ललित गर्ग
बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खाद्य पदार्थ एवं डिब्बाबन्द उत्पादों के सेहत पर पड़ने वाले घातक प्रभावों पर दशकों से विमर्श होता रहा है, लेकिन जैसे-जैसे मर्ज की दवा की रोग बढ़ता गया, वाली स्थिति देखने को मिल रही है। अब जाकर विभिन्न शोधों के निष्कर्षों के आधार पर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने खाद्य पदार्थों व पेय पदार्थों में मिलाये जाने वाली कृत्रिम मिठास को कैंसर को बढ़ाने वाला कारक माना है। बात केवल कृत्रिम मिठास की नहीं है, तरह-तरह से भारतीय भोजन के स्वास्थ्यवर्द्धक कारणों को कुचलने एवं स्वास्थ्य पर हो रहे जानलेवा हमलों की भी है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने हाल ही में अपने एक अध्ययन में बताया कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा बेची जाने वाली कुछ स्वादिष्ट खाद्य सामग्रियों में स्वास्थ्य के लिए हानिकारक तत्व हैं। इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। चाय और भुजिया, कोल्ड ड्रिंक्स और समोसा, बटर चिकन और नान का मजा लेने वाले भारतीयों में बहस छिड़ गई कि आखिर यह कैसे नुकसानदेह साबित हो सकता है। भारत में नेस्ले कम्पनी द्वारा बनाई जाने वाली मैगी पर गुणवत्ता को लेकर उठे सवाल भी हैरान करने वाले हैं। मिलावट वाले खाद्य पदार्थ एवं डिब्बाबन्द उत्पादों के बढ़ते प्रचलन से देश के लोगों का स्वास्थ्य दाव पर लगा है, लेकिन उन पर नियंत्रण की कोई स्थिति बनती हुई नहीं दिख रही है। विदेशी पूंजी एवं रोजगार की आड़ लेकर इन कम्पनियों की आर्थिक महत्वाकांक्षाओं, गलत हरकतों एवं स्वास्थ्य को चौपट करने वाली स्थितियों को किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। देश में गुणवत्ता वाले खाद्य पदार्थ ही लोगों के स्वास्थ्य की रक्षा कर सकते हैं, इसके लिये सख्त कानून के साथ ही राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखानी होगी।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खाद्य उत्पादों से अस्वास्थ्य एक व्यापक समस्या बन गयी है। शिक्षित-अशिक्षित, गरीब-अमीर, स़्त्री-पुरुष, युवा-प्रौढ़ सभी इन उत्पादों के आदी होकर परेशान है। इनके अधिक सेवन के कारण सबको किसी-न-किसी बीमारी की शिकायत है। चारों ओर बीमारियों का दुर्भेद्य घेरा है। निरन्तर बढ़ती हुई बीमारियों का प्रमुख कारण बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खाद्य उत्पादों का भारतीय भोजन में शामिल होना है। इन बीमारियों को रोकने के लिये नई-नई चिकित्सा पद्धतियां एवं आविष्कार असफल हो रहे हैं। जैसे-जैसे विज्ञान रोग प्रतिरोधक औषधियों का निर्माण करता है, वैसे-वैसे बीमारियां नये रूप, नये नाम और नये परिवेश में प्रस्तुत हो रही है, इन बढ़ती बीमारियों का कारण जंक फूड, डिब्बाबन्द उत्पाद एवं कृत्रिम मिठास है। जांच एजेंसियों की लापरवाही, संसाधनों के अभाव, भ्रष्टाचार, केन्द्र-राज्य सहयोग का अभाव और लचर दंड-व्यवस्था का खामियाजा उपभोक्ताओं को अपने स्वास्थ्य को खतरे में डालकर चुकाना पड़ रहा है।
