ललित गर्ग
नया साल प्रारंभ हो गया है तो हर बार की तरह इस बार भी नई उम्मीदें, नया विश्वास एवं नया धरातल लाया है। बीत गया एक और साल। नये की स्वीकृति के साथ पुराने को अलविदा कह देने की सामान्य सोच रही है। यह समझ देखी गयी है कि नयेपन के जादुई आकर्षण के जागते ही हम पुरानेपन को उतार फेंकना चाहते हैं। हमने बीते वर्ष में श्रेष्ठताओं की उपलब्धि पर सात्विक गर्व करने की अनेक स्थितियों को रचा है लेकिन हम सबके लिए और देश के लिए भी आने वाले वर्ष कुछ महत्वपूर्ण करणीय कार्य है। निश्चित ही नया साल हमेशा की तरह कुछ सवाल भी लेकर आया है। ऐसे सवाल जिनका हल निकाले बिना शायद हम संतुष्ट न हो पाएं और नये भारत-सशक्त भारत का सपना आधा-अधूरा ही कहा जायेगा। ऐसे नए-पुराने सवाल हर नए साल में सामने आते रहे हैं। कुछ सवालों को हल करने में हम सफल रहे, लेकिन कुछ सवाल हमेशा की तरह अनुत्तरित ही रह गए। सच तो यह है कि नई जिन्दगी की शुरुआत ही नया वर्ष है। यह पुरुषार्थ का सन्देश है, अधूरे रहे कामों एवं संकल्पों को पूरा करने का। इन क्षण जड़ताओं को तोड़कर मुक्त होती है हमारे विकास की उजली संभावनाएं। यह अच्छाइयों एवं अधूरे रहे कार्यों को पूरा करने की ओर मुड़ने की प्रेरणा है। अर्धशून्य ढर्रे की जीवनशैली एवं विकास योजनाओं को बदलने का बुजुर्गी सुझाव है। समस्या जब बहुत चिन्तनीय बन जाती है तो उसे बड़ी गंभीरता से नया मोड़ एवं रफ्तार देने की जरूरत है। शिक्षा, चिकित्सा एवं पर्यावरण से जुड़ी समस्याएं से जुड़े ऐसे ही अफसोस के अहसास हमारे लिये गंभीर होने चाहिए।
आजादी के अमृत काल में भी शिक्षा, चिकित्सा एवं पर्यावरण से जुड़ी चिन्ताओं का गहन बना रहना हमारी विकास यात्रा पर एक सवालिया निशान है। शिक्षा जगत से जुड़ी एक खबर सामने आई है, वह यह कि बढ़ती महंगाई और बदलते नियमों से विदेशों में पढ़ाई मुश्किल हुई है। सब जानते हैं कि शिक्षा हर परिवार के लिए एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। हर मां-बाप अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाना चाहते हैं। कई बार अच्छी शिक्षा के लिए बच्चों को विदेश भी भेजना पड़ता है। सवाल यह है कि आबादी के हिसाब से दुनिया का पहले नंबर वाला देश क्या अपने यहां ही बच्चों को अच्छी शिक्षा मुहैया नहीं करा सकता? यह सवाल करोड़ों बच्चों की जिंदगी से जुड़ा हुआ है। सरकार के अनूठे एवं व्यापक प्रयत्नों के बावजूद शिक्षा और चिकित्सा के लगातार महंगे होने की चिन्ता से हर कोई परेशान है। शिक्षा और चिकित्सा को व्यवसाय बना देने एवं निजी हाथों में सौंप देने से ही दोनों महंगी हुई है, आम आदमी तक उसकी पहुंच जटिल होती गयी है। इस बात पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने चिन्ता जताते हुए कहा कि शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों ही हर व्यक्ति की मूलभूत जरूरत है पर दोनों ही महंगी और दुर्लभ हो रही हैं। इसकी वजह जनसंख्या के मुताबिक उपलब्धता की कमी और व्यावसायिकता है।’ नये भारत के निर्माण के साथ समय की इस दस्तक को सुनें। निश्चित ही यह भारत की समृद्धि एवं विश्व प्रतिष्ठा की दृष्टि से एक अनूठा उपक्रम हो सकता हैं, लेकिन प्रश्न भारतीय छात्रों का है, उनकी शिक्षा से जुड़ी समस्याओं का है। महंगी होती शिक्षा आम जनजीवन से दूर होती जा रही है, ऐसे में भारतीय छात्रों की सूध कौन लेगा?
शिक्षा पर लंबे-लंबे भाषण देने वाले राजनेता, शिक्षाविद, अधिकारी और मंत्री भी देश की इन स्थितियों से परिचित हैं। बसों में मूंगफली बेचते हुए, स्टेशनों पर भीख मांगते हुए, चौराहों पर भुट्टा भूजते हुए, फैक्ट्रियों में बिसलरी की बोतलों में पानी भरते हुए, सड़क के किनारे टाट पर सब्जी बेचते या चाट का ढेला लगाते हुए इन बच्चों को कौन नहीं देखता है। ऐसा इन्हें क्यों करना पड़ता है? यह जानने की कोशिश कितने लोग करते हैं? रिक्शा, ऑटोरिक्शा, बस चलाने वाले ड्राइवरों के पीछे की भी कहानी ऐसी ही होती है। नीति-नियंता लोग अपने निजी ड्राइवर, नौकर या कामवाली बाई की पारिवारिक स्थिति के बारे भी विचार कर लेते तो भी इस तरह की स्थितियों के बारे में बहुत कुछ आसानी से समझ लेते। कहीं-कहीं ये भी देखने को मिलता है कि जिन बच्चों की खिलौनों से खेलने की उम्र होती है वही बच्चे मेला, हाट-बाजार में खिलौना बेचते हुए मिलते हैं। किताबों से तो उनका दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं होता। फिर विकास के सुनहरे सपने उन्हें कैसे दिखाई दे सकता है? इन स्थितियों में कैसे नया भारत-सशक्त भारत आकार ले सकेगा?
