मनोज कुमार मिश्र
निगमों के एकीकरण के बाद परिसीमन की प्रक्रिया पूरी होने के बाद दिल्ली में सक्रिय राजनीतिक दल चुनाव की तैयारी में जुट गए हैं। भाजपा लगातार चौथी बार निगम पर कब्जा करने की कोशिश में लगी है, वहीं लगातार दो बार प्रचंड बहुमत से दिल्ली विधान सभा चुनाव जीतकर दिल्ली सरकार में काबिज आम आदमी पार्टी(आप) साल के शुरू में पंजाब विधान सभा चुनाव जीतने से उत्साहित निगम चुनाव को जीतने की तैयारी में है। वह हिमाचल प्रदेश और गुजरात विधान सभा चुनाव में भाजपा को चुनौती देने में लगी हुई है। आप लंबे समय से आरोप लगा रही है कि भाजपा निगम चुनाव में हार के डर से चुनाव टालने में लगी रही। उसके निगम चुनाव में अपने जीत का ऐसा आत्मविश्वास है कि आप ने परिसीमन की गड़बड़ियों को बड़ा मुद्दा नहीं बनाया। दिल्ली में अपने वजूद की फिर से तलाश में जुटी कांग्रेस का आरोप है कि भाजपा नौकरकशाही के बूते परिसीमन में गड़बड़ी करके चुनाव जीतना चाहती है। इस काम में उसे आप की भी मदद मिली है।
अब 2022 में हुए दिल्ली नगर निगम(संशोधन),2022 विधेयक के तहत 272 बजाए 250 सीटों के लिए चुनाव होंगे। सीटें बढ़ने, एक निगम का तीन निगम बनने के बावजूद पिछले 15 साल से निगम पर भाजपा का कब्जा है। लगातार भारी बहुमत से दूसरी बार दिल्ली सरकार में काबिज आम आदमी पार्टी(आप) प्रयास करके भी दिल्ली की कोई लोक सभा सीट या निगम चुनाव जीत नहीं पाई। इस बार पंजाब चुनाव जीतने के बाद उसके हौसले बुलंद है। इसीलिए आप नेताओं का आरोप है कि निगम चुनाव हारने के डर से भाजपा ने निगम चुनाव घोषित होने के दिन तीनों निगमों को एक निगम करने के बहाने चुनाव टाल दिया। पहले यह कहा भी जा रहा था कि परिसीमन आदि के बहाने निगम चुनाव लंबे समय तक टाले जाएंगे। परिसीमन का काम पूरा होने के बाद तो चुनाव पर कोई शंका नहीं रही है। परिसीमन में गड़बड़ी की शिकायत अदालत में की गई है। एक ही आशंका है कि अदालत ने सुनवाई शुरू कर ली तो चुनाव कुछ समय के लिए टल जाएंगे।
परिसीमन के जानकार वरिष्ठ कांग्रेस नेता चतर सिंह का कहना है कि 250 सीटों के परिसीमन को जो अधिसूचना जारी हुई है, उसमें तमाम अनियमितताएं हैं। इसी तरह की गड़बड़ी के चलते ही पूर्व डिप्टी मेयर रमेश दत्ता 2007 में अदालत गए और 66 सीटों में चुनाव आयोग को बदलाव करना पड़ा। यह परिसीमन 2011 की जनगणना के आधार पर किया गया है। इस हिसाब से हर सीट 65,675 आबादी की बननी चाहिए। इसमें दस फीसद बदलाव किया जा सकता है लेकिन सीटें 35 हजार से लेकर 93 हजार तक की बना दी गई है। औसत तीन निगम सीटें हर विधान सभा में बननी थी। पहले भी मटियाला में सात सीटें बनी। इस बार भी मटियाला, बवाना और विकासपुरी विधान सभा सीट में छह-छह सीटें बनाई गई है। दो सीटें तो नई दिल्ली नगर पालिका परिषद और छावनी परिषद के अधीन है। बाकी 68 में से तीन में छह-छह,38 में तीन-तीन, 17 में चार-चार और दस में पांच-पांच सीटें बनाई गई। एतराज इस पर नहीं है आबादी के हिसाब से पटेल नगर,पटपढ़गंज और विश्वास नगर में तीन बननी थी, चार बना दी। मंगोलपुरी, त्रिलोकपुरी, कोंडली और सीमापुरी में चार-चार बननी थी, तीन-तीन बना दी। बुराड़ी में छह बननी थी पांच बना दी। आरोप यह भी लगाया जा रहा है कि दलित आबादी वाली सीटें बड़ी और सामान्य वाली छोटी बनाई गई है। इस बार परिसीमन के लिए बनी कमेटी में एसोसिएट सदस्य बनाए ही नहीं गए हैं।
दिल्ली में नगर निगम 1957 में संसद ने विधेयक लाकर बनाया गया था। तब से अब तक उसमें कई संशोधन हुए लेकिन चुनाव दूसरी बार ही टाले गए हैं। नगर निगम में सुधार के नाम पर ही एक बार पहले को 14 साल चुनाव टाले गए। 1983 में पुराने विधान के हिसाब से चुनाव हुए थे। तब कांग्रेस चुनाव जीती थी। उसे 1990 तक विस्तार देकर भंग किया गया। स्थानीय निकायों और ग्राम पंचायतों के लिए संसद में हुए 73 वे और 74 वे संशोधनों के बाद नए विधान से 1997 में चुनाव हुए। उस चुनाव में भाजपा को जीत मिली। आबादी के हिसाब से अनुसूचित जाति के लिए 42 सीटें आधी सीटें(125) महिलाओं के लिए आरक्षित की गई है।
