
नृपेन्द्र अभिषेक नृप
किसी भी सभ्य और प्रगतिशील समाज की सबसे बड़ी पहचान उस समाज की सोच और उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होती है। यह स्वतंत्रता केवल बोलने का अधिकार नहीं है, बल्कि यह विचारों, भावनाओं, असहमति और आलोचना के माध्यम से लोकतंत्र को जीवंत बनाए रखने की वह प्राणवायु है, जिसके बिना कोई भी लोकतांत्रिक संरचना स्थिर नहीं रह सकती। परंतु जब यही स्वतंत्रता बिना उत्तरदायित्व के, सामाजिक मर्यादाओं और संवैधानिक सीमाओं को तोड़ती है, तो वह समाज के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने का माध्यम भी बन सकती है। आज के डिजिटल युग में, जब हर व्यक्ति एक “प्रकाशक” बन बैठा है और हर विचार कुछ ही क्षणों में लाखों लोगों तक पहुँच सकता है, तब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का विषय और अधिक संवेदनशील और प्रासंगिक हो गया है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के अंतर्गत प्रत्येक नागरिक को वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त है। यह स्वतंत्रता केवल सरकारी आलोचना या विचार रखने तक सीमित नहीं, बल्कि इसमें साहित्य, पत्रकारिता, कला, संस्कृति, सामाजिक एवं राजनीतिक विमर्श, यहाँ तक कि हास्य-व्यंग्य की भी समान मान्यता है। यह स्वतंत्रता लोकतंत्र की आत्मा है, क्योंकि मतभेद, असहमति और संवाद ही उस परिपक्वता को जन्म देते हैं, जिससे समाज प्रगति करता है। हालाँकि, यही स्वतंत्रता अनुच्छेद 19(2) के अंतर्गत कुछ युक्तिपूर्ण प्रतिबंधों के अधीन भी है, जैसे कि देश की संप्रभुता, सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता, नैतिकता, न्यायालय की अवमानना, मानहानि, या किसी धर्म की भावनाओं को ठेस पहुँचाना आदि। यानी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता निरंकुश नहीं है, उसमें संवैधानिक अनुशासन भी अपेक्षित है।
सोशल मीडिया और डिजिटल युग में अभिव्यक्ति का विस्तार और संकट
21वीं सदी की सबसे बड़ी क्रांति ‘डिजिटल अभिव्यक्ति’ है। आज सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स जैसे कि फेसबुक, ट्विटर (एक्स), इंस्टाग्राम, यूट्यूब आदि व्यक्ति को न केवल अपनी बात कहने का मंच प्रदान करते हैं, बल्कि वह लाखों लोगों को प्रभावित करने का साधन भी बन चुके हैं। परंतु अभिव्यक्ति के इस बेतहाशा विस्तार ने कई गंभीर संकट भी जन्म दिए हैं। सोशल मीडिया पर किसी भी विषय पर तुरंत, बिना किसी तथ्य की पुष्टि के टिप्पणी करना और फिर उसे धार्मिक, राजनीतिक या जातीय रंग दे देना एक सामान्य प्रक्रिया बन चुकी है। ऐसे में कई बार यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता न रहकर भड़काऊ, घृणास्पद, या आपत्तिजनक बन जाती है, जिससे सामाजिक सौहार्द और कानून-व्यवस्था खतरे में पड़ जाती है। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में ऐसे ही एक मामले में मध्य प्रदेश के एक कार्टूनिस्ट को राहत देते हुए महत्वपूर्ण टिप्पणी की कि ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कुछ भी कहना या पोस्ट करना उचित नहीं है।’
