डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लगभग हजार साल पहले राजा भर्तृहरि ने राजनीति के बारे में जो श्लोक लिखा था, नेपाल की राजनीति ने उसकी सच्चाई उजागर कर दी है। उस श्लोक में कहा गया था- ‘वारांगनेव नृपनीति्रनेकरूपा:’ अर्थात राजनीति वेश्याओं की तरह अनेकरूपा होती है याने वह मौके-मौके पर अपना रूप बदल लेती है। नेपाल में कल तक पुष्पकमल दहल ‘प्रचंड’ और शेरबहादुर देउबा मिलकर सरकार बना रहे थे लेकिन अब प्रचंड और के.पी.ओली आपस में अचानक मिल गए हैं और वे अब अपनी सरकार बना रहे हैं। ये तीनों बड़े नेता तीन पार्टियों के संचालक हैं। पहली नेपाली कांग्रेस है और शेष दो कम्युनिस्ट पार्टियाॅं हैं। ये तीन पार्टियाँ एक-दूसरे की भयंकर विरोधी रही हैं। इनके कार्यकर्ताओं ने एक-दूसरे की हत्याएं भी की हैं और इन्होंने एक-दूसरे से मिलकर सरकारें भी बनाई हैं और अनबन होने पर बीच में ही वे सरकारें गिरती भी रही हैं। याने कुर्सी ही ब्रह्म है, सिद्धांत और नीति मिथ्या हैं। अब प्रचंड प्रधानमंत्री बने रहेंगे, पहले ढाई साल तक और शेष ढाई साल के.पी. ओली बनेंगे। यदि प्रचंड को देउबा अपने से पहले प्रधानमंत्री बनने देते तो वे दुबारा प्रधानमंत्री बन सकते थे लेकिन पिछले चुनाव में उनकी नेपाली कांग्रेस को 89 सीटें मिलीं और प्रचंड की पार्टी को सिर्फ 32 सीटें। नेपाली कांग्रेस प्रचंड की पार्टी को संसद का सिर्फ अध्यक्ष पद देना चाहती थी लेकिन राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के पद खुद के पास रखना चाहती थी। इसीलिए प्रचंड ने आनन-फानन अपने प्रतिद्वंदी काॅमरेड ओली को पटाया और उनकी पार्टी के 78 सदस्यों तथा अन्य पार्टियों के सदस्यों को जोड़कर 168 सदस्यों का गठबंधन खड़ा कर लिया। 275 सदस्यों की संसद में इस गठबंधन का स्पष्ट बहुमत हो गया। लेकिन अब सवाल यही है कि यह सरकार चलेगी कब तक? नेपाल में सरकारों का कार्यकाल इधर जितना छोटा होता गया है, शायद उतना किसी भी देश में नहीं रहा है। यह सरकार भी कैसे चलेगी? प्रधानमंत्री प्रचंड के 32 सदस्य हैं और ओली के 78 सदस्य! ओली जब चाहेंगे, प्रचंड की कुर्सी खींच लेंगे या उन्हें अपने चिमटे से दबाए रखेंगे। कोई आश्चर्य नहीं कि कुछ माह में ही हम काठमांडो में नए गठबंधन को उभरते हुए देख लें। जो भी हो, प्रचंड और ओली के गठबंधन से यदि सबसे ज्यादा खुशी किसी को होगी तो वह चीन को होगी। दोनों ही चीन के समर्थक हैं। ओली ने तो तीन भारतीय क्षेत्रों को अपने नए नक्शों में नेपाली बता दिया था। यह सीमा-विवाद तो तूल पकड़ ही सकता है, 1950 की भारत-नेपाल संधि भी एक विवादग्रस्त मुद्दा है। दोनों नेता जब एक दशक तक सत्ता-विरोधी हिंसक संघर्ष में जुटे हुए थे, तब उन्होंने भारत पर भी जमकर वार किए थे। अब दोनों एक होकर, देखिए क्या करते हैं? लेकिन भारत को अपने राष्ट्रहितों की रक्षा के लिए अभी विशेष सतर्क रहना होगा।