब्द कानों में गूंजते रहे। मैंने सोचा — शायद यही आधुनिक प्रवासी की नियति है।
घर से दूर रहकर भी घर के लिए ही जीना।
हर सुविधा पाकर भी अपनों की कमी महसूस करना।
हर महीने की कमाई का हिसाब रखते हुए भी रिश्तों की भावनाओं का घाटा झेलना।

राजेश की कहानी सुनकर लगा कि विदेश में बसना शायद आसान हो, पर मन का बसना बेहद कठिन है।