योगेश कुमार गोयल
बंगाल की खाड़ी के ऊपर बने कम दबाव के क्षेत्र और पश्चिमी विक्षोभ के कारण देश के कई राज्यों में इस समय भारी बारिश का दौर जारी है, जिससे अनेक स्थानों पर जनजीवन अस्त-व्यस्त है और विदा होता मानसून कुछ स्थानों पर तबाही भी मचा रहा है। मौसम विभाग का कहना है कि यह दौर अभी अगले कुछ दिन और जारी रह सकता है। मानसून जाते-जाते उत्तर भारत के कुछ राज्यों में जिस प्रकार का कहर बरपा रहा है, वह अप्रत्याशित है। दरअसल इनमें से कई क्षेत्र ऐसे हैं, जो इस बार मानसून के दौरान सूखे रहे लेकिन विदाई लेता मानसून लोगों के लिए गंभीर चुनौतियां साथ लेकर आया है। भारी बारिश के कारण कई जगहों पर किसानों की धान, बाजरा, ज्वार, मक्का, उड़द, मूंग, गन्ना इत्यादि खरीफ की फसलों को काफी नुकसान हुआ है, जगह-जगह जलभराव, सड़कों के दरिया बन जाने और भयानक जाम के कारण लोगों की मुश्किलें बढ़ रही हैं, लोगों के मकान ढ़ह रहे हैं, वहीं विभिन्न राज्यों में बारिश, बाढ़ और बिजली गिरने की घटनाओं के कारण कई लोगों की मौत भी हुई है। 22 सितम्बर को बुंदेलखण्ड तथा मध्य उत्तर प्रदेश में भारी बारिश और बिजली की चपेट में आने से 20 लोगों की मौत हो गई। 19 सितम्बर को बिहार के विभिन्न जिलों में बारिश के दौरान आसमान से बिजली गिरने के कारण 23 लोगों की मौत हो गई जबकि एक दर्जन से ज्यादा लोग झुलस गए। पिछले दिनों भारी बारिश ने लखनऊ में काफी तबाही मचाई। मौसम विभाग द्वारा 25 सितम्बर तक मानसून की विदाई का अनुमान लगाया गया था किन्तु ऐसा अनुमान नहीं था कि विदा होता मानूसन विभिन्न राज्यों में इस प्रकार कहर बरपाते हुए विदा होगा। हालांकि अब मानसून विभाग का मानना है कि समस्त उत्तर भारत से मानसून इस महीने के आखिर तक ही विदा हो पाएगा।
वैसे इस वर्ष मानसून की चाल पूरे सीजन अस्त-व्यस्त ही रही है, कहीं भारी-भरकम बारिश के कारण बाढ़ की स्थिति बनी रही तो कुछ राज्य सूखे ही रह गए, जिनमें से कुछ में विदा होते मानसूनी बादल अब जमकर बरस रहे हैं। वैसे तो इस वर्ष देश के अधिकांश इलाके मानसूनी बारिश से तर-बतर रहे और बारिश सामान्य 832.4 मिलीमीटर के मुकाबले अब तक 890.4 मिलीमीटर बारिश दर्ज हुई है और लेकिन इसके बावजूद मानूसन के दौरान उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, दिल्ली, हरियाणा, त्रिपुरा, मिजोरम, मणिपुर इत्यादि कई राज्य काफी हद तक सूखे की चपेट में ही रहे हैं। मानूसन की यह बिगड़ती चाल पर्यावरण संतुलन गड़बड़ाने का ही परिणाम है। निश्चित रूप से यह प्रकृति के साथ मानवीय छेड़छाड़ के चलते कुदरत के प्रकोप का ही असर है कि एक ओर जहां देश के कई राज्य इस बार भयानक बाढ़ से त्रस्त नजर आए, वहीं कई राज्य आसमान की ओर मुंह ताकते बारिश का इंतजार करते रह गए। असम हो या बेंगलुरू, बाढ़ से हुई भारी तबाही का मंजर हर कहीं हर किसी ने देखा है। इस साल भारी बारिश और बाढ़ के कारण विभिन्न राज्यों में हजारों लोगों की मौत हुई। मानूसन की बिगड़ती चाल और विभिन्न राज्यों में अचानक आती बाढ़ अब कोई प्राकृतिक आपदा नहीं रही बल्कि अधिकांश पर्यावरण वैज्ञानिकों अब इसे मानव निर्मित त्रासदी की संज्ञा देने लगे हैं। दरअसल सूखा, अति वर्षा और बाढ़, इन सभी स्थितियों के लिए जलवायु परिवर्तन, विकास की विभिन्न परियोजनाओं के लिए वनों की अंधाधुंध कटाई, नदियों में होते अवैध खनन को प्रमुख रूप से जिम्मेदार माना जा रहा है, जिससे मानसून प्रभावित होने के साथ-साथ भू-रक्षण और नदियों द्वारा कटाव की बढ़ती प्रवृत्ति के चलते होती तबाही के मामले साल दर साल बढ़ रहे हैं।
