संदीप ठाकुर
देश में जिस तरह की हिंदू मुस्लिम राजनीति चल रही है उसका शिकार हो गई 180 करोड़ की लागत से बनी मासूम और साफ सुथरी फिल्म ” लाल सिंह चड्ढा।” लेकिन फिल्म में ऐसा कुछ खास भी नहीं कि इसे हॉल में जा कर देखने के लिए कहा जाए। ओटी टी या मोबाइल पर भी देखें तो चलेगा। वैसे भी यह फिल्म अपने विषय के कारण मास के लिए नहीं बल्कि क्लास के लिए है। 159 मिनट्स यानी तकरीबन पौने तीन घंटे की फिल्म अपनी स्लो स्पीड के कारण दर्शकों को बांधे रखने का दम नहीं रखती। लोग उबेंगें जरूर। यह फिल्म 1994 में बनी हॉलीवुड फिल्म फॉरेस्ट गंप की ऑफिशियल री मेक है। फॉरेस्ट गंप ऑस्कर के लिए 13 कैटोगरी में नॉमिनेट हुई थी और 6 ऑस्कर अवॉर्ड जीते थे। आमिर खान की यह फिल्म कितने अवार्ड जीतेगी,यह तो फिलहाल नहीं कहा जा सकता लेकिन बॉक्स ऑफिस पर यह बुरी तरह फ्लॉप रही है। फिल्म की बात करें तो यह एंटरटेनमेंट कम इमोशनल ज्यादा है। फिल्म ट्रेन में सफर कर रहे आमिर खान के नरेशन से शुरू होती है। परिवार से लेकर प्यार तक और सेना से लेकर बिज़नेस तक में इमोशन का डोज इतना दिया गया है कि दर्शकों के लिए यह ओवरडोज हो गया है। एक डिफ्रेंट्ली एबल्ड इंसान इंडियन आर्मी में भर्ती हो युद्ध लड़ आए,ये बेहद अटपटा है। फॉरेस्ट गंप अमेरिकन आर्मी में इसलिए फिट हो पाया क्यूंकि वियतनाम युद्ध के लिए वहां लो आई क्यू वाले पुरषों की भर्ती आर्मी में हुई थी। लेकिन इंडियन आर्मी में ऐसी नौबत आज तक नहीं आई है। दूसरा, युद्ध स्थल से आमिर एक घायल पाकिस्तानी फौजी को उठा लाता है। वह इंडियन आर्मी के कैंप में रहता है लेकिन किसी को पता नहीं चलता। यह तो आर्मी की लापरवाही को दर्शाता है। क्या इंडियन आर्मी इतनी लापरवाह है ? इतना ही नहीं वह पाकिस्तानी इंडिया में ही रहता है, आमिर की उसके बिजनेस में मदद करता है और अपने देश वापस लौट जाता है। यह क्या दर्शाता है ? कहानी देशी नहीं विदेशी है इसलिए उस पर बात करना बेकार है। स्क्रिप्ट से अधिक एडिटिंग कसी हुई है। एक्टिंग सबने अच्छी की है लेकिन पूरी फिल्म में 80 प्रतिशत कैमरा आमिर के उपर ही रहा है। आमिर 60 के लपेटे में हैं। लेकिन किरदार निभाया है 18 से लेकर 50 तक के इंसान का। इस रोल में एक्टर की उम्र को डिजिटल तरीके से घटाने पर काम तो हुआ है लेकिन बहुत सफाई के साथ नहीं हो पाया है। नाच गाने दूर दूर तक नामो निशान नहीं है। चड्डा अपना अकेलापन दूर करने के लिए दौड़ता है तो पूरे देश का चक्कर लगा देता है। दर्शकों को लेह लद्दाख से लेकर केरल तक के दर्शन हो जाते हैं। बताया जाता है की दौड़ वाले इस सीन को शूट करने में दो महीने से अधिक का समय लगा था। अंग्रेजी फिल्म फॉरेस्ट गंप में कई एडल्ट सीन थे जो इस फिल्म की स्क्रिप्ट का हिस्सा नहीं हैं । लेकिन फिल्म देश की कुछ बड़ी राजनीतिक घटनाओं को जिस तरह से दिखाते हुए आगे बढ़ती है वह थोपा हुआ नहीं बल्कि स्क्रिप का ही हिस्सा लगता है। देश भर के सौ से अधिक लोकेशन पर सत्यजीत पांडे द्वारा किया गया कैमरा वर्क बेहतरीन है। फिल्म का उबाऊ पहलू है बेहद लंबा डिस्क्लेमर,इंटरवल के बाद फिल्म कि लंबाई और ओवर एक्सप्रेसिव आमिर। कुल मिला कर फिल्म ठीक ठाक है। लेकिन चैनल्स व न्यूजपेपर्स में छपी समीक्षा में साढ़े तीन से चार स्टार का दिया जाना समझ से परे है।