ललित गर्ग
उत्तर प्रदेश के हाथरस में मंगलवार को एक सत्संग के समापन के बाद मची भगदड़ में एक सौ इक्कीस लोगों के मरने एवं सैकड़ों लोगों के घायल होने की हृदयविदारक, दुःखद एवं दर्दनाक घटना ने पूरे देश को विचलित किया है। ऐसी घटनाएं न केवल प्रशासन की लापरवाही एवं गैर जिम्मेदारी को उजागर कर रही है बल्कि धर्म के नाम पर पनप रहे आडम्बर, अंधविश्वास एवं पाखण्ड को भी उजागर कर रही है। ऐसी त्रासदियां एवं दिल को दहलाने देने वाली घटनाओं से जुड़े पाखण्डी बाबाओं की कारगुजारियांे से हिन्दू धर्म भी बदनाम हो रहा है, जबकि सैकड़ों लोगों की जान लेने वाले बाबा को हिंदू धर्म से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। यह हादसा अनेक सवालों को खड़ा करता है, बड़ा सवाल है कि ऐसे बड़े आयोजन में सुरक्षा उपायों की अनदेखी क्यों होती है? सवाल उठता है कि इतना बड़ा आयोजन बिना पुख्ता इंतजाम के किसकी अनुमति से किया जा रहा था? क्या सुरक्षा मानकों का पालन किया गया? क्या इतने बड़े आयोजन की सुरक्षा का जिम्मा पुलिस-प्रशासन का नहीं होता? क्या आयोजन-स्थल पर निकास द्वार, पानी, हवा, वैकल्पित चिकित्सा एवं चिकित्सक, गर्मी से बचने के पुख्ता इंजताम जरूरी नहीं थे? जवाबदेही तय हो भगदड़ में गयी जानों की। जाहिर है मौतों के बढ़ते आंकड़ों के साथ ही घटना पर लीपापोती की कोशिश भी जमकर होगी, राजनीतिक दल एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराते हुए जमकर राजनीति भी करेंगे। यह तय है कि ऐसे बाबाओं की दुकान बिना राजनेताओं के वरदहस्त के चलनी संभव नहीं है।
हाथरस के सिकंदराराऊ के निकट फुलरई के एक खेत में कथित हरि बाबा के एक दिवसीय सत्संग के दौरान यह हादसा हुआ। इस बाबा से जुड़ी बातें विसंगतियों से भरी है। सफ़ेद कोट-पेंट, टाई पहनने वाला यह बाबा कोई पंडित नही है न साधु संत है, यह जूता पहनकर प्रवचन देता था। इस बाबा को कितने वेद पुराण का ज्ञान है? यह किस परंपरा से है? इसके गुरु कौन हैं? ऐसे अनेक प्रश्न है जो बाबा को शक एवं संदेह के घेरे में लेते हैं। इन्हें हिन्दू बाबा कैसे कहा जा सकता है? हिंदू धर्म में ऐसा कहां होता है? यह बाबा पहले पुलिस सेवा में थे और जिनका मैनपुरी में भव्य एवं महलनुमा आश्रम है। घटना के बाद बाबा फरार है। पुलिस उसकी तलाश में जुटी है। भारत में भोली-भाली जनता को ठगने एवं गुमराह करने वाले ऐसे पाखण्डी बाबाओं की बाढ़ आई हुई है। इस तरह की घटनाएं केवल जनहानि का कारण ही नहीं बनतीं, बल्कि देश एवं धर्म की बदनामी भी कराती हैं। इन घटनाओं पर पीड़ितों के प्रति संवेदना व्यक्त करने के बजाए राजनीति करना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है और निंदनीय भी।
हाथरस की घटना कितनी अधिक गंभीर एवं चिन्ताजनक हैं, इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री ने लोकसभा में अपने संबोधन के बीच इस हादसे की जानकारी दी एवं शोक-संवेदना व्यक्त की। दुनिया भर में इस घटना को लेकर दुःख जताया जा रहा है। यह तय है कि हाथरस में इतनी अधिक संख्या में लोगों के मारे जाने पर शोक संवेदनाओं का तांता लगेगा, लेकिन क्या ऐसे हादसों को नियंत्रित करने वाले ऐसे कोई उपाय भी सुनिश्चित कर सकेंगे, जिससे भविष्य में देश को शर्मिंदा करने वाली ऐसी घटना न हो सके? प्रश्न यह भी है कि आखिर धार्मिक आयोजनों में धर्म-कर्म का उपदेश देने वाले लोगों को संयम और अनुशासन की सीख क्यों नहीं दे पाते? कब तक ऐसे आयोजन धन कमाने के माध्यम बनते रहेंगे, जब जब धर्म का ऐसे पाखण्ड एवं पाखण्डियों से गठबंधन हुआ है, तब तक धर्म अपने विशुद्ध स्थान से खिसका है। यह प्रश्न इसलिए, क्योंकि कई बार ऐसे आयोजनों में भगदड़ का कारण लोगों का असंयमित व्यवहार भी बनता है। ऐसा लगता है कि अपने देश में धार्मिक-सामाजिक आयोजनों में कोई इसकी परवाह नहीं करता कि यदि भारी भीड़ के चलते अव्यवस्था फैल गई तो उसे कैसे संभाला जाएगा? क्या इसलिए कि प्रायः मारे जाने वाले लोग निर्धन एवं गरीब वर्ग के होते हैं?