आइआइटी, एनआइटी और आइआइएसईआर, आइआइएम, केन्द्रीय विश्वविद्यालय, जेएनयू, बीएचयू जैसे विश्वविद्यालयों में भले ही फीस कुछ कम है, लेकिन यहां तक पहुंचने की प्रक्रिया बहुत जटिल एवं प्रतिस्पर्धापूर्ण है। बच्चे संघर्ष करके वहाँ तक पहुँच जाते हैं और पढ़ाई आसानी से कर लेते हैं। किंतु अब वहां की भी फीस बढ़ाने की कवायद तेजी से होने लगी है। तमाम सरकारी प्रयासों एवं योजनाओं के शिक्षा महंगी होती जा रही है, तो देश का निम्न एवं मजदूर वर्ग यह सोचने को मजबूर है कि वह अपने बच्चों की पढ़ाई की व्यवस्था कैसे करे। निजी कॉलेजों में तो इतना अधिक पैसा लगता है कि मध्य वर्ग के भी कान खड़े हो जाते हैं, तो फिर निम्न वर्ग की बात ही क्या?
यहां बात सिर्फ शिक्षा तक ही सीमित नहीं रह जाती। शिक्षा के साथ एक और विषय है जिस पर ध्यान देने की जरूरत है। वह है, चिकित्सा। जिस तरह गुणवत्ता के मामले में भारत के विश्वविद्यालय पिछड़े हुए हैं, उसी तरह की छवि भारत के अस्पतालों की है। मतलब साफ है कि अच्छी पढ़ाई हो या बेहतर इलाज, जेब में पैसा हो तो पकड़ो विदेश की राह। गंभीर सवाल यह है कि जिसकी जेब में पैसा नहीं है, वह क्या करे? क्या उसे अच्छी पढ़ाई या बेहतर इलाज कराने का हक नहीं है? नए साल में हमें, हमारी सरकारों और इन क्षेत्रों से जुड़े विशेषज्ञों को इन्हीं सवालों के जवाब ढूंढने चाहिए। हमने जीवन के हर क्षेत्र में उपलब्धियां हासिल की हैं तो फिर शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र भला अछूते क्यों रहें? जब हम देश के लोगों को ही समुचित शिक्षा नहीं दे पा रहे हैं तो विदेशों के लिये दरवाजें खोलना एवं उन पर सरकार की बड़ी शक्ति का खर्च होना कैसे औचित्यपूर्ण हो सकता है? एक ऐसे देश में जहां वंचित समूह पहले से ही अपनी भावी पीढ़ी को शिक्षित बनाने के लिए कठिन परीक्षाओं के दौर से गुजर रहा हो, निजी स्कूलों व अस्पतालों की संवेदनहीनता एवं अर्थ लोलुपता सेे सामाजिक असंतोष एवं विद्रोह के स्वर उभरते रहे हैं।
शिक्षा एवं चिकित्सा की भांति पर्यावरण के प्रति उपेक्षा भी अनेक समस्याओं का कारण है। भारत में ग्लोबल तापमान के चलते होने वाला विस्थापन अनुमान से कहीं अधिक है। मौसम का मिजाज बदलने के साथ देश के अलग-अलग हिस्सों में प्राथमिक आपदाओं की तीव्रता आई हुई है। हिमाचल प्रदेश में बाढ़ हो या सिलक्यारा में सुरंग हादसा- भारत में पर्यावरण समस्या को नजरअंदाज करने के परिणाम है। भारत में जलवायु परिवर्तन पर इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फार एनवायरमेंट एंड डवलपमेंट की जारी की गई रिपोर्ट में कहा गया है कि बाढ़-सूखे के चलते फसलों की तबाही और चक्रवातों के कारण मछली पालन में गिरावट आ रही है। देश के भीतर भू-स्खलन से अनेक लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। भू-स्खलन उत्तराखंड एवं हिमाचल जैसे दो राज्यों तक सीमित नहीं बल्कि केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, सिक्किम और पश्चिम बंगाल की पहाड़ियों में भी भारी वर्षा, बाढ़ और भूस्खलन के चलते लोगों की जानें गई हैं, इन प्राकृतिक आपदाओं के शिकार गरीब ही अधिक होते हैं, गरीब लोग प्राथमिक विपदाओं का दंश नहीं झेल रहे और अपनी जमीनों से उखड़ रहे हैं। महानगर और घनी आबादी वाले शहर गंभीर प्रदूषण के शिकार हैं, जहां जीवन जटिल से जटिलतर होता जा रहा है।