अब प्रतिवर्ष ऐसे ही हालात कई राज्यों में उत्पन्न होते हैं लेकिन न सरकारी तंत्र कोई ऐसे पुख्ता इंतजाम करता है, जिससे मानसून के दौरान पैदा होने वाली इस प्रकार की परिस्थितियों की वजह से होने वाले नुकसान को न्यूनतम किया जा सके, न ही आमजन ऐसे हालातों से कोई सबक लेकर पर्यावरण संरक्षण में अपना योगदान देने की कोई पहल करता दिखता है। ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ पुस्तक के अनुसार अब दुनियाभर में बाढ़ के कारण होने वाली मौतों का पांचवां हिस्सा भारत में ही होता है और प्रतिवर्ष बाढ़ के चलते देश को करीब एक हजार करोड़ रुपये का नुकसान झेलना पड़ता है। प्रकृति में व्यापक मानवीय दखलंदाजी, अवैज्ञानिक विकास, बड़े पैमाने पर वनों की कटाई और कुव्यवस्थाओं के कारण ही अब बाढ़ और सूखे जैसी स्थितियां निर्मित होती हैं। जहां तक बाढ़ आने के प्रमुख कारणों का सवाल है तो प्रकृति में बढ़ते मानवीय हस्तक्षेप के चलते समुद्र तल लगातार ऊंचे उठ रहे हैं, जिससे नदियों के पानी की समुद्रों में समाने की गति कम हो गई है, जो प्रायः बाढ़ का सबसे बड़ा कारण बनता है। यह विड़म्बनाजनक स्थिति ही है कि 1950 में देश में जहां करीब ढ़ाई करोड़ हेक्टेयर भूमि बाढ़ के दायरे में आती थी, वहीं अब बाढ़ के दायरे में आने वाली भूमि बढ़कर सात करोड़ हेक्टेयर से भी ज्यादा हो गई है।
कई अध्ययनों में यह तथ्य सामने आ चुका है कि कहीं सूखा पड़ने तो कहीं मानसूनी बारिश की तीव्रता बढ़ते जाने का एक बड़ा कारण ग्लोबल वार्मिंग है और यदि पर्यावरण के साथ खिलवाड़ इसी रफ्तार से जारी रहा तो इस प्रकार की त्रासदियां आने वाले समय में और भी गंभीर रूप में सामने आएंगी। ऐसे में बेहद जरूरी है कि प्रकृति द्वारा बार-बार दी जा रही गंभीर चेतावनियों से सबक सीखें जाएं। बाढ़ या सूखे जैसी आपदाओं के लिए हर समय प्रकृति को ही कोसने के बजाय यह समझने का प्रयास किया जाए कि मानसून की जो बारिश हमारे लिए प्रकृति का वरदान होनी चाहिए, वो अब यदि साल दर साल एक बड़ी आपदा के रूप में तबाही बनकर सामने आती है तो उसके मूल कारण क्या हैं? किसी भी आपदा के लिए हम सदैव सारा दोष प्रकृति पर मढ़ देते हैं किन्तु वास्तव में प्रकृति के वास्तविक गुनाहगार हम स्वयं ही हैं। हम स्वयं से ही यह क्यों नहीं पूछते कि जिस प्रकृति को हम कदम-कदम पर दोष देते नहीं थकते, उसी प्रकृति के संरक्षण के लिए हमने क्या किया है? न हम वृक्षों को बचाने और चारों ओर हरियाली के लाने के लिए वृक्षारोपण में कोई दिलचस्पी दिखाते हैं और न ही अपने जल स्रोतों को स्वच्छ बनाए रखने के लिए कोई कदम उठाते हैं।
चिंताजनक स्थिति यह है कि देश के पर्वतीय क्षेत्र भी अब प्रकृति का प्रकोप झेलने को अभिशप्त होने लगे हैं। हालांकि प्रकृति ने तो पहाड़ों की संरचना ऐसी की है कि तीखे ढ़लानों के कारण वर्षा का पानी आसानी से निकल जाता था किन्तु पहाड़ों पर भी अनियोजित विकास और बढ़ते अतिक्रमण के कारण बड़े पैमाने हो रहे वनों के विनाश ने यहां भी प्रकृति को कुपित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बहरहाल, यदि हम चाहते हैं कि देश में आने वाले वर्षों में मानसून के दौरान तबाही की ऐसी तस्वीरें सामने न आएं तो हमें कुपित प्रकृति को शांत करने के कारगर उपाय करने होंगे और इसके लिए जंगल, पहाड़, वृक्ष, नदी, झीलें इत्यादि प्रकृति के विभिन्न रूपों की महत्ता समझनी होगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, पर्यावरण मामलों के जानकार तथा हिन्दी अकादमी दिल्ली के सौजन्य से प्रकाशित पुस्तक ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ के लेखक हैं)