रावेल पुष्प
सिखों के प्रथम गुरु नानक देव जी ने अपने जीवन- काल में कई यात्राएं कीं और लोगों को कई भ्रमों, कुरीतियों से दूर किया तथा एक ओंकार यानी एक ईश्वर को जानने और मानने की दिशा में प्रवृत किया ।वे इन यात्राओं के दौरान कई आम लोगों के साथ तो मिले ही,कई सिद्ध पुरुषों, साधु सन्यासियों के साथ वचन- विलास भी किए। उनकी इन यात्राओं को चार भागों में बांटा गया है, जिन्हें उदासी कहा गया। इनमें पहली उदासी 1497 से 1508 तक पूरब की, दूसरी उदासी 1510 से 1515 तक दक्षिण की, तीसरी उदासी 1516 से 1518 तक उत्तर की तथा 1518 से 1522 तक पश्चिम की मानी जाती है।
उनकी पूरब की उदासी में बिहार,बंगाल,उत्तर प्रदेश तथा आसाम की यात्रायें शामिल हैं। इन यात्राओं के दौरान उनके कई शिष्य बने जो भले ही दसवें गुरु गोविंद सिंह द्वारा खालसा पंथ में न भी आए हों, वे अभी भी हैं और नानक पंथी कहलाते हैं। इसके बाद परवर्ती गुरुओं ने भी इस इलाके की संगत से अपना संपर्क बनाए रखा। लेकिन जो महत्वपूर्ण संबंध गहरे हुए वे सिखों के नौवें गुरु तेग बहादुर द्वारा इन अंचलों की यात्राएं करने से । उन्होंने न सिर्फ यात्राएं कीं बल्कि असम और बंगाल की यात्रा के पूर्व अपनी गर्भवती पत्नी माता गुजरी तथा साले कृपाल चंद को पटना के जमींदार सालस राय जौहरी की मुख्य हवेली में छोड़ा ,जो पहले से ही गुरु घर का भक्त था। वहीं उन्हें पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई,जो फिर दसवें गुरु गोविंद सिंह कहलाये, जिन्होने खालसा पंथ की स्थापना की। इसके अलावा भी गुरु तेग बहादुर बिहार के कई स्थानों पर गये ,जहां उनके शिष्य बने।
अभी भी बहुत सी जगहों के बारे में अधिक जानकारी लोगों को नहीं है।
उन ज्ञात,अज्ञात तथा अल्प ज्ञात ऐसे स्थानों तथा वहां के सिखों के बारे में जानकारी प्राप्त करने की ललक कोलकाता के एक युवा सिख व्यवसायी को पैदा हुई और उसने लगातार वर्षों तक वहां की यात्राएं कीं। वहां पता चला कि वे लोग अभी भी बाकायदा सिख धर्म के अनुसार आचरण करते हैं और कई तो पांच ककारों के साथ अपना जीवन यापन भी कर रहे हैं तथा कई स्थानों पर गुरु ग्रंथ साहिब की पुरानी हस्तलिखित पोथियां तथा गुरुओं द्वारा जारी हुक्मनामे भी मौजूद है। उनकी इन खोजपूर्ण यात्राओं और फिर उन स्थानों पर रहने वाले बुजुर्गों से संबंधित जानकारी प्राप्त कर उन्हें सिख इतिहास की पुस्तकों तथा विद्वानों से विचार-विमर्श कर एक निष्कर्ष पर पहुंचना और फिर उन्हें लिपिबद्ध करना।उन आलेखों को पत्र पत्रिकाओं तथा शोध पत्रिकाओं में भी स्थान मिला। उनकी सिख इतिहास के गुमनाम पहलुओं की खोज तथा समर्पण के कारण शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी अमृतसर ने उन्हें पूर्वी भारत सिख मिशन का सचिव नियुक्त किया और वे कोलकाता की पंजाबी साहित्य सभा के भी सचिव हैं। उनकी हाल ही में पूर्वी भारत में सिख जड़ों की खोज करती उनके खोजपूर्ण आलेखों के साथ अंग्रेजी में लिखी पुस्तक प्रकाशित हुई है, जिसका नाम है- Exploring the Sikh roots in Eastern India और जिनकी चर्चा में ये सतरें लिखी जा रही हैं उस सज्जन का नाम है- सरदार जगमोहन सिंह गिल!
