
विजय गर्ग
भारतीय दर्शन के अनुसार, मानव सभ्यता का विकास हिमालय और उसकी नदी घाटियों से माना जाता है। आज विकास के तरीकों और जल्दबाजी से समूचे हिमालय के दरकने का सिलसिला जारी है। उत्तराखंड के उत्तरकाशी में धराली गांव समेत तीन स्थानों पर आई प्राकृतिक आपदा एक चेतावनी है कि प्रकृति से खिलवाड़ के नतीजे भयानक हो सकते हैं। धराली और हर्षिल में बाढ़ के रूप में प्रकृति ने जो दृश्य दिखाए हैं, वे वास्तव में भयावह हैं। एक बार फिर चारधाम यात्रा से जुड़े इस मार्ग पर केदारनाथ आपदा की कहानी प्रकृति है।
दरअसल, वर्तमान में समूचा हिमालयी क्षेत्र आधुनिक विकास और जलवायु परिवर्तन के खतरों से दो-चार हो रहा है। मौसम और प्राकृतिक आपदाओं की जानकारी देने वाले उपग्रह चाहे जितने आधुनिक तकनीक से जुड़े हों, वे अनियमित हो चुके मौसम के कारण बादलों के फटने, हिमनदों के टूटने और भारी बारिश होने की क्षेत्रवार सटीक जानकारी नहीं के टूटने दे पाते हैं। वर्ष 2013 में केदारनाथ त्रासदी और 2014 में जम्मू-कश्मीर की नदियों में बाढ़ आने के संकेत भी उपग्रह से नहीं मिल पाए थे। इसी तरह वर्ष 2021 में नंदा देवी राष्ट्रीय उद्यान के निकट हिमनद के टूटने से तबाही मची थी। इससे धौलीगंगा नदी में अचानक बाढ़ आई और तपोवन पनबिजली परियोजना में काम कर रहे अनेक मजदूर काल के गाल में समा गए थे। हिमाचल प्रदेश में भी भू-स्खलन, बादल फटने और भारी बारिश से तबाही देखने में आ रही है।
मौसम विज्ञानियों का कहना है कि इस बार मानसून में लंबी बाधा के कारण देश के कुछ हिस्सों में कम बारिश से सूखे जैसे हालात निर्मित हो हैं, , जबकि हिमाचल और उत्तराखंड में भारी बारिश तबाही मचा रही है। मानसून में रुकावट आ जाने से बादल पहाड़ों पर इकट्ठे हो जाते हैं और यही मूसलाधार बारिश के कारण बनते हैं। मगर तबाही के लिए मानसून को जिम्मेदार ठहरा कर जवाबदेही से नहीं बचा सकता। केदारनाथ में बिना मानसून की रुकावट के ही तबाही आ गई थी। इसलिए यह कहना बेमानी है कि मानसून की रुकावट तबाही में बदली। असल में समूचे हिमालय क्षेत्र में बीते एक दशक से पर्यटकों के लिए सुविधाएं जुटाने तथा जल विद्युत और रेल परियोजनाओं के कार्यों में प्रकृति से छेड़छाड़ हो रही है। इन परियोजनाओं के लिए हिमालय क्षेत्र में रेल गुजारने और कई हिमालयी छोटी नदियों को बड़ी नदियों में मिलाने के लिए सुरंगें निर्मित की जा रही हैं। बिजली परियोजनाओं के लिए भी जो संयंत्र लग रहे हैं, उनके लिए हिमालय को खोखला किया जा रहा है।
आधुनिक औद्योगिक और प्रौद्योगिकी विकास में असंतुलन का ही परिणाम है कि आज पहाड़ दरकने लगे हैं, जिन पर हजारों वर्ष से मनुष्य अपनी ज्ञान परंपरा के बूते जीवन यापन करने के साथ हिमालय और वहां रहने वाले अन्य जीव जगत की भी रक्षा करता रहा था हिमालय और पृथ्वी सुरक्षित बने रहें, इस दृष्टि से कृतज्ञ मनुष्य ने अथर्ववेद में लिखे पृथ्वी सूक्त में अनेक प्रार्थनाएं की हैं। इसमें राष्ट्रीय अवधारणा एवं वसुधैव कुटुंबकम की भावना को पोषित एवं फलित करने के लिए मनुष्य को नीति और धर्म से बांधने की कोशिश की है, लेकिन हमने कथित भौतिक सुविधाओं के लिए अपने आधार को ही नष्ट करने का काम आधुनिक विकास के बहाने कर दिया।
