बस्तर के लेखक की किताब पर साहित्य-अकादमी दिल्ली में परिचर्चा

विवेक कुमार

  • डॉ राजाराम त्रिपाठी सच्चे अर्थों में बस्तर की आवाज हैं : वरिष्ठ कवि पत्रकार मदन कश्यप
  • डॉ राजाराम का लेखन आदिवासी समाज की ऐतिहासिक यात्रा दर्शाता है : राकेश रेणु संपादक ‘आजकल’
  • अनुभव सिद्ध डॉ राजाराम त्रिपाठी के भीतर कवि ,उद्यमी तथा पत्रकार तीनों सतत सक्रिय हैं, उनके लेखन का केंद्र आदिवासी उनके जल जंगल जमीन तथा पर्यावरण है : आलोचक कवि ओम निश्चल
  • डॉ त्रिपाठी के लेखन ने लगातार एहसास कराया है कि आदिवासी चेतना, बोली भाषा, उनकी संस्कृति से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। जिसे सुरक्षित करने की आवश्यकता भी है : वरिष्ठ पत्रकार प्रसून लतांत
  • बस्तर,ककसाड़ तथा मेरी आवाज को पूरे देश व दिल्ली साहित्यिक बिरादरी तक पहुंचाने में लिटिल बर्ड प्रकाशन तथा कुसुमलता जी का विशेष योगदान : डॉ राजाराम त्रिपाठी

साहित्य अकादमी दिल्ली में आयोजित पुस्तकायन में पिछले हफ्ते 8 दिसंबर को बस्तर के लेखक संपादक डॉ राजाराम त्रिपाठी की हाल में ही प्रकाशित पुस्तक “दुनिया इन दिनों ” पर परिचर्चा कार्यक्रम के आरंभ में लिटिल बर्ड प्रकाशन की ओर से कुसुम लता सिंह ने आमंत्रित अतिथियों को मंच पर आमंत्रित किया । मंच पर उपस्थित ओम निश्चल का स्वागत प्रकाशन संस्थान के प्रकाशक हरिश्चंद्र शर्मा ने , मदन कश्यप का स्वागत अद्विक प्रकाशन के प्रकाशक अशोक गुप्ता ने किया । राकेश रेणु का स्वागत वरिष्ठ बाल साहित्यकार घमंडी लाल अग्रवाल ने किया। डॉ राजाराम त्रिपाठी का स्वागत अशोक गुप्ता और प्रसून लतांत का स्वागत कुसुमलता सिंह द्वारा किया गया।

सर्वप्रथम राकेश रेणु जो प्रकाशन विभाग की साहित्य और संस्कृत का मासिक पत्रिका”आजकल” के लंबे समय तक संपादक रहे और मूलत कवि हैं उन्होंने “दुनिया इन दिनों” पुस्तक की सामग्री पर और ककसाड़ पत्रिका की 10 वर्षों की यात्रा की प्रशंसा की और कहा कि ऐसे समय में जब पत्रिकाएं बंद होती जा रही हैं तो ककसाड़ की यात्रा रेखांकित की जानी चाहिए। इस पत्रिका की हर संपादकीय जो डॉक्टर राजाराम त्रिपाठी ने लिखी है और जो इस पुस्तक में संकलित की गई है वह आदिवासी समाज की ऐतिहासिक यात्रा दर्शाती है ।

वरिष्ठ कवि और आलोचक और हिंदी साहित्य के एक समर्पित शब्द -सहचर ओम निश्चल ने कहा कि “दुनिया इन दिनों ” में जो संपादकीय संकलित किये गये हैं वह बड़ा उपक्रम है। राजाराम त्रिपाठी को मैं लंबे अरसे से जानता हूं उनका पूर्वांचल से भी संबंध रहा है। उनके पूर्वज कब और कैसे छत्तीसगढ़ में गए, इसकी अपनी कहानी है। जिसे वे अपने विषय में बताएंगे।उनके भीतर का कवि, उद्यमी और पत्रकार यह तीनों सक्रिय रहे हैं । इनके भीतर राजनीतिक और सामाजिक चेतना भी है इसलिए आदिवासियों की तमाम चिताओं को इन्होंने विभिन्न मंचों पर साझा किया है करते रहे हैं। इन्होंने बहुत सारे देश की यात्राएं की हैं वहां के किसानों मजदूरों आदिवासियों और राजनीतिकों से मुलाकात उनकी होती रही है। ऐसे अनुभव सिद्ध राजाराम त्रिपाठी का जब यह संकलन उनके रचना संपादकीय का आया है तो यह सिद्ध होता है की उनके साहित्य रचना की यात्रा लंबी चलेगी। उनकी चिंता का केंद्र आदिवासी या जो जन समूह आधुनिकता के रहन-सहन में धीरे-धीरे उनके जंगल, उनके प्राकृतिक संसाधन इत्यादि पर तमाम खतरे में मंडरा रहे हैं शायद सरकार भी उन्हें बचाने के लिए उतनी प्रयासरत नहीं है बल्कि सभ्यता के आवरण में उन्हें ढ़कने की बहुत सारी कोशिश की जा रही है ऐसे में इन्होंने अपने संपादकीय में लगातार पूंजीवाद, बाजारवाद और साम्राज्यवाद की चर्चा की है। आदिवासियों की संस्कृति रहन-सहन, सोच विचार की चिंता जो इनके संपादकीय के केंद्र में है वह प्रशंसनीय है। यही इस पुस्तक को दूसरी पुस्तकों से अलग बनाता है। मैं इसके लिए राजाराम त्रिपाठी को और इसकी प्रकाशक कुसुमलता सिंह को बधाई देता हूं।