इस पुस्तक को बंगाल के पहले गैर सरकारी विश्वविद्यालय जे आई एस यूनिवर्सिटी की सद्य स्थापित गुरु नानक देव चेयर द्वारा तथा अमृतसर की प्रतिष्ठित मुद्रक/ प्रकाशक संस्था सिंह ब्रदर्स द्वारा संयुक्त रूप से प्रकाशित किया गया है ।इस पुस्तक के अनुसार शताब्दियों से बिहार, झारखंड तथा वाराणसी के आसपास अग्रहरि सिखों का निवास स्थान रहा है । उन्हीं अग्रहरि सिखों का एक गुरुद्वारा कोलकाता के कॉटन स्ट्रीट में भी है, जो छोटा सिख संगत के नाम से जाना जाता है और वे सभी पूरी तरह से सिख मर्यादा के साथ रहते हैं।वे कई तरह के व्यवसाय से जुड़े हुए हैं और अब तो नौकरी पेशे में भी हैं। आज की तारीख़ में न सिर्फ बंगाल, बिहार बल्कि देश के अधिकतर गुरुद्वारों के ग्रंथी(पुजारी),पाठी(गुरु ग्रंथ साहिब का पाठ करने वाले),रागी(गुरुद्वारों में भजन-कीर्तन करने वाले),लांगरी(लंगर की सेवा करने वाले),या फिर सेवादार बिहारी मूल के सिख ही हैं।
अब अगर हम बात आसाम की करें तो वहां लगभग 11 हजार सिखों की आबादी है और उसमें से करीब चार हजार आसामी सिख हैं। उन्होंने इस पुस्तक में उदासी डेरों का भी जिक्र किया है और वहीं हिंदी के सुपरिचित कवि उपाध्याय सिंह हरिऔध को नानकपंथी बताया है। गौरतलब है कि उदासी संप्रदाय बाबा श्रीचंद द्वारा स्थापित किया गया था,जो गुरु नानक देव जी के ही सुपुत्र थे। उसी उदासी सम्प्रदाय से ताल्लुक रखने वाले संन्यासी तोतापुरी जी थे,जिनसे दीक्षित होकर ही गदाधर चट्टोपाध्याय रामकृष्ण परमहंस बने थे।
जगमोहन सिंह गिल ने अपनी विभिन्न स्थानों की यात्राओं तथा लोगों से मिलकर ये महसूस किया है कि भले ही ऐसे लोग सिखों के मूल केन्द्रों से डेढ़-दो सौ साल से दूर रहे हों, लेकिन फिर भी उन्होंने सिख धर्म की मूल भावनाओं, सिद्धांतों को बचा कर रखा है। उन्होंने अपनी खोजपूर्ण पुस्तक के माध्यम से बड़े सिख संस्थानों से अपील भी की है कि जिन अल्पज्ञात इलाकों में ये भाई हैं,उनकी खोज-खबर ली जानी चाहिए तथा उनकी ओर सहयोग का हाथ बढ़ाने और उनकी दशा-दिशा बदलने में भी सार्थक भूमिका अदा करनी चाहिए। वे स्वयं उन अल्पज्ञात स्थानों पर सिख परिवारों के बच्चों के लिए गुरमीत कैंप भी लगाते हैं। उन्होंने इन इलाकों में सिखों और नानक पंथियों से बातचीत में ये पाया कि चोपड़ा,कपूर,सहगल, मेहरा, मल्होत्रा,बेदी, भल्ला जैसी टाईटल वाले मूल रूप से खत्री हैं।इसी तरह की अनेकों अनजानी और रोचक जानकारियों से ये पुस्तक भरी पड़ी है।
उन्होंने इस पुस्तक में कुछ महत्वपूर्ण चित्रों का भी समावेश किया है मसलन- सासाराम में चाचा फग्गूमल का गुरुद्वारा,टकसाल भवन,अररिया के गुरुद्वारे, लक्ष्मीपुर में सुरक्षित गुरुओं के हुक्म नामे तथा कुछ बुजुर्गों के चित्र वगैरह।
इस पुस्तक के प्रकाशन से सरदार जगमोहन सिंह गिल के नाम पर एक सिख इतिहासकार होने की शानदार मुहर तो लग ही गई है और ये पुस्तक भावी शोधकर्ताओं के लिए निस्संदेह एक मील का पत्थर साबित होगी। इसी तरह उनके व्यावहारिक शोध की और पुस्तकें तो आयेंगी ही,जो सिख इतिहास को समृद्ध करने में अपनी भूमिका सुनिश्चित करेंगी। हमारी असीम शुभकामनाएं …