सीता राम शर्मा ” चेतन “
विकास जब भय और हर संभावित त्रासदी से मुक्त कर जीवन और जगत की सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए हर्षोल्लास से भर दे, तो समझो कि वह वास्तविक विकास है । अति प्राचीन काल, जब मानवीय सभ्यता, संस्कृति और मनुष्य के जीविकोपार्जन तथा जीवन जीने के जरुरी संसाधनों का विकास नहीं हुआ था, तब से अब तक की संपूर्ण विकास यात्रा का यदि हम मुल्यांकन करें तो बहुत हद तक संतुष्ट हुआ जा सकता है पर विकास के इस पूरे कालखंड में मनुष्य जाति से जो सबसे बड़ी भूल हुई वह अपने मनुष्यता के आचरण और ईश्वर प्रदत्त प्राकृतिक संसाधनों को नुकसान पहुंचाने, उसकी अनदेखी करने, उसके प्रति जरूरत से ज्यादा लापरवाह होने की है । जिसके परिणाम आज हमारे सामने हैं । जो मनुष्य जाति के लिए उसके वर्तमान और भविष्य का सबसे बड़ा संकट है । ऐसा संकट जो उसके सारे विकास को धता बताते हुए उस सारे विकास के साथ उसके अस्तित्व को ही समाप्त कर सकता है । यदि समय रहते उस पर नहीं सोचा गया और की गई तथा निरंतर की जा रही बड़ी भूलों और लापरवाहियों को नहीं सुधारा गया तो यह हमारी पूरी मनुष्य जाति और दुनिया के लिए बेहद खतरनाक और विनाशकारी सिद्ध होगा । यह आश्चर्य की बात है कि वर्तमान समय में विकास के नाम पर होते नित्य नये अविष्कारों के बाद मानवीय दुनिया के विकास की गति जितनी तेजी से आगे बढ़ रही है वैसे-वैसे उसमें भय और उसके संपूर्ण विनाश की संभावनाएं भी उतनी ही तेजी से आगे बढ़ रही है ! मनुष्य जाति में बढ़ती आपसी कटुता और हिंसा यह सिद्ध करती है कि इसका हो रहा यह विकास त्रुटिपूर्ण और सुधार के योग्य है ।
इस त्रुटिपूर्ण और सुधार योग्य विकास पर बात करने से पहले जरूरी है कि हम पिछले दो सौ वर्ष में हुए उस मूलभूत विकास पर एक सरसरी दृष्टि डालते हुए उसका एक निष्पक्ष मूल्यांकन करें और उसकी सार्थकता, उपयोगिता के साथ उसकी बुराई और नुकसान को समझें । पिछली दो सदी में ज्ञान और विज्ञान के विकास से मानवीय जगत ने अपने आहार-विहार, रहन-सहन, उपयोग-उपभोग के साथ अपने स्वास्थ्य सुरक्षा और लाभ के लिए अनगिनत नये अविष्कार किए हैं । व्यवस्थाएं बनाई है । उसने धरती से अंतरिक्ष तक के कई रहस्य जाने हैं और उनमें अपना उचित-अनुचित हस्तक्षेप भी दर्ज किया है । दुर्भाग्य से विकास की इस पूरी प्रक्रिया में उसने अपने मानवीय स्वभाव, आचरण और उससे जुड़ी प्राकृतिक व्यवस्था का ध्यान नहीं रखा और ना ही अपने अविष्कारों को पूरी तरह सकारात्मक, मानवीय दृष्टिकोण और अपने जीव जगत की शांतिपूर्ण, सुरक्षित जीवन व्यवस्था के अनुरूप रखा । जिसके दुष्परिणाम पर्यावरण संकट, बढ़ती नई बीमारियों, बेतहाशा बढ़ती सामाजिक, राष्ट्रीय, अतंरराष्ट्रीय घृणा और हिंसा, परोक्ष-अपरोक्ष आतंकवाद और युद्ध, परमाणु युद्ध के संकट के रूप में हमारे सामने है ।
