हिंदी-चीनी भाई-भाई” को चोट पहुंचाती चीन की हरकतें

शिशिर शुक्ला

विगत 9 दिसंबर को अरुणाचल प्रदेश के तवांग क्षेत्र के यांगत्से मोर्चे पर चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी एवं भारतीय सेना के जवानों के मध्य झड़प हुई। घटना के वायरल हुए वीडियो में भारतीय सैनिकों के द्वारा चीनियों को खदेड़ते हुए देखा जा सकता है। गौरतलब है कि चीन के द्वारा सीमा पर आए दिन इस प्रकार की हरकतों को अंजाम देना एक बेहद सामान्य बात हो गई है। भारत और चीन एशिया की दो उभरती हुई शक्तियां होने के साथ-साथ एक दूसरे के पड़ोसी राष्ट्र भी हैं। दो पड़ोसी राष्ट्रों के बीच सद्भावनापूर्ण संबंध दोनों की प्रगति एवं समृद्धि का आधार होते हैं। भारत के साथ 3488 किलोमीटर लंबी स्थलीय सीमा साझा करने वाले चीन के साथ भारत के संबंध बहुत पुराने समय से विद्यमान हैं। तीसरी शताब्दी में सम्राट अशोक के शासनकाल में बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार चीन में व्यापक रूप से हुआ। धार्मिक व राजनीतिक संबंधों के तहत अनेक चीनी यात्रियों जैसे फाहियान, ह्वेनसांग, इत्सिंग आदि ने समय-समय पर भारत की यात्रा की। चीन में आयुर्वेद भारत से ही पहुंचा एवं भारत के विभिन्न धार्मिक ग्रंथ चीनी भाषा में अनूदित हुए। किंतु यह परिदृश्य संभवत: अब केवल इतिहास के पन्नों में ही देखा जा सकता है।

भारत-चीन संबंधों का वर्तमान स्वरूप चीन की कुटिलता का शिकार हो चुका है। भारत सदियों से “वसुधैव कुटुंबकम” एवं भाईचारे के आदर्शों का अनुसरण करता आया है, वहीं चीन की नीयत सदैव मौका पाते ही पीठ पर छुरा घोंपने की रही है। जहां भारत के द्वारा आत्मीयतापूर्ण ढंग से “हिंदी-चीनी भाई-भाई” का नारा देते हुए चीन को “ब्रदर कंट्री” की संज्ञा दी गई, वहीं चीन के द्वारा बदले में सदैव एहसानफरामोशी एवं विश्वासघात का परिचय दिया गया। भारत के साथ चीन के आधुनिक संबंधों की शुरुआत 1947 में भारत को अंग्रेजों की दासता से मुक्ति मिलने के उपरांत हुई। वैश्विक मंच पर भारत के द्वारा सदैव चीन को खुला समर्थन दिया गया। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद एवं विश्व व्यापार संगठन में सदस्यता, जलवायु परिवर्तन सम्मेलन एवं अन्य बहुत से अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर भारत सदैव चीन के साथ खड़ा रहा। चीन व भारत के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा को लेकर लंबे समय से तनातनी का माहौल है। जहां भारत के द्वारा अक्साई चिन पर अपना दावा किया जाता रहा है, वहीं धूर्त चीन अरुणाचल प्रदेश पर अपना अधिकार जताते हुए यह प्रस्ताव रखता है कि यदि भारत अक्साई चिन पर चीन का अधिकार स्वीकार कर ले तो चीन अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा छोड़ देगा। 29 अप्रैल 1954 में तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई एवं भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के मध्य पंचशील समझौता हुआ, जिसके तहत परस्पर सम्मान, गैर आक्रामकता, गैर हस्तक्षेप, समानता एवं शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का संकल्प दोनों राष्ट्रों के द्वारा लिया गया। ऐसी आशा की गई कि इससे दोनों राष्ट्रों के बीच तनाव कम होगा किंतु चीन तत्काल ही अपनी स्वार्थसिद्धि में जुट गया। तिब्बत के आंतरिक विद्रोह को सैन्य बल से चीन के द्वारा दबा देने के फलस्वरूप 1959 में दलाई लामा को भारत के द्वारा दी गई शरण से चीन को घोर आपत्ति हुई एवं उसी समय से अपने हृदय में कटुता का विष धारण किए हुए चीन भारत को अपनी आंखों का शूल मानने लगा। 20 अक्टूबर 1962 को भारत के उत्तरी पूर्वी सीमांत क्षेत्र में लद्दाख की सीमा पर आक्रमण करके चीन ने कटुता का सारा जहर उगल दिया। एक माह चलने वाले इस युद्ध में भारत को पराजय हाथ लगी और चीन अपने मंसूबों में कामयाब हो गया। तब से आज तक भारत-चीन संबंध सामान्य नहीं हो पाए हैं। 1965 एवं 1971 के भारत-पाक युद्ध में भी चीन के द्वारा परोक्ष रूप से पाकिस्तान का समर्थन किया गया। 1967 में चुंबी घाटी में करारी शिकस्त के बाद दोनों देशों के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा पर आक्रमण न करने को लेकर समझौता हुआ किंतु चीन के द्वारा पुनः अपनी धूर्तता का परिचय 1975 में भारतीय सेना के गश्ती दल पर हमला करके दिया गया। समय-समय पर भारतीय राजनेताओं के द्वारा चीन की यात्रा एवं अनेक वार्ताएं की जाती रही किंतु भारत-चीन तनाव को समाप्त करने में ये सभी निष्फल साबित हुईं। 11 से 13 मई 1998 के मध्य जब भारत ने पांच परमाणु परीक्षण किए, तब चीन ने अमेरिका और अन्य देशों को सम्मिलित करके भारत को एनपीटी एवं सीटीबीटी पर हस्ताक्षर हेतु बाध्य किया। 15-16 जून 2020 को पूर्वी लद्दाख में गलवान घाटी में दोनों देशों के सैनिकों के बीच हिंसक झड़प हुई। चीन ने आरोपों को स्वीकार करना तो दूर, उल्टा भारत को ही इसके लिए जिम्मेदार ठहरा दिया। और तो और, 2017 में डोकलाम पर सीमा विवाद में चीन ने भारत पर ही अतिक्रमण का आरोप लगाया और धमकी देते हुए यह भी कहा कि भारत 1962 की हार को याद रखे। लद्दाख व अरुणाचल चीन के लिए सामरिक महत्व के क्षेत्र हैं, जिस कारण इन क्षेत्रों में चीन के द्वारा आए दिन घुसपैठ के प्रयास किए जाते रहे हैं।