कोई भी अधिकार, चाहे वह कितना ही मौलिक क्यों न हो, अगर बिना ज़िम्मेदारी के इस्तेमाल किया जाए तो वह अराजकता में बदल सकता है। यही कारण है कि सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार दोहराया है कि ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीम नहीं हो सकती।’ हाल ही में एक मामले में अदालत ने कहा कि नागरिकों को यह समझना चाहिए कि इस स्वतंत्रता का क्या महत्व है और इसके साथ कितनी बड़ी जिम्मेदारी जुड़ी हुई है। सोशल मीडिया पर धार्मिक भावनाओं को आहत करने वाले पोस्ट, देवी-देवताओं के विरुद्ध आपत्तिजनक टिप्पणियाँ, राजनीतिक नेताओं की अशालीन आलोचना, या समाज के कमजोर वर्गों का उपहास- ये सब अभिव्यक्ति की आड़ में असंवेदनशीलता और उद्दंडता के उदाहरण बन चुके हैं। दुर्भाग्यवश, इस पर अंकुश लगाने के प्रयासों को अक्सर ‘लोकतंत्र विरोधी’ करार दे दिया जाता है। यह दोहरापन खतरनाक है, जहाँ एक तरफ हम कुछ विचारों पर पाबंदी का विरोध करते हैं, वहीं दूसरी ओर अपने प्रिय नेताओं या विचारों की आलोचना सह नहीं पाते।
तमिलनाडु सरकार में मंत्री उदयनिधि स्टालिन द्वारा सनातन धर्म पर की गई आपत्तिजनक टिप्पणी और उस पर प्रतिक्रिया स्वरूप मध्य प्रदेश में एक कार्टूनिस्ट द्वारा बनाया गया व्यंग्य-चित्र इस बहस का केंद्र बना। यह कार्टून प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को केंद्र में रखता था। सरकार ने इस पर आपत्ति जताई और कानूनी कार्रवाई की, परंतु सुप्रीम कोर्ट ने इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत मानते हुए राहत दी। यह मामला उस दोहरे मानदंड की ओर भी संकेत करता है, जहाँ एक ओर राजनीतिक नेता अत्यधिक आपत्तिजनक बयान दे सकते हैं, पर दूसरी ओर उनकी आलोचना करने पर कलाकारों, पत्रकारों, लेखकों को दंडित किया जाता है। यह न केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन है, बल्कि यह भय का माहौल बनाता है, जो किसी भी लोकतंत्र के लिए घातक है।
संतुलन की ज़रूरत: न्यायिक विवेक और नीति निर्माण
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सामाजिक शालीनता के बीच संतुलन बनाना आसान कार्य नहीं है। इसके लिए न्यायपालिका, सरकार, मीडिया और नागरिक समाज, सभी को मिलकर काम करना होगा। सुप्रीम कोर्ट पहले ही आईटी एक्ट की धारा 66-A को असंवैधानिक घोषित कर चुकी है, क्योंकि यह निराधार गिरफ्तारी का मार्ग प्रशस्त करती थी। लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कोर्ट को दिशा-निर्देशों की एक स्पष्ट रूपरेखा तैयार करनी होगी, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि कोई अभिव्यक्ति केवल इसलिए न रोकी जाए कि वह सत्ताधारी दल को असुविधाजनक लगती है। साथ ही, सरकारों को भी सोशल मीडिया कंपनियों को जवाबदेह बनाना होगा कि वे किस प्रकार की सामग्री की अनुमति देती हैं और कौन-सी सामग्री को हटाती हैं। अभिव्यक्ति के नाम पर नफ़रत, झूठ और भ्रामक जानकारी को बढ़ावा देना लोकतांत्रिक मूल्यों को खोखला करता है।
लोकतंत्र केवल स्वतंत्रता नहीं, बल्कि मर्यादा, सहिष्णुता और संवाद की संस्कृति भी है। कोई विचार अगर समाज में बहस को जन्म देता है, तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए; लेकिन यदि वही विचार नफरत, विघटन या हिंसा को प्रेरित करता है, तो उस पर रोक आवश्यक है। यह भी समझने की आवश्यकता है कि अभिव्यक्ति का ‘दायरा’ केवल कानूनी नहीं, बल्कि नैतिक और सांस्कृतिक भी है। एक साहित्यकार, पत्रकार, या कलाकार को यह आकलन करना चाहिए कि उसकी बात समाज को क्या संदेश दे रही है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तब ही सार्थक है जब वह विवेक, संवेदना और सामाजिक उत्तरदायित्व के साथ जुड़ी हो।
विचारधारा की अभिव्यक्ति और उसकी रक्षा :