एक डरावनी एवं संवेदनहीन हकीकत है कि हम ऐसे धर्म एवं धार्मिकता से जुड़े पिछले हादसों से कोई सबक नहीं सीखते। हाल के दिनों में भीड़भाड़ वाले धार्मिक आयोजनों में भगदड़ में लोगों के मरने के मामले लगातार बढ़े हैं। सवाल उठना स्वाभाविक है कि भीड़ के बीच होने वाले हादसों को कैसे रोका जाए। दो साल पहले माता वैष्णो देवी परिसर में भगदड़ में बारह श्रद्धालुओं की मौत हुई थी। अप्रैल 23 में बनारस की भगदड़ में 24 लोग मरे थे। खाटू श्याम में भी भीड़ में दब कर 4 लोगों की मौत हुई। इंदौर में पिछले साल रामनवमी के दिन बावड़ी की छत गिरने से पैंतीस लोग मर गये थे। इसी तरह 2016 में केरल के कोल्लम के एक मंदिर में आग लगने से 108 लोगों की मौत हुई और दौ से अधिक घायल हुए थे। पंजाब के अमृतसर में दशहरे के मौके पर रावण दहन देख रहे साठ लोगों के ट्रेन से कुचलकर मरने की घटना को नहीं भूले हैं। देश में भीड़ की भगदड़ से होने वाले 70 फीसदी हादसे धार्मिक आयोजनों के दौरान ही होते हैं। हाल में दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक स्थल से जुड़ा हादसा मुसलमानों के पवित्र स्थल मक्का में हुआ, जहां हज यात्रियों पर गर्मी का सितम इस कदर कहर बना कि 900 से ज्यादा मौतें हुई, जिनमें 90 भारतीय ने भी जाने गंवाई।
विडम्बना है कि इन बड़े-बड़े हादसों से न तो जनता कुछ सीख लेती और न ही प्रशासन। यह हैरानी की बात है कि किसी ने यह देखने-समझने की कोई कोशिश नहीं की कि भारी भीड़ को संभालने की पर्याप्त व्यवस्था है या नहीं? यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि इस आयोजन की अनुमति देने वाले अधिकारियों ने भी कागजी खानापूर्त्ति करके कर्तव्य की इतिश्री कर ली। यदि ऐसा नहीं होता तो किसी ने इस पर अवश्य ध्यान दिया होता कि आयोजन स्थल के पास का गड्ढा लोगों की जान जोखिम में डाल सकता है। जैसे-जैसे जीवन में धर्म का पाखण्ड फैलता जा रहा है, सुरक्षा उतनी ही कम हो रही है, जैसे-जैसे प्रशासनिक सर्तकता की बात सुनाई देती है, वैसे-वैसे प्रशासनिक कोताही के सबूत सामने आते हैं, ऐसे आयोजनों में मरने वालों की संख्या बढ़ रही है, लेकिन हर बड़ी दुर्घटना कुछ शोर-शराबें के बाद एक और नई दुर्घटना की बाट जोहने लगती है। सरकार और सरकारी विभाग जितनी तत्परता मुआवजा देने में और जांच समिति बनाने में दिखाते हैं, अगर सुरक्षा प्रबंधों में इतनी तत्परता दिखाएं तो ऐसे जघन्य हादसों की संख्या घट सकती है।
बहरहाल आने वाले दिनों में जांच के बाद किसी के सिर पर लापरवाही का ठीकरा फोड़ा जाएगा। मगर इन मौतों का कसूरवार कौन है? जिन लोगों ने अपनों को खोया है, उनकी कमी कैसे पूरी होगी? कहा जा रहा है कि यह एक निजी कार्यक्रम था, कानून व्यवस्था के लिये प्रशासन की ड्यूटी लगाई गई थी, लेकिन आयोजन स्थल पर भीतरी व्यवस्था आयोजकों के द्वारा की जानी थी। अब बड़े अधिकारियों का घटना स्थल पर जाने का सिलसिला शुरू हो चुका है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी घटनास्थल पर पहुंच चुके हैं। उनके तीन मंत्री पहले से वहां पहुंचे हुए है। इस एवं इससे जुड़ी कार्रवाइयों से संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि उत्तर प्रदेश सरकार ने घटना की जांच के आदेश दे दिए हैं और दोषी लोगों के खिलाफ कठोर कार्रवाई करने का आश्वासन दिया है, क्योंकि आमतौर पर यही देखने में आता है कि इस तरह के मामलों में कार्रवाई के नाम पर कुछ अधिक नहीं होता।
इसी कारण रह-रहकर ऐसी घटनाएं होती रहती हैं और उनमें बड़ी संख्या में श्रद्धालु अपनी जान गंवाते हैं। इसके बावजूद कोई सबक सीखने को तैयार नहीं दिखता है। धार्मिक आयोजनों में अव्यवस्था और अनदेखी के चलते लोगों की जान जाने के सिलसिले पर इसलिए विराम नहीं लग पा रहा है, क्योंकि दोषी लोगों के खिलाफ कभी ऐसी कार्रवाई नहीं की जाती, जो नजीर बन सके।