कटु सत्य यह है कि भारत को विकास एवं प्रगति की ऊंचाइयों का स्पर्श करते हुए चीन कदापि देखना नहीं चाहता है। भारत की सामरिक एवं तकनीकी प्रगति तथा विभिन्न देशों के साथ उसके मजबूत होते हुए राजनीतिक, आर्थिक व सामरिक संबंधों ने चीन को ईर्ष्या व द्वेष की अग्नि में धकेल दिया है। फलस्वरूप, एक तो वह सीमा पर घुसपैठ जैसी गतिविधियों को अंजाम देकर भारत को दादागिरी दिखाने का प्रयास करता रहता है, साथ ही भारत के पड़ोसी देशों में अपना प्रभाव जमाकर भारत की घेराबंदी की साजिश भी करता रहता है। चीन ने अब आक्रामक विस्तारवादी नीति का सहारा लेना प्रारंभ कर दिया है। ऐसी स्थिति में ज्वलंत प्रश्न यह उठता है कि आखिर चीन के द्वारा भारत को परेशान करने की कोशिशों के प्रति क्या प्रतिक्रिया दी जाए? निस्संदेह वर्चस्ववादी नीति को अपनाने वाला चीन विश्व की एक महाशक्ति है। एक आंकड़े के अनुसार 2014-15 से 2021-22 तक भारत-चीन व्यापार में 3 गुना वृद्धि हुई है। चिंतनीय बात यह है कि जब एक तरफ हम चीनी माल के पूर्ण बहिष्कार की बात करते हैं तो फिर व्यापार में वृद्धि का आखिर क्या कारण है। कहीं न कहीं हमारे कहने और करने में बहुत बड़ा अंतर है। भारत, चीन के लिए एक बाजार है जबकि भारत के आयात का 14 प्रतिशत चीन से होता है। ऐसी स्थिति में भारत व चीन के मध्य हो रहे अरबों डालर के व्यापार पर अचानक प्रतिबंध लगाए जाने से चीन की अपेक्षा भारत पर अधिक प्रभाव पड़ेगा। किंतु हमें शनै: शनै: उन सभी क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर होना चाहिए जिनके लिए हम कहीं न कहीं चीन पर निर्भर हैं। इसके अतिरिक्त हमें अपनी सैन्य शक्ति को अधिक से अधिक मजबूती प्रदान करनी चाहिए, साथ ही सीमावर्ती क्षेत्रों में विकास की गति को तीव्रतम रूप देना चाहिए। हमें अपनी ऊर्जा नीति एवं ऊर्जा के क्षेत्र में क्षमता व आत्मनिर्भरता को बढ़ाना चाहिए। निश्चित ही इन सभी कदमों को सक्रिय रूप से उठाने पर, एक समय ऐसा अवश्य आएगा जब हम चीन को मुंहतोड़ जवाब देने में सक्षम होंगे।