आपदा प्रभावित धराली और हर्षिल क्षेत्र में बहने वाली भागीरथी नदी पर बनी 1300 मीटर लंबी और 80 मीटर चौड़ी झील से पानी का रिसाव हो रहा है, इसे पोकलैंड मशीनों से तोड़ने की तैयारी है, ताकि रिसाव के लिए थोड़ा प्रवाह बढ़ जाए और झील का जलस्तर घट जाए। अगर इस झील के बीच कोई बड़ा बोल्डर होगा, तो इसे नियंत्रित विस्फोटक से तोड़ा जाएगा। पहाड़ों में अतिवृष्टि के चलते यह झील अस्तित्व में आ गई है। हिमालय में झील, तालाब और हिमनदों का बनना एक आश्चर्यजनक, लेकिन स्वाभाविक प्रक्रिया है। चूंकि यह झील हर्षिल और धराली के लिए संकट बन गई है, लिहाजा इसे तोड़ा जाना जरूरी हो गया है। अगर यह प्राकृतिक प्रकोप के चलते टूटती है, तो धराली एवं हर्षिल को और खतरा बढ़ जाएगा। देहरादून सिंचाई विभाग के अभियंताओं का बारह सदस्यीय दल हेलिकाप्टर से झील के निरीक्षण में लगा है। झील के प्रवाह में यदि कोई चट्टान बाधा है, तो उसे रिमोट से नियंत्रित विस्फोटक से तोड़ा जाएगा। इस विधि से वही हिस्सा टूटता है, जितना तोड़ना जरूरी होता है। हालांकि अभी तक यह निश्चित अनुमान नहीं लगाया जा सका है. इस जल प्रलय का वास्तविक कारण क्या है। भू-विज्ञानी असमंजस में हैं।
सच्चाई जानने के लिए वे अब ‘रिमोट सेंसिंग डेटा’ और ‘सेटेलाइट डेटा’ की प्रतीक्षा में है। इससे स्थिति साफ होगी कि खीर गंगा नदी में आया सैलाब बादल फटने, हिमनद टूटने या भू-स्खलन से आया या फिर किसी अन्य कारण से। इस सिलसिले में भू-विज्ञानियों और विशेषज्ञों का मानना कि नदी में अचानक इतना सैलाब किस कारण से आया, यह कहना फिलहाल संभव नहीं है। यह आपदा प्राकृतिक और मानव निर्मित दोनों ही कारण से हो सकती है। इन विरोधाभासी अनुमानों से साफ है कि इस बार आई आपदा के बारे में कारण स्पष्ट नहीं है। दरअसल, पर्वतीय क्षेत्रों में प्रकृति के साथ संतुलन बना कर विकास कार्य होना चाहिए, लेकिन कथित विकास की चकाचौंध में राज्य सरकारें कोई संतुलित नीति बना भी लेती हैं, तो उसके क्रियान्वयन में ईमानदारी नहीं बरतती हैं। यही वजह है पूरे हिमालय क्षेत्र में अंधाधुंध विकास की परियोजनाएं हिमालय की आंतरिक सुगठित संरचना को नष्ट कर रही है।
इस आपदा ने यह साफ कर दिया है कि उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्र में झीलों के खतरे बढ़ रहे हैं। राज्य में ऐसी करीब 1266 झीलें हैं। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) ने उत्तराखंड में 13 हिमनदों को खतरनाक श्रेणी के रूप में चिह्नित किया है। इनमें से पांच को उच्च जोखिम श्रेणी में रखा है। हालांकि यह मुद्दा कोई नया नहीं है। वर्ष 2013 में केदारनाथ जल प्रलय के बाद मुद्दा महत्त्वपूर्ण हो गया था।
उत्तराखंड भूकम्प के सबसे खतरनाक जोन-5 में आता है। कम तीव्रता के भूकम्प यहां निरंतर आते रहते हैं। मानसून के दौरान हिमाचल और उत्तराखंड पहाड़ी जिलों में भू-स्खलन, बादल फटने और बिजली गिरने की घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं। पहाड़ों के दुरकने के साथ हल्के भूकम्प भी आ रहे हैं। उत्तराखंड और हिमाचल में बीते सात वर्षों में 130 बार से ज्यादा छोटे भूकम्प आए हैं। हिमाचल और उत्तराखंड में जल विद्युत और रेल परियोजनाओं ने बड़ा नुकसान पहुंचाया है। टिहरी पर बांध को रोकने के लिए तो लंबा अभियान चला था। पर्यावरणविद और भू-वैज्ञानिक भी हिदायतें देते रहे हैं कि गंगा और उसकी सहायक नदियों की अविरल धारा बाधित हुई, तो फिर गंगा तो अस्तित्व खोएगी ही, हिमालय की अन्य नदियों और झीलों का अस्तित्व भी खतरे में पड़ सकता है।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब