मोदी हराओ के अलावा अलायंस के पास अभी दूसरा एजेंडा नहीं

सुशील दीक्षित विचित्र

पटना वाया बेंगलूर विपक्षी गठबंधन की जो ट्रेन पहुंचीं उसमें से अभी तक सूत्रधार रहे नीतीश कुमार को उतार दिया गया और ड्राइविंग सीट पर कांग्रेस बैठ गयी। चलती हुयी ट्रेन में ग्यारह दल और चढ़ गए जिससे विपक्षी मोर्चे में छब्बीस का आकड़ा आ गया। पटना में नीतीश कुमार सूत्रधार थे तो बेंगलूर में उनकों किनारे कर सोनिया गांधी ने संचालन अपने हाथ में ले लिया। उन्हीं की अगुआई में इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायन्स नाम से नया मोर्चा बना लिया। इसके बनते ही उसके शार्ट फार्म को इण्डिया कहकर ऐसा शोर मचाया जाने लगा मानो मोर्चे ने 2024 का मोर्चा जीत लिया हो। बेंगलूर की बैठक में भी संविधान लोकतंत्र और देश बचाने जैसी बातों को रेखांकित करते हुए भाजपा को हराने का संकल्प लिया गया।

लोकतंत्र और संविधान बचाने की जरूरत बताकर जिन नेताओं ने संकल्प लिया उनमें वे ममता बनर्जी भी शामिल हैं जिनके राज्य में विरोधी दलों के कार्यकर्ताओं की हत्याकर पेड़ पर लटका दिया जाता है और उस पर पोस्टर लगा दिया जाता है कि इसकी हत्या गैर तृणमूल कांग्रेस पार्टी का सदस्य होने के कारण की गयी है। अभी स्थानीय निकाय चुनाव में जो अभूत पूर्व हिंसा हुयी उसमें लोकतंर को लूटा गया और इसमें बाधक बनने वालों की हत्या कर दी गयी या प्राणघातक हमले किये गए। जिस दिन ममता बनर्जी इंडिया के तहत लोकतंत्र और संविधान बचाने की शपथ उठा रही थीं उस दिन भी गैर तृणमूल कांग्रेस पार्टी के जीते हुए जो सदस्य जान बचाने के लिए असम भाग गए थे वे वापस नहीं लौटे थे। लोकतंत्र और संविधान की रक्षा का दम्भ भरने वाले ‘इंडिया’ के किसी भी घटक दल ने एक भी शब्द नहीं बोला। उसका विरोध करने के स्थान पर उन्हें भी लोकतंत्र का रक्षक मान लेना ‘इंडिया’ नाम के नए अलायंस की मानसिकता दर्शाता है।

‘इंडिया’ मोदी या भाजपा को हरा पायेगा यह तो अभी से कहना जल्दबाजी होगा। चुनाव में अभी कम से कम नौ माह हैं। इस अवधि में राजनीति के गलियारों में कुछ भी घटित हो सकता है। फिर भी भाजपा की मुसीबतों में थोड़ा इजाफा होने की संभावना से इंकार नहीं जा सकता। एक पार्टी एक सीट पर चुनाव लड़े जाने की जो रूपरेखा बनायी गयी है उससे भाजपा के सामने नई चुनौतियां खड़ी हो सकती हैं। जबाब में भाजपा ने राजग के वैनर तले 38 दलों को जोड़ा है। इंडिया और राजग के बीच फर्क यह है कि राजग में जहां 25 दल ऐसे शामिल हैं जिनका लोकसभा में एक भी सांसद नहीं वही इंडिया में कई मुख्यमंत्री और कई क्षेत्रीय क्षत्रप शामिल हैं। कांग्रेस के अलावा ममता बनर्जी , अरविंद केजरीवाल , नीतीश कुमार आदि तीन मुख्यमंत्री हैं। लालू यादव , उद्धव ठाकरे , शरद पवार अखिलेश यादव जैसे क्षत्रप हैं। इसके अलावा अपने-अपने क्षेत्र में प्रभावशाली कई छोटी पार्टियां भी इंडिया का हिस्सा हैं। अलबत्ता इनमें भी दस दल ऐसे हैं जिनका लोकसभा में कोई प्रतिनिधि नहीं है।

बेंगलुरु की बैठक के बाद कथित तौर पर एकता मजबूत हुयी है। एक दल, एक उम्मीदवार का फार्मूला चल निकला तो भाजपा की चिंता बढ़ जानी चाहिए, लेकिन लगता नहीं भाजपा इससे चिंतित या विचलित हो। दक्षिण में वह पैर जमाने में जरूर विफल रही। उसका एक मात्र दक्षिणी द्वार कहा जाने वाला कर्नाटक भी छिन गया तब भी वह वहां अपनी साख बनाने में जुटी है। इसके अलावा अन्य क्षेत्रों में उसकी पकड़ मजबूत्त मानी जा रही है। इन क्षेत्रों में कोई भी अलायंस उसे 2014 और 2019 में चुनौती नहीं दे सका है। यूपी में 2017 के विधान सभा चुनाव में ‘दो अच्छे लड़के और यूपी के लड़के’ के नारे के साथ कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का गठबंधन बना, 2019 के लोकसभा चुनाव में बुआ-बबुआ के नारे लगाकर सपा और बसपा का समझौता हुआ। दोनों में गठबंधनों की इतनी करारी हार हुयी थी कि चुनाव बाद बुआ बुआ नहीं रही और बबुआ बबुआ नहीं रहे। 2022 के विधानसभा चुनाव में जयंत चौधरी और अखिलेश का युवा जोश का नारा भी नइया पार नहीं लगा सका।