आजादी के बाद दिल्ली में कम अधिकारों वाली विधान सभा दी गई। 1953 में बने राज्य पुनर्गठन आयोग का सिफारिश पर संसद ने दिल्ली नगर निगम का गठन 1957 में किया तब निगम के पास ही दिल्ली से जुड़े सर्वाधिक विभाग थे।1966 में महानगर परिषद बनी, उससे निगम के अधिकार कुछ कम हुए। 1989 में महानगर परिषद को भंग करके सरकारिया आयोग और बालाकृष्ण कमेटी की सिफारिशों के अनुरूप 1991 में 69 वें संविधान संशोधन के माध्यम से दिल्ली को सीमित अधिकारों वाली विधान सभा मिली। 1993 में विधानसभा का चुनाव हुए। संविधान तैयार करने वाले नेताओं ने यह तय कर दिया था कि दिल्ली केन्द्र शासित प्रदेश ही रहेगी। विधान सभा बन जाने के बावजूद दिल्ली केन्द्र शासित प्रदेश है। इसके चलते राष्ट्रपति इसके शासक हैं और वे अपने प्रतिनिधि(उप राज्यपाल) के माध्यम से दिल्ली का शासन चलाते हैं। दिल्ली विधान सभा को राज्य सूची के 66 में से 63 विषय सौंपे गए हैं। इन पर दिल्ली मंत्रिमंडल स्वतंत्र रूप से फैसला ले सकती है। यही सुप्रीम कोर्ट ने चार जुलाई 2018 के अपने फैसले में कहा अधिकारियों पर नियंत्रण के लिए सुप्रीम कोर्ट की पीठ सुनवाई कर रही है।
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के दिल्ली को 1993 में विधान सभा देने वाले कानून की व्याख्या करने के बाद केन्द्र सरकार ने संसद के पिछले सत्र में दिल्ली के उप राज्यपाल को दिल्ली का शासक बताने के लिए संविधान में संशोधन किया। कांग्रेस और भाजपा का दिल्ली में और केन्द्र में सरकार रहती थी, अब लंबे समय से दिल्ली में आप शासन है, जो कांग्रेस और भाजपा दोनों से दूरी बनाए हुए हैं। दिल्ली में बहुशासन प्रणाली से राजनीति में कड़वाहट बढ़ी ही, हर स्तर पर केन्द्र की भाजपा की अगुवाई वाली सरकार से दिल्ली सरकार का टकराव रहा। दिल्ली सरकार की तरह दिल्ली की नगर निगम भी स्वशासी हैं। दिल्ली की 15 साल तक मुख्यमंत्री रही शीला दीक्षित को स्वशासित नगर निगम शुरू से ही खलता रहा। वे दिल्ली नगर निगम को उसी तरह दिल्ली सरकार के अधीन लाना चाहती थी जैसे अन्य राज्यों में राज्य सरकार के अधीन वहां की निगमें होती हैं। उन्होंने निगमों का पुनर्गठन के लिए के लिए 2001 में वीरेन्द्र प्रकाश कमेटी बनाई। कमेटी ने चार बड़े और दो छोटे निगम बनाने की सिफारिश की। उसे कांग्रेस के ही नेताओं ने नहीं लागू करने दिया। शीला दीक्षित ने हार नहीं मानी 2007 के चुनाव से पहले निगम की सीटें 138 से बढ़ाकर 272 की गई, फिर उसे तीन हिस्सों में बांटा गया। दिल्ली के 87 फीसद इलाकों में दिल्ली सरकार के समानांतर दिल्ली की नगर निगमों की सत्ता चलती है। दिल्ली में विधान सभा बनने से पहले निगम के पास ही दिल्ली की असली सत्ता थी ,बाद में पहले बिजली, फिर पानी,फिर फायर सर्विस, होमगार्ड,फिर सीवर, बड़ी सड़कें आदि अपने अधीन करके दिल्ली सरकार ताकतवर बनी। बावजूद इसके आज भी गृह कर, लाईसेंस,प्राथमिक स्वास्थ्य समेत कुछ बड़े अस्पताल, प्राथमिक स्कूल, पार्क, पार्किंग आदि निगमों के अधीन हैं। तीन निगमों में से दो(पूर्वी और उत्तरी) अपने खर्चे का बोझ नहीं उठा पा रही थी। आए दिन उसका दिल्ली सरकार से टकराव होता रहता था। अब नई व्यवस्था में नगर निगम दिल्ली सरकार के बजाए केन्द्र सरकार के अधीन कर दी गई है। केन्द्र में भाजपा की सरकार है यानि निगम अभी भी भंग होने के बाद भी भाजपा के पास है। तभी तो दिल्ली के उप राज्यपाल दिल्ली सरकार से निगम का बकाया मांग रहे हैं। गैर भाजपा मतों का विभाजन होने के चलते भाजपा महज 36 फीसद वोट लाकर भी तीन बार से निगम चुनाव जीतती रही है। कांग्रेस के हासिए पर जाने से इस बार भाजपा और आप में मुकाबला माना जा रहा है।