वरिष्ठ कवि और पत्रकार मदन कश्यप ने कहा कि डॉक्टर त्रिपाठी सच्चे अर्थों में बस्तर की आवाज हैं। यह मैं किसी अतिरंजना में नहीं कह रहा हूं । इनके कविता संग्रह का नाम ही देख लीजिए ” बस्तर बोलता भी है” ,” मैं बस्तर बोल रहा हूं ” । पहले उस बोलने को रेखांकित करना फिर उसके साथ मिलकर बोलना तो यह बताता है कि सच्चे अर्थों में वे किसान तो हैं ही और आज प्रसून लतांत जी ने अपने संचालन में जिस मूलत और अंततः का प्रयोग बार-बार किया है, तो मैं कहता हूं कि राजाराम त्रिपाठी मूलत: और अंततः किसान ही हैं। जिसमें वे नए प्रयोग कर रहे हैं। लेकिन एक किसान की गतिशीलता यहां इतनी है कि वह आदिवासी क्षेत्र में उनके बीच रहने, उनको समझने , उनकी संस्कृति को समझ कर उसे दुनिया के पास ले जाने की बेचैनी के कारण ही यह सारी गतिशीलता इनके भीतर पैदा हुई है। किसान तो प्रायः चुपचाप अपना काम करता है पर यह कोई बड़ी सुखांत स्थिति नहीं है। क्योंकि सरकार भी यही चाहती है कि इस तरह के समुदाय बोले नहीं खेतों में अन्न उपजाने और दिल्ली में आकर मोर्चा ना लगाएं । इसके विरुद्ध यह किसान जहां है वहां अच्छी खेती ही नहीं कर रहा है, नई तरह की फसलें ही नहीं उगा रहा है, उसमें नए प्रयोग ही नहीं कर रहा है बल्कि उसके साथ उस समाज के दुख को अपने लेखन के माध्यम से, पत्रिका के माध्यम से व्यक्त कर रहा हो तो यह एक आदर्श स्थिति बनती है।

उनकी यह संपादकीय जो अन्यथा विलीन हो जाती। समय के साथ उन्हें संकलित कर इस किताब में लाया गया है तो यह बहुत बड़ी बात है। इसीलिए मैंने कहा कि सच्चे अर्थों में राजाराम त्रिपाठी बस्तर की आवाज हैं। मैं पत्रिका के माध्यम से ही इन्हें जानता रहा हूं । पत्रिका मुझे प्रकाशन संस्थान में उपलब्ध होती रही है । इस पत्रिका के नाम से ही कुछ आकर्षण पैदा होती है कि ककसाड़ क्या है । हालांकि पत्रिका के भीतर हर अंक में इसको बताया जाता है। मैं इस पुस्तक के लिए राजाराम त्रिपाठी को बधाई देता हूं और ककसाड़ पत्रिका की लंबी यात्रा के लिए शुभकामनाएं देता हूं।

साहित्यकार, पत्रकार और समाजसेवी प्रसून लतांत ने कहा कि अपने संपादकीय में राजाराम त्रिपाठी ने बराबर एहसास कराया है कि आदिवासी चेतना, बोली भाषा, उनकी संस्कृति से बहुत कुछ सीख सकते हैं। जिसे सुरक्षित करने की आवश्यकता है। अंत में घंमडीलाल अग्रवाल ने धन्यवाद ज्ञापन किया।