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आर. के. श्रीवास्तव
इस पुस्तक मे लेखक एक नवीन पृष्ठभूमि की खोज करता हुआ प्रतीत होता है, या यूं कहे कि वह आर्थिक मंदी व आर्थिक संकट के प्रचलित सिद्वातोें के क्षेत्र में एक नवीन व अधिक गहरी हल रेखा खींचना चाहता है आर्थिक मंदी व आर्थिक संकट आज भी विश्व देशो में एक खतरा बना हुआ है, यद्यपि इसके निदान हेतू जान मेनार्ड कींस ने लगभग 100 वर्षो पूर्व ही एक सिद्वांत हमें दिया था। कींस का यह आर्थिक सिद्वान्त, जोकि 1930 के आर्थिक संकट के कारणों की खोज से सम्बधित है। हमें बताता है कि आर्थिक संकटो का मूल कारण सकल मांग में कमी होना है और यह सिद्वांत अभी भी उपयोगी है। हालाकि वर्तमान में सरकारे इस सिद्वांत सें भली भाति अवगत है और वें समय समय पर ऐसें कदम उठती रहती है जिससंे कि सकल माॅग में गिरावट न आनें पायें, फिर भी आर्थिक मंदी व आर्थिक संकट का खतरा अक्सर अपना सिर उठाता रहता है।
इस पुस्तक मे लेखक आर्थिक मंदी व आर्थिक संकटों और आधुनिक युद्वांे व युद्व की तैयारियों पर होने वाले खर्चाें के मध्य एक सीधा सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है। लंेखक के अनुसार आधुनिक युद्व अब बहुत मंहगें व उच्चतम तकनीक युक्त हो गये है जब कि आज से 100 वर्ष पूर्व एंेसा नही था। जैसे-जैसे विज्ञान व तकनीकी का विकास व विस्तार होता गया, उसी के अनुरूप युद्व मशीनें व हथिहार भी विकसित होते गये। इसका सीधा परिणाम यह हुआ कि इन उच्च तकनीकी युद्व मशीनें व हथिहारों का उत्पादन क्रय व रखरखाव पर खर्च आसमान छूनें लगा। जहाॅ एक ओर इससें सरकारी खजानें व करदाता जनता पर आर्थिक बोझ बहुत अधिक बढता गया, वही दूसरी ओर इसनें मुद्रा स्फीती को भी बढाया, क्योकि यह अनउत्पादक खर्च की श्रेणी में आता है। इस प्रकार सें यह खर्च एक दुघारी तलवार साबित हुआ जो दोहरा धाव करता है एक तरफ युद्व खर्च आम जनता पर करों का बोंझ बढाता है, वही दूसरी ओर यह मुद्रा स्फीती को प्रोत्साहित करता है। जिसके कारण मूल्यों मे वृद्वि होती है और आम जनता की आम व क्रय शक्ति द्यटती है।
लेखक द्वारा प्रस्तुत विपरीत दिशा गुणक ;छमहंजपअम डनसजपचसपमतद्ध तथ्रर शून्य त्वरक र्;मतव ।बबमसमतंजवतद्ध की अवधारणा, भारतीय अर्थव्यवस्था के सन्दर्थ में एक अभिनव प्रस्तुतीकरण है और इसको और गहराई से जाॅचने परखने की आवश्यकता है। भारतीय अर्थव्यवस्था में असंगठित वर्गो निरंतर गिरती वास्तविक आय तथा लगभग स्थिर औधोगिक क्षेत्र, विशेष रूप सें विनिर्माणक्षेत्र, इस तत्थ को दर्शाता है कि लेखक की उक्त आवधारणा सही है।
अंन्तिम बात जो लधु नही है। यह है कि लेखक ने अपनी पुस्तक में एक स्वरूप व सम्पन्न भारतीय अर्थव्यवस्था हेतू तीन मानदंड निरूपति किये है जो कि निम्न प्रकार है।
- भारत में एक आदर्श जनसख्ंया को बनायंे रखना जो कि हमारे देश के प्राकृतिक संसाधनो के अनुरूप हो लेखक ने यह संख्या 50.55 करोड लोगों को निधार्रित की हैै।
- भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्वि को समावेशी होना।
- अनउत्पाद खर्चाे की न्यूनतम स्तर पर रखना (युद्व, युद्व-तैयारी का खर्च अनउत्पाद खर्चा की श्रेणी मे आता है) यह एक अभिनव विचार है जिसकी प्रशंासा की जानी चाहिए। यह पुस्तक अर्थशास्त्रियों, शिक्षाविदों व विद्यार्थियों का ध्यान केवल भारत में ही नही वरन विश्व में आकर्षित करेगी, ऐसा आकलन है।
(पुस्तक मूल रूप सें अग्रेंजी भाषा में लिखी गई है।)
पुस्तक-युद्ध अर्थशास्त्र
लेखक आरके श्रीवास्तव
प्रकाशित-शतरंग प्रकाशन
मूल्य 1421/-, $17