दुनिया में बहुराष्ट्रीय शीतल पेय कंपनियों के पेय, सोडा, च्यूइंग गम आदि पदार्थों में कृत्रिम मिठास का धड़ल्ले से प्रयोग किया जाता है। दरअसल, मनुष्य पर कैंसरकारक असर के बाबत अंतर्राष्ट्रीय एजेंसी आईएआरसी और विश्व स्वास्थ्य संगठन के कैंसर अनुसंधान प्रभाग के अध्ययन का हवाला दिया गया है। निस्संदेह, इन निष्कर्षों ने दुनियाभर के उपभोक्ताओं की चिंताओं को बढ़ा दिया है, जो लंबे समय से इन उत्पादों के सेवन को लेकर दुविधा में थे। विशेषज्ञों ने उस पुरानी दलील को तरजीह नहीं दी कि एक सीमित मात्रा में कृत्रिम मिठास से बने उत्पाद घातक नहीं होते और इनका उपयोग किया जा सकता है। निश्चित ही बहुराष्ट्रीय कम्पनिया अपने मुनाफे के लिये जन-जन के स्वास्थ्य से खिलवाड़ कर रही है, बावजूद इसके दुनिया के शक्तिशाली देशों में प्रभावी इन कंपनियों के खिलाफ कोई भी बात नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह जाती थी। भारत में भी ऐसी कम्पनियां तेजी से पांव पसार रही है।
भारतीय परिवारों में इंस्टैंट नूडल्स, आलू की चिप्स, कोल्ड ड्रिंक्स ने कहर बरपाया है, ये तमाम खाद्य एवं पेय उत्पाद भले ही जायकेदार होते हैं लेकिन इनका सेवन स्वास्थ्य को चौपट कर रहा है। इनका प्रचलन बढ़ता जा रहा है, आखिर क्यों न बढ़े, हमारे तमाम बड़े सुपरस्टार्स उनका विज्ञापन जो करते हैं। आखिर, कोई ऐसा उत्पाद हानिकारक कैसे हो सकता है, जिसके विज्ञापन में किसी प्यारे-से बच्चे की आवाज सुनाई देती हो या जिनमें ‘अपने ग्रैंडपैरेंट्स से प्यार करो’ ‘कुछ मीठा हो जाये’ जैसे विज्ञापन जन्मदिन से लेकर शादी तक हर अवसर के लिये पसरे हैं, जो भावनात्मक मूल्यों से खिलवाड़ करते हैं। यदि हम इन विज्ञापनों पर भरोसा करें तो पाएंगे कि कैडबरी, चिप्स और कोला का सेवन करने वाले लोग साधारण लोगों की तुलना में ज्यादा प्रेमपूर्ण, सभ्य, आधुनिक व संवेदनशील होते हैं और बर्गर और फ्राइड चिकन के कारण आप बेहतर दोस्त साबित हो सकते हैं। तो आखिर माजरा क्या है? कैडबरी ने तो भारतीय देशी मिठाइयों के भविष्य को ही धुंधला दिया है।
स्वास्थ्य स्थितियां बेहद चिंताजनक है। भारतीय मध्यवर्ग की डाइट बद से बदतर होती जा रही है। जैसे-जैसे मध्यवर्ग की आमदनी और व्ययशीलता बढ़ती जा रही है, उसे अपने शरीर में कैलोरीज की मात्रा बढ़ाने के और मौके मिल रहे हैं। यूं भी भारतीय परंपरागत रूप से भोजनप्रेमी होते हैं। ऐसे में अगर जायकेदार लेकिन सस्ते खाद्य पदार्थ आसानी से मुहैया हों तो क्या कहने। भले ही यह जायका जहरीला हो। इसी में जागरूकता की कमी और अनैतिक विज्ञापन संस्कृति को भी जोड़ लें तो हम पाएंगे कि हम भयावह स्थिति की ओर बढ़े चले जा रहे हैं। यह जांचने के लिए हमें किसी लैबोरेटरी स्टडी