2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा देश भर में 436 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। भाजपा के कुल सांसदों में से 224 ऐसे सांसद थे जिन्हें अपने क्षेत्र में पचास या उससे अधिक वोट मिले। इनमें से 120 सीटें ऐसी थीं जिन पर भाजपा और कांग्रेस में सीधी टक्कर थी। कई प्रत्याशी ऐसे थे जो बहुत कम अंतर से हारे। बिहार में जरूर उसे कठिनाइयां हो सकती हैं क्यों कि इस बार नीतीश उनके साथ नहीं होंगे। वैसे चर्चा यह भी है कि नीतीश को साइड में कर दिया गया। वे नए फ्रंट के संयोजक नहीं बनाये गए। इससे नीतीश नाराज हैं। नीतीश इससे इंकार करते हैं ,लेकिन जब धुंआ है तो कहीं आग भी होगी। भाजपा अपनी संभावित हानि से बचने के लिए अभी से जुटी है,लेकिन जो हालात बन रहे हैं वह नीतीश के लिए भी कम खतरनाक नहीं माने जा रहे हैं।

महागठबंधन की बात करें तो उसके लिए भी रास्ता उतना आसान नहीं है जितना उसके संस्थापक मान रहे हैं। उनके पास अलायंस बनाकर नारा गढ़ने के अलावा ऐसा कुछ नहीं है जो जनता को आकर्षित करने में सक्षम है। बात अभी भी वहीं है पटना में जहाँ से चली थी। कोई ख़ास बदलाव अभी नहीं आया है। बदलाव आया है तो महागठबंधन दलों के अंदर। एनसीपी दो फाड़ हो चुकी है। बिहार में जदयू के अंदर पक रही खिचड़ी से नीतीश कुमार चिंतित हैं। आम आदमी पार्टी का शामिल होना पंजाब कांग्रेस को रास नहीं आ रहा है। वहां इसे लेकर स्थानीय इकाइयां भड़की हुई हैं। उद्धव ठाकरे भी उतना मजबूत नहीं रहे जितना वे महाआघाड़ी में शामिल होते समय थे। सबसे बड़ी बात यह कि इनमें से किसी भी नेता का अपने राज्य से बाहर कोई प्रभाव नहीं हैं। शरद पवार का यूपी-एमपी में महाराष्ट्र जैसा प्रभाव नहीं है। लालू यादव या नीतीश का भारत भर में क्या यूपी तक में कोई प्रभाव नहीं है। अखिलेश यादव भी यूपी के बाहर प्रभावहीन हैं और ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल के बाहर कुछ नहीं कर सकतीं।

26 दलों के अलायंस के बावजूद अभी नौ बड़े दल महागठबंधन में शामिल नहीं हुए। उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगमोहन रेड्डी के अलावा मायावती , चंद्रबाबू नायडू , कर्नाटक के देवगौड़ा , असुद्दीन ओवैसी आदि महागठबंधन से बाहर हैं। इनमे से मायावती , नवीन पटनायक और रेड्डी ने खुद शामिल होने में कोई रूचि नहीं दिखाई। नवीन पटनायक ने तो नीतीश कुमार को साफ़ मना कर दिया था। इन सभी नेताओं का अपने क्षेत्र में बहुत प्रभाव है। अपने-अपने राज्यों में इनके दल नए अलायंस के लिए मुश्किलें ही खड़ी करेंगे। फिर भी जो राजनीतिक भूमिका नेता बनाने में लगे हैं उससे 2024 का मुकाबला बहुत दिलचस्प होना तय है। अलायंस के कई नेताओं को अपने राजनीतिक अस्तित्व को खतरा लगने लगा है। लालू यादव , शरद पवार , ममता बनर्जी , अखिलेश यादव, राहुल गांधी समेत कई नेताओं पर भ्रष्टाचार के मुकदमें चल रहे हैं इनमें लालू , सोनिया गांधी और राहुल जमानत पर हैं। अलायंस के नेताओं का कहना तो यह है कि मोदी अलायंस से डर गए हैं,लेकिन डरे तो असल में अलायंस के नेता हैं इसलिए एकजुट रह कर अपना बचाव करना चाहते हैं।

अब यह देखना दिलचस्प होगा कि यदि मोर्चा खड़ा हो गया तो उसकी क्या-क्या प्राथमिकताएं होंगी? मोदी हटाओ के नारे के अलावा उनके पास क्या एजेंडा होगा? यह भी देखना होगा कि वे तुष्टीकरण वाली धर्मनिरपेक्षता की राह पर लौटते हैं जैसा कि संकेत भी मिल रहा है। अलबत्ता यह राह अब बंद हो चुकी है। धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता पुरानी रणनीति हो गयी। तब से देश की नदियों में न जाने कितना पानी बह गया। इसलिए अलायंस को कुछ नया करना होगा। नया करके ही वह भाजपा को टक्कर दे सकती है अन्यथा पुरानी नीति भाजपा के हाथ में फिर दोधारी तलवार थमा देगी।