अब सवाल यह है की दुनियाभर में तेजी से बढ़ती इस वैमनस्यता, हथियारों की होड़, आत्मघाती प्रतिस्पर्धा, हिंसा, आतंकी घटनाएं और युद्ध की विभीषिका से बचने बचाने का रास्ता क्या है ? क्यों ज्ञान और विज्ञान के तीव्र विकास के बावजूद मानवीय दुनिया संकटमुक्त होने की बजाय नित्य निरंतर बीते हुए कल से ज्यादा संकटग्रस्त होती जा रही है ? क्यों विज्ञान और अनुसंधान के तीव्र विकास के बावजूद बीमारियों की सूची में निरंतर बेतहाशा वृद्धि हो रही है ? क्यों लिखने कहने और सुनने को विकसित होती मानवीय दुनिया का प्राकृतिक संकट बढ़ता जा रहा है ? प्रकृति ने हमारे जीव जगत को विरासत में शुद्ध हवा, पानी, जंगल, पहाड़ और पर्यावरण की जो अथाह अनमोल संपदा सौंपी थी, उन सबको हमने प्रदुषित और क्षतिग्रस्त कर दिया है ? हमें सोचना होगा कि क्या जिस विकास की बात आज हम निरंतर बड़े गर्व से कर रहे हैं, वास्तविकता की धरातल पर यथार्थ में इन महत्वपूर्ण ज्वलंत सवालों और पैदा कर दी गई विषम परिस्थितियों में उसे सही विकास कहा जा सकता है ? यदि सुधार योग्य संभावनाओं के साथ भी इस विकास की बात की जाए, तो भी क्या इस विकास का मापदंड प्रतिशत के आधार पर सही ठहराया जा सकता है ? बिना किसी कुतर्क की पराकाष्ठा और अनपेक्षित बचाव के कहा समझा जाए तो भी इसका स्पष्ट और सही जवाब नहीं ही है । सच्चाई यही है कि इस कथित और भ्रमित विकास को विकास नहीं विनाश कहना ही ज्यादा उपयुक्त होगा । जिसे हमारी मानवीय दुनिया ने फिलहाल अकाट्य बना दिया है । जाति-धर्म, रंग-रूप, मेरा-तेरा, अमीर-गरीब, विकसित-अविकसित, सबल-निर्बल जैसे भेदभावों, स्वार्थों और शोषण-दोहन की हमारी प्रवृत्ति और कार्यशैली ने हमारी मनुष्यता और मानवीय दुनिया को घोर संकट में डाल दिया है । वर्तमान समय में मानवता के प्रहरी बने पापी लोग और राष्ट्र पापी नैतिकता की आड़ में कमजोर का शोषण-दोहन कर रहे हैं । कोई समुदाय और देश अपने विस्तार के लिए संपूर्ण मनुष्य जाति को संकट, आतंकवाद और हिंसा में झोंके जा रहा है तो कोई देश महाशक्ति के दंभ में भरा या महाशक्ति बने रहने के लिए छल, कपट, प्रपंच और युद्धोनमाद की स्थिति को बनाए रखना चाहता है ! कोई देश प्रतिस्पर्धा और आपसी वैमनस्यता की बदनीयति और बदहाली से इतना ग्रस्त है कि वह मनुष्यता की सारी सीमाएं तोड़कर मनुष्यता की भारी तबाही के बावजूद भी आतंकवादियों को संरक्षण देने, बचाने का काम सीना तानकर यूं कर रहा है जैसे केवल उसके मानने कहने से सैकड़ों-हजारों निर्दोष लोगों का हत्यारा आतंकवादी ना होकर कोई निर्दोष और महान पुरुष बन जाता हो ! कोई देश तो इस हद तक पथभ्रष्ट हो चुका है कि उसका एकमात्र उद्देश्य और काम आतंकवाद फैलाना ही होकर रह गया है ! आश्चर्य की बात है कि अराजकता और आतंकवाद का यह कुकृत्य उस दौर और दुनिया में बिना किसी शर्म, रोकथाम के हो रहा है, जब दुनिया खुद को पहले से ज्यादा शिक्षित, नैतिक और विकसित कह रही है ! जब दुनिया को व्यवस्थित सलीके से चलाने वाले कई शक्तिशाली संगठनों के साथ एक महत्वपूर्ण वैश्विक संगठन भी मौजूद है ! तब दुनियाभर की इस पूरी व्यथा, सत्य कथा के बाद जरूरी तथा अंतिम बात और सवाल सिर्फ और सिर्फ यही, कि अनवरत जारी इस घोर अव्यवस्था, दुर्दशा से मुक्ति का उपाय क्या है ? समस्या बेहद जटिल है तो समाधान क्या ? जवाब स्पष्ट है – सुधार । जिसे करने के योग्य देश ही इस समस्या के बड़े और मूल कारण हैं । अत: छोटे देशों को ही संगठित प्रयास करने की जरूरत है । कुछ शक्तिशाली देश शुद्ध चित्त, चरित्र और ध्येय से यदि इसका नेतृत्व करें तो बेहतर होगा । यूं ज्यादा बेहतर तो यह होता कि समय रहते बिना किसी भेदभाव के स्वस्थ समृद्ध लोकतंत्र की तर्ज पर दुनियाभर के सारे देश मिलकर कर संगठित रुप और निर्णय से यह काम कर पाते ।