की जरूरत नहीं है कि हम जो खा रहे हैं, उनमें से कुछ चीजें हमारी सेहत के लिए वाकई नुकसानदेह हैं। एक ज्यूस ब्रांड ऐसा आमरस बेचता है, जिसके हर गिलास में आठ चम्मच शकर हो सकती है। इंस्टैंट नूडल्स का एक पैक अशुद्ध और अपरिष्कृत स्टार्च से बढ़कर कुछ नहीं होता। बच्चों को दूध के साथ पिलाए जाने वाले जौ निर्मित तथाकथित पोषक आहार शकर से भरे होते हैं। नाश्ते में जो महंगे खाद्य पदार्थ लिए जाते हैं, उनकी हेल्थ वैल्यू एक मामूली रोटी जितनी भी नहीं होती। तली हुई आलू की चिप्सें और पेटीज बर्गर निश्चित ही सेहतमंद चीजें नहीं हैं। इसके बावजूद इन उत्पादों के निर्माता ब्रांड टीवी पर विज्ञापन के लिए करोड़ों रुपए खर्च करते हैं ताकि हमारे मन में इन उत्पादों के प्रति चाह जगाई जा सके।
इन उत्पादों के कारण हमारा वजन बढ़ रहा है, तनाव एवं अवसाद को जी रहे हैं, मधुमेह के रोगी चरम पर पहुंच रहे हैं, हृदयरोग के आंकडे भी इन खाद्य पदार्थों के बढ़ते प्रचलन के कारण चौंकाने वाले हैं। निश्चित रूप से पूरी दुनिया में घातक कृत्रिम मिठास, डिब्बा बन्द उत्पाद एवं जंक फूड के दुष्प्रभावों को लेकर नये सिरे से बहस का आगाज होगा। सवाल केवल बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों का ही नहीं है, जिन मिठाइयों और नमकीन को हम अपनी परंपरागत विरासत का एक हिस्सा समझते हैं, घरों और रेस्तरांओं में जिस तरह का तरीदार शोरबा परोसा जाता है, रेलवे स्टेशनों पर जिस तरह के समोसे और पकौड़े बेचे जाते हैं, वे सभी हमारे लिए नुकसानदेह हैं। लेकिन न तो सरकार, न ये कंपनियां और न ही हम इसे लेकर चिंतित हैं। हो सकता है आने वाले कुछ सालों में हमें इसकी कीमत चुकानी पड़े। आज हम जिस समृद्धि पर गर्व करते हैं, वही हमारे लिए महंगा सौदा साबित हो सकती है। जिन लोगों के पास खाने को कुछ नहीं है, वे भोजन को बुनियादी जरूरत मानते हैं, लेकिन जिनके सामने भरण-पोषण की कोई समस्या नहीं है, वे इसे आनंद का एक और माध्यम मानते हैं। अलबत्ता अति हर चीज की बुरी है। हमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर लगाम कसने की जरूरत है, क्योंकि लगता नहीं कि वे अपने उत्पादों में पौष्टिकता परोसती है या विज्ञापनों में किसी तरह की नैतिकता का निर्वाह करती हैं। यदि वे कोई ऐसी चीज बेच रही हैं, जिसके दीर्घकालिक परिणाम घातक हो सकते हैं तो उन्हें इसका खुलासा करना चाहिए। जंक बेचने वाली कंपनियों से हमारे बच्चों की रक्षा की जानी चाहिए। विज्ञापनों को नियम-कायदों के दायरे में लाया जाना चाहिए। भोजन में जहर परोसने वाले देश के लोगों के लिये एक बड़ा खतरा है, इस खतरे से लोगों को बचाने के लिये महज व्यावसायिक या व्यवस्थागत समस्या मान कर समाधान करना उचित नहीं है, बल्कि कठोर एवं निष्पक्ष कानून व्यवस्था बननी चाहिए। बहरहाल, इस मुद्दे को दुनिया में नया विमर्श मिलना तय है। जन स्वास्थ्य की दृष्टि से यह कदम जरूरी भी है।