जिस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कभी जनचेतना का वाहक माना जाता था, आज वह कई बार वैचारिक असहिष्णुता और उन्माद का कारण बनती दिख रही है। विशेषतः जब विचारधाराएँ परस्पर टकराती हैं, तब अभिव्यक्ति को शुद्ध संवाद की बजाय शक्ति-प्रदर्शन या प्रभुत्व का हथियार बना दिया जाता है। भारत जैसे विविधताओं से भरे देश में यह प्रवृत्ति अत्यंत घातक सिद्ध हो सकती है, जहाँ भाषा, धर्म, संस्कृति और आस्था की असंख्य धाराएँ सह-अस्तित्व में हैं। आज यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि किसी धार्मिक या राजनीतिक विचारधारा के विरोध को तुरंत ‘राष्ट्र-विरोध’, ‘धर्म-विरोध’ या ‘मानहानि’ कहकर रेखांकित किया जाता है। इससे न केवल बौद्धिक संवाद की संभावना क्षीण होती है, बल्कि एक भय का वातावरण भी बनता है। वह लेखक, पत्रकार, कलाकार या शिक्षक जो समाज की अंतरात्मा की सच्ची आवाज़ बन सकता था, अब आत्म-सेंसरशिप के दबाव में खामोश हो रहा है। और यह चुप्पी किसी भी लोकतंत्र की सबसे बड़ी विफलता मानी जाती है।
आज के समय में बोलना जितना आसान हो गया है, उतना ही खतरनाक भी। किसी भी सार्वजनिक मंच या सोशल मीडिया पर विचार रखने वाला व्यक्ति ट्रोलिंग, धमकी, मुकदमे और चरित्र-हनन का शिकार हो सकता है। चाहे वह महिला पत्रकार हो या कोई लेखक, कोई सामाजिक कार्यकर्ता हो या अल्पसंख्यक समुदाय का वक्ता- हर आवाज़ पर नज़र रखी जा रही है। परिणामस्वरूप, अनेक बुद्धिजीवी और चिंतक आत्म-संयम के नाम पर ख़ामोश हो चुके हैं। यह वही भारत है, जहाँ कबीर ने निर्भीक होकर पाखंडों की आलोचना की थी, जहाँ निराला ने “तोड़ दो इसको” कहकर रूढ़ियों को चुनौती दी थी, जहाँ गांधी ने ‘सत्याग्रह’ और ‘अहिंसक असहमति’ के माध्यम से साम्राज्य को झुका दिया था। पर आज जब किसी मंच पर युवा कवि, लेखक या चित्रकार अपनी संवेदना को शब्द देता है, तो पहले यह देखा जाता है कि वह किस विचारधारा से जुड़ा है, किस धर्म या जाति का है, और क्या वह ‘हमारे खांचे’ में फिट होता है या नहीं।
सोशल मीडिया ने जहाँ सामान्य नागरिकों को अपनी बात कहने का मंच दिया, वहीं इसके एक विकृत पक्ष ने “ट्रोल संस्कृति” को जन्म दिया है। यह संस्कृति किसी भी विचारशील, असहमत या नवाचारी सोच के विरुद्ध एक संगठित आक्रमण करती है। इसमें सत्य, सौंदर्य और सरोकार के स्थान पर अपशब्द, घृणा और व्यक्तिगत हमले प्रमुख होते हैं। ट्रोल संस्कृति न केवल असहमति को अस्वीकार्य बनाती है, बल्कि ‘भीड़ मानसिकता’ को बल देती है, जो किसी विचार को बिना समझे ही ‘वायरल आक्रोश’ में बदल देती है। ऐसी स्थिति में संवाद की संस्कृति लुप्त हो जाती है, और सामाजिक संवाद हिंसक चुप्पियों में तब्दील हो जाता है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा केवल नैतिक अपील से नहीं, बल्कि सशक्त और स्पष्ट कानूनी ढांचे से भी होनी चाहिए। आज भी भारत में अनेक ऐसे कानून सक्रिय हैं जो औपनिवेशिक मानसिकता से प्रेरित हैं, जैसे कि भारतीय दंड संहिता की धारा 124A (देशद्रोह), जिसकी व्याख्या अक्सर मनमानी और दमनकारी रूप में होती है। कई बार सामाजिक पोस्ट, राजनीतिक कटाक्ष या साहित्यिक टिप्पणी पर भी देशद्रोह का मुकदमा दर्ज कर लिया जाता है, जो न केवल स्वतंत्रता के खिलाफ है, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग भी है। सुप्रीम कोर्ट ने धारा 66A को अवैधानिक घोषित करके एक साहसी कदम उठाया था, लेकिन आवश्यकता है कि ऐसे और भी अस्पष्ट या दुरुपयोग योग्य प्रावधानों की समीक्षा की जाए। अभिव्यक्ति को लेकर पारदर्शी, समान और तर्कसंगत विधि व्यवस्था का निर्माण किया जाना समय की आवश्यकता है।
संस्कृति, धर्म और अभिव्यक्ति का टकराव
