हौसले की जीत

victory of courage

संदीप पांडे ‘शिष्य

गुजरात के सुदूर इलाके मे एक गांव है सोनपुर। हजार लोगो की छोटी सी बस्ती। बाकी दुनिया से थोडा कटा और अपने हाल मे रमा सिमटा। ज्यादातर खेती पर आश्रित पर हर परिवार के पास अपने उपयोग के लिए एक या अधिक गिर नस्ल की गाय। जिगनेश चौदह बरस का नवयुवक, भविष्य के प्रति बेपरवाह, गांव के दसवी तक के विद्यालय से उत्तीर्ण हो , बस दिन काट रहा है। शरीर से दुबला पतला, जब लम्बी ढीली शर्ट पहन कर सीधी सडक पर चलता, तो दूर से देखने वाले को हैंगर से लटके कपडे का हवा मे लहराने सा आभास होता। उसके हमउम्र खेती बाडी मे अपनेआप को रमा चुके थे और जिगनेश को गप्पे लगा, खेती करना , गो सेवा आदि मे जी आनंद नही पाता। चिंतित पिता उसे एक दिन भीमा पहलवान के पास ले गए। अपने छोटे से अखाडे मे पिछले दस साल से पहलवान तैयार कर रहे भीमा भाई जिगनेश को देखते ही मुस्कुराने लगे। “इस तीतर को बाज बनाने की सोच रहे हो हेमेंद्र भाई।” ” यह कमजोर काया किसी काम नही आ रही, आप इसे अपनी शरण मे लेकर दुरूस्त कर दिजीए।” जिगनेश कुछ ना बोला , बस नजरे फिरा कर अखाडे का अवलोकन करता रहा।

अगले दिन सुबह पांच बजे अखाडे पंहुचा तो पांच छह बलिष्ठ लोग मुद्गल चलाते और दण्ड पेलते नजर आए। उसको देखते ही सब एकाएक रुक कर हंसने लगे। ” यह पतंग की डोरी कट कर गलत जगह आ गई दिखे” एक बोला।” भगवान हड्डी पर मांस चढ़ाना भूल गए शायद ” दुसरा ताना भी तुरंत आ गया। जिगनेश मुडकर लौटने ही वाला था कि भीमा भाई ने आकर कंधे पर हाथ रखा।” बहुत मेहनत करनी पड़ेगी , जाओ जा कर अपने कपडे उतार लो और लंगोट पहन कर आ जाओ। ” ” पर लंगोट तो मेरे पास नहीं है।” “आज अंडरवियर मे शुरू हो जाओ और कल से लंगोट पहन कर आना।” सख्त आवाज ने जिगनेश को आज्ञापालन के लिए मजबूर कर दिया और बाकि सब लोग भी अपने काम मे लग गए।

पहले दिन की वर्जिश से जिगनेश का बदन टूट गया। घर पंहुच कर सीधे बिस्तर पर पड गया। मां उसके लिए अजवाईन डाल सरसो का तेल गरम कर ले आई। जिगनेश को मालिश कर कुछ आराम आया। फिर हल्दी मिला दूध भी हाथ मे आते ही पी लिया। भूख भी तेज लगी थी। जल्दी से स्नान कर रसोई मे गया और रात की बची रोटी को दूध मे डालकर खा लिया। मां ने बहुत दिनो बाद उसकी जगी भूख को महसूस किया। खाते खाते उसने मां को लंगोट सिलने के लिए कह दिया और पेट की ज्वाला शांत कर दो घंटे के लिए बेसुध सो गया।

अगली सुबह बडी मुश्किल से ही सही पर अखाडे पंहुच गया। भारी कसरत करते पहलवानो को अब वो ढंग से देखता और अपनी पूरी क्षमता अनुसार करने का प्रयास करता। हफ्ते भर मे उसका शरीर नई बाडी क्लाक अनुसार ढलने लगा। अब उसका ध्यान दिनभर शरीर और कसरत पर रहने लगा। प्लास्टिक की चार बोतलो मे रेत भरकर और मुह गरम और जोडकर दो ड्मबल तैयार कर लिए थे , जिनसे वो खाली समय हाथो को मजबूत करने के काम मे लेने लगा। लकडी के पुराने पाटिए से उसने खुद ही कसरती बैंच तैयार कर ली। एक मजबूत बांस पर ईंटे बांधकर वेट ट्रेनिंग के लिए तैयार कर लिया। पुरानी साईकिल को एक कोने मे जुगाड कर स्थाई रूप से जमा दिया। रस्सी कूदने के लिए तो घर मे रस्सीयो की कमी नही थी। अपनी ऊंचाई के हिसाब से दो लकडी के हत्थे जोड़कर बढ़िया कूदने की रस्सी तैयार कर दी। कुए से पानी खींचने वाली पुरानी गिरारी को दालान मे नीम के पेड की टहनी पर बांध कर कसरत करने का नया तरीका खोज लिया। माता पिता उसे शांती से अपने काम मे रमा देख प्रसन्न होते और किसी चीज के लिए नही टोकते।

दो महीने की एकाग्र वर्जिश और खुराक ने जिगनेश की काया मे परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगा। चाल ढाल, व्यवहार, बातचीत मे अब आत्मविश्वास झलकने लगा। भीमा भाई और साथी पहलवान भी अब उसे कुश्ती के दांव पेंच समझाने लगे। उसको सब तीतर पहलवान बुलाते। हल्के और मजबूत शरीर मे फूर्ती के साथ ने उसे जल्दी उसे कुश्ती जीतने वाला पहलवान बना दिया।
सोनपुर मे हर वर्ष की भांति चैत्र नवरात्र मे बडा कुश्ती का आयोजन होता है। अट्ठारह वर्ष से कम उम्र के लिए, जीतने वाले को पांच हजार रूपये का ईनाम मिलना तय है। चार कुश्तिया शिद्दत से लडकर जीतने के बाद