केन्द्र और दिल्ली में पहले भी अलग-अलग दल की सरकारें रही है और उसी तरह पहले भी उप राज्यपाल केन्द्र सरकार के हिसाब से बनते रहे हैं। टकराव भी कई बार हुआ लेकिन वह ज्यादा लंबा नहीं चला। न ही टकराव स्तरहीन हुआ। विधानसभा की बैठक उप राज्यपाल के नाम पर उनकी ही अनुमति से बुलाई जाती है। उसी विधान सभा में सत्ता में बैठी आम आदमी पार्टी(आप) उप राज्यपाल पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर उन्हें हटाने के लिए धरना दे रही है। आबकारी नीति में भ्रष्टाचार के आरोप की जांच शुरू होने के बाद उप राज्यपाल पर तरह-तरह के आरोप लगाए जा रहे हैं। हालात ऐसे बन गए हैं कि नगर निगम का बकाया देने की मांग दिल्ली सरकार से खुद उप राज्यपाल कर रहे हैं। उप राज्यपाल के भेजे कानूनी नोटीस को सरेआम फाड़ा गया। इसकी शुरुवात तो दिल्ली की आप सरकार की अलग तरह की राजनीति करने के नाम पर मनमानी और शराब (आबकारी) नीति के नाम पर भ्रष्टाचार होने से ही शुरू हुआ। संभव है कि भाजपा को दिल्ली के बाद पंजाब में आप के चुनाव जीतने के बाद आने वाले दिनों में होने वाले गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव में आप के ताकतवर बनने से चिंता हुई हो। आप नेता तो पार्टी प्रमुख और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को 2024 के लोक सभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के मुकाबले प्रधानमंत्री का उम्मीदवार मान रहे हैं। उनका आरोप है कि आप को जीतने से रोकने के लिए भाजपा की केन्द्र सरकार केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) और प्रवर्तन निदेशालय(ईडी) के माध्यम से आप को परेशान कर रही है।
दिल्ली सरकार के मंत्री सत्येन्द्र जैन धन शोधन(मनी लांडिंग) मामले में तीन महीने से जेल में हैं। दिल्ली सरकार के उप मुख्यमंत्री और सरकार के ज्यादातर विभाग संभालने वाले मनीष सिसोदिया पर आबकारी नीति में हड़बड़ी करने के आरोप में सीबीआई छापा मार चुकी है। ईडी भी जांच कर रही है। उनसे लंबी पूछताछ हुई है। अब मुख्यमंत्री केजरीवाल भी जांच के घेरे में हैं। सिसोदिया पर स्कूलों के कमरों को बनवाने में भ्रष्टाचार करने के आरोप का भी मामला है। इसके अलावा दिल्ली परिवहन निगम(डीटीसी) बसों में खरीद में भी गड़बड़ी की भी जांच शुरू हो चुकी है। सिसोदिया ने सीबीआई छापा के बाद भाजपा पर सनसनीखेज आरोप लगाकर विवाद की दिशा मोड़ने की कोशिश की कि उन्हें आप के विधायकों को तोड़कर भाजपा की सरकार बनाने के प्रस्ताव दिए जा रहे हैं। इसी के बाद आप ने यह भी आरोप लगाया है कि उनके विधायकों को भाजपा में आने के लिए 20-20 करोड़ रुपए का प्रस्ताव दिया जा रहा है। भाजपा इसे आप की कलई उतने पर हो रही बौखलाहट बता रही है। इस विवाद में राजनीति की सारी सीमाएं और मर्यादा टूट रही है। भाजपा के आरोप में काफी सत्यता है कि इसमें मुख्यमंत्री केजरीवाल पर ज्यादा चालाकी करके कोई भी विभाग अपने पास न रखकर भ्रष्टाचार में अपने साथियों की बलि ले रहे हैं। अब तो उप राज्यपाल विनय कुमार सक्सेना ने भी एक बयान में इस बात पर एतराज किया है कि बिना मुख्यमंत्री के हस्ताक्षर के उनके फाइल भेजी जा रही है। इस बार शराब घोटाले में दो आई.ए.एस.( आर. गोपी कृष्ण, आनंद कुमार तिवारी और अनेक अफसर निलंबित कर दिए गए हैं। इतना ही नहीं सीबीआई और ईडी अनेक अफसरों पर भी कारवाई कर रही है। इसी तानातनी में निगम चुनाव का बिगुल बज गया है। अब तो राजनीतिक लड़ाई और तेज हो गई है।