अभिव्यक्ति और धार्मिक-सांस्कृतिक भावनाओं के बीच का टकराव आज एक जटिल समस्या बन गया है। जब भी कोई लेखक, चित्रकार या कॉमिक क्रिएटर किसी परंपरा, कथा या देवी-देवता पर सवाल उठाता है, तो उसे सीधे “आस्था का अपमान” कहा जाता है। यह दृष्टिकोण आलोचना और अवमानना के बीच के महीन अंतर को मिटा देता है। वास्तव में, कोई भी जीवंत संस्कृति आलोचना से डरती नहीं, बल्कि उससे पुष्ट होती है। आस्था यदि वैज्ञानिक दृष्टिकोण और विमर्श से डरने लगे, तो वह अंधविश्वास का रूप ले लेती है। हाँ, अभिव्यक्ति को भी इस सीमा का भान होना चाहिए कि वह आलोचना के नाम पर घृणा या उपहास न फैलाए। इसी संतुलन को स्थापित करने में आज हमारी सामाजिक चेतना चूक रही है।
इस समूचे विमर्श में विश्वविद्यालयों, शैक्षणिक संस्थानों और छात्र समुदाय की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। विश्वविद्यालय विचारों की प्रयोगशाला होते हैं, जहाँ विमर्श, बहस और असहमति के बीच नवाचार और परिवर्तन जन्म लेते हैं। परंतु दुर्भाग्यवश, आज अनेक विश्वविद्यालय भी वैचारिक ध्रुवीकरण के शिकार हो गए हैं। युवा पीढ़ी को विचार की स्वतंत्रता मिल रही है, पर उसे यह नहीं सिखाया जा रहा कि ‘विचार का उत्तर विचार से ही दें’- हिंसा या बहिष्कार से नहीं। ऐसी स्थिति में पाठ्यक्रमों में अभिव्यक्ति, मानवाधिकार, लोकतंत्र और संवाद की संस्कृति को समाहित करना आवश्यक है। विद्यार्थी जब पढ़ते हैं कि गांधी ने गाली खाने के बाद भी प्रेम से उत्तर दिया, जब वे जानें कि अंबेडकर ने असहमति के बावजूद संविधान में सबको सम्मान दिया- तभी वे अभिव्यक्ति की गरिमा को समझ पाएँगे।
एक समय था जब पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता था। आज वही मीडिया सत्ता के निकट जाकर अक्सर सत्तावादी अभिव्यक्ति का औजार बन गया है। अपवादों को छोड़ दें, तो बड़े मीडिया संस्थानों में अब स्वतंत्र पत्रकारिता का स्थान ‘क्लाइंट-जर्नलिज़्म’ और ‘इंफोटेनमेंट’ ने ले लिया है। जो आवाज़ें सरकारों से सवाल पूछती थीं, अब वे या तो हाशिए पर धकेली जा रही हैं या मुकदमों में उलझाई जा रही हैं। यही कारण है कि अनेक पत्रकार अब विदेशी मंचों पर जाकर भारत में अभिव्यक्ति की गिरती स्थिति पर चिंता ज़ाहिर करते हैं। अगर मीडिया स्वयं डरकर बोलना बंद कर दे, तो आम नागरिक की स्वतंत्रता भी संकुचित हो जाती है।
आज़ादी के साथ उत्तरदायित्व का युग
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक मूल्यवान अधिकार है- वह लोकतंत्र की रीढ़ है, उसकी चेतना है, उसकी आत्मा है। परंतु यह स्वतंत्रता केवल ‘कहने का अधिकार’ नहीं है, बल्कि यह समझने और महसूस करने की जिम्मेदारी भी है कि शब्दों का असर क्या होगा। हमें यह समझना होगा कि न तो हर आलोचना “देशद्रोह” है, और न ही हर भावना “अपराध”। हमें उन सीमाओं की पहचान करनी होगी जो अभिव्यक्ति को गरिमामयी बनाती हैं, न कि उन्हें बाँधती हैं। और यह कार्य सरकारों, न्यायालयों या कानूनों से अधिक समाज की सामूहिक चेतना को करना होगा।
आज आवश्यकता इस बात की है कि हम न केवल अपनी अभिव्यक्ति की रक्षा करें, बल्कि दूसरों की अभिव्यक्ति का भी सम्मान करें। दोहरे मानदंडों को त्यागें, भले वह किसी नेता या लेखक से जुड़ा हो। कानून, नैतिकता, विवेक और संवाद – इन चार स्तंभों पर ही एक परिपक्व लोकतांत्रिक समाज की अभिव्यक्ति टिक सकती है। यदि हम इस संतुलन को बनाए रख सकें, तो न केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सुरक्षित रहेगी, बल्कि उसका उपयोग समाज को और अधिक सुशोभित और समरस बनाने में होगा। अन्यथा, यही स्वतंत्रता कभी अभिशाप बनकर सामाजिक सौहार्द और लोकतंत्र को चुनौती दे सकती है।