हिंदी साहित्य की आँख में किरकिरी: स्वतंत्र स्त्रियाँ

A thorn in the eye of Hindi literature: Independent women

हिंदी साहित्य जगत को असल स्वतंत्र चेता प्रबुद्ध स्त्रियां अभी भी हजम नहीं होती। उन्हें वैसी ही स्त्री लेखिका चाहिए जैसा वह चाहते हैं। वह सॉफ्ट मुद्दों पर लिखे, परिवार, समाज, कुछ मनोविज्ञान, स्त्री-पुरुष संबंध। आधुनिकता का या आधुनिक स्त्री का पर्याय उनके लिए वह है कि बोल्ड लेखन कर सके, अश्लीलता को बोल्ड लेखन के नाम पर यह समाज स्त्री लेखिकाओं को खूब चढ़ाता है और उन्हें खूब बड़े-बड़े शब्दों से नवाज़ता है। यह सब वे स्त्री स्वतंत्रता के नाम पर करता है।
वे भ्रमित स्त्रियां भी घर परिवार का विरोध, संस्कृति का विरोध, विकृत यौनिकता के समर्थन को ही बोल्ड और आधुनिक मान उनके हाथ के कठपुतली बनी हुई इठलाती रहती हैं। अफ़सोस कि उन्हें पता ही नहीं होता कि वे कठपुतली हैं, उनसे जैसा चाहे वैसा लिखवाया जाता है और वह भी उन्हें आधुनिक, साहसी, बोल्ड, स्वतंत्र चेता, प्रबुद्ध शब्दों की चाशनी में लपेटकर। लिजलिजे साहित्य की रचना, विध्वंस, नकारात्मकता लिखना ही उन्हें बोल्ड और प्रबुद्ध कहलवाता है।

प्रियंका सौरभ

हिंदी साहित्य जगत को असल स्वतंत्र चेता प्रबुद्ध स्त्रियां अभी भी हजम नहीं होती। उन्हें वैसी ही स्त्री लेखिका चाहिए जैसा वह चाहते हैं। वह सॉफ्ट मुद्दों पर लिखे, परिवार, समाज, कुछ मनोविज्ञान, स्त्री-पुरुष संबंध। आधुनिकता का या आधुनिक स्त्री का पर्याय उनके लिए वह है कि बोल्ड लेखन कर सके, अश्लीलता को बोल्ड लेखन के नाम पर यह समाज स्त्री लेखिकाओं को खूब चढ़ाता है और उन्हें खूब बड़े-बड़े शब्दों से नवाज़ता है। यह सब वे स्त्री स्वतंत्रता के नाम पर करता है।

वे भ्रमित स्त्रियां भी घर परिवार का विरोध, संस्कृति का विरोध, विकृत यौनिकता के समर्थन को ही बोल्ड और आधुनिक मान उनके हाथ के कठपुतली बनी हुई इठलाती रहती हैं। अफ़सोस कि उन्हें पता ही नहीं होता कि वे कठपुतली हैं, उनसे जैसा चाहे वैसा लिखवाया जाता है और वह भी उन्हें आधुनिक, साहसी, बोल्ड, स्वतंत्र चेता, प्रबुद्ध शब्दों की चाशनी में लपेटकर। लिजलिजे साहित्य की रचना, विध्वंस, नकारात्मकता लिखना ही उन्हें बोल्ड और प्रबुद्ध कहलवाता है।

हिंदी साहित्य जगत के लिए आज भी स्वतंत्र चेतना वाली प्रबुद्ध स्त्रियाँ एक असहज कर देने वाला सच हैं। वे स्त्रियाँ जो अपनी स्वतंत्र बुद्धि की मालिक हैं, जो सोचती हैं, सवाल उठाती हैं, और झुकी हुई लेखिकाओं के पुराने सांचे में नहीं ढलतीं — वे साहित्यिक जमात को अब भी पचती नहीं हैं। आज भी उन्हें वैसी ही लेखिकाएँ चाहिए जो उनके निर्धारित खांचे में फिट बैठें: जो ‘सॉफ्ट’ मुद्दों पर लिखें — परिवार, समाज, थोड़ी सी मनोविज्ञान की बात, कुछ हल्के-फुल्के स्त्री-पुरुष संबंध।

जब हिंदी साहित्य के मंचों पर ‘आधुनिकता’ का जिक्र होता है, तो उसका भी एक निर्धारित ढांचा होता है। “आधुनिक” स्त्री लेखिका का मतलब उनके लिए वह है जो ‘बोल्ड’ हो — यानी अश्लीलता को ‘बोल्ड लेखन’ का नाम देकर परोसे। जिसे ‘यौनिक स्वतंत्रता’ के नाम पर उकसाया जाए — परिवार के विरोध, संस्कृति के उपहास और संबंधों की विकृति को ही आधुनिकता का पर्याय बताया जाए। और इस पूरी चालाकी को इतनी मिठास से लपेटा जाता है कि भ्रमित लेखिकाएँ स्वयं भी इस झूठ को सच मान बैठती हैं। वे गर्व से फूली नहीं समातीं कि वे कितनी ‘बोल्ड’, ‘स्वतंत्र’ और ‘आधुनिक’ बन गई हैं — जबकि वे महज़ उन साहित्यिक ठेकेदारों के हाथों की कठपुतली बन चुकी होती हैं, जो उन्हें अपनी सुविधा के अनुसार नचाते हैं। अफसोस, उन्हें कभी यह सवाल उठाने की फुर्सत नहीं होती — कि जिस स्वतंत्रता का पाठ उन्हें पढ़ाया जा रहा है, क्या वही पाठ उन पुरुष लेखकों ने अपनी घर की स्त्रियों को भी पढ़ाया है?

साहित्यिक समाज की मानसिकता यह है कि स्त्री लेखन सीमित रहे — कोमल भावनाओं, सौंदर्य, प्रेम, विरह, या सॉफ़्ट पोर्न के एक छुपे हुए दायरे में। यदि कोई स्त्री geopolitics, धर्म, दर्शन, अध्यात्म, अंतरराष्ट्रीय संबंधों, समाजशास्त्र, राजनीति, शिक्षा, अर्थशास्त्र या नीतियों पर गंभीरता से लिखने का साहस करती है, तो वह असहज कर देती है। उनके मन में यह असहनीय बात घर कर जाती है कि “यह क्षेत्र तो पुरुषों के हैं।” स्त्रियों को बस शब्दों का श्रृंगार करना चाहिए — गहरे सवाल नहीं उठाने चाहिए। विचारों की गहराई, विश्लेषण की धार और बौद्धिक निर्भीकता — ये सब अभी भी हिंदी साहित्यिक परिदृश्य में ‘पुरुषों का गढ़’ माने जाते हैं।

जो स्त्री न किसी पुरस्कार की आकांक्षा में झुकती है, न किसी मंच के लालच में अपने विचारों से समझौता करती है, न किसी प्रसिद्ध आलोचक की कृपा-दृष्टि की भूखी होती है, जो स्त्री अपने विचारों, मूल्यों और चरित्र के प्रति सजग और अडिग है — वह हिंदी साहित्य जगत के लिए अब भी एक खतरनाक उपस्थिति है। ऐसी स्त्री का अपने खुद के विवेक की स्वामिनी होना, उसका स्वतंत्र होना — उन्हें डराता है, चिढ़ाता है, असहज कर देता है। वे उसे ‘अहंकारी’, ‘असंवेदनशील’, ‘कट्टर’ और ‘अति-बुद्धिजीवी’ जैसे तमगों से नवाज़ने लगते हैं, ताकि उसे हाशिए पर धकेला जा सके। लेकिन उनका सारा उपहास, सारी आलोचना उस स्त्री के लिए एक तुच्छ शोर मात्र है, जो जानती है कि उसका युद्ध बाहर के नहीं, बल्कि भीतर के अंधकार के विरुद्ध है।

यह विरोधाभास देखिए — जिन्होंने स्त्रियों को यौनिकता के नाम पर ‘आधुनिकता’ का पाठ पढ़ाया, वही अपने घर की स्त्रियों के लिए अब भी वही ‘पवित्रता’, ‘मर्यादा’, और ‘परंपरा’ की कसौटी लगाते हैं। उनके लिए ‘बोल्डनेस’ केवल बाहर की दुनिया की स्त्रियों के लिए है। घर की औरतें अब भी पर्दे में रहनी चाहिए, चुप रहनी चाहिए, विनम्र रहनी चाहिए।

जो स्त्रियाँ अपनी स्वतंत्रता को अश्लीलता में, अपनी आधुनिकता को आत्मवंचना में, और अपनी साहसिकता को पितृसत्तात्मक छद्म समर्थन में बेच आती हैं — वह असल में किसी क्रांति का हिस्सा नहीं बनतीं, बल्कि उस पितृसत्तात्मक साहित्यिक व्यवस्था की नई चेरी बन जाती हैं।

कठोर सत्य यह है कि — “स्त्री की मुक्ति” भी आज एक ब्रांड बन चुकी है। जिसका सौदा होता है, मंचों पर प्रदर्शन होता है, पुरस्कारों में बाँटा जाता है।

वास्तव में स्वतंत्र चेतना वाली स्त्री का विद्रोह बहुत सधा हुआ और अदृश्य होता है। वह अश्लील भाषा में नहीं, नकारात्मकता में नहीं, अपमानजनक बोल्डनेस में नहीं — बल्कि विचार की गहराई में, मुद्दों के सटीक विश्लेषण में, और अपनी लेखनी की ईमानदारी में प्रकट होता है।

वह प्रेम पर लिखती है, तो उसमें करुणा की जटिलता को समझाती है। वह राजनीति पर लिखती है, तो सत्ता के मंथन में जनता की पीड़ा का चित्र खींचती है। वह धर्म पर लिखती है, तो अंधविश्वास और असहिष्णुता के जाल को तोड़ती है।

वह जानती है कि साहित्य का असली उद्देश्य सच्चाई का उद्घाटन है — न कि सत्ता, लालच और यौनिक बाज़ार के हाथों गिरवी बन जाना।

हिंदी साहित्य को अब यह स्वीकार करना होगा कि स्त्रियाँ केवल “सजावट” या “संवेदनशीलता” का प्रतीक नहीं हैं। वे अब सवाल भी पूछती हैं, विश्लेषण भी करती हैं, तोड़ती भी हैं और गढ़ती भी हैं। और सबसे महत्वपूर्ण — वे अब किसी के एजेंडे का मोहरा नहीं बनना चाहतीं।

वे अपनी सोच की, अपने कलम की, अपने भविष्य की स्वयं निर्माता बन चुकी हैं। यह बदलाव साहित्यिक समाज को जितनी जल्दी समझ आ जाए, उतना बेहतर होगा — वरना उनकी दुनिया में केवल कठपुतलियाँ नाचती रहेंगी, और स्वतंत्र चेतना वाली स्त्रियाँ इतिहास में अपने लिए नए रास्ते खुद बनाती रहेंगी।

“जब एक स्त्री अपनी आवाज़ उठाती है, तो वह केवल अपनी बात नहीं करती, वह पूरे समाज की चुप्पियों को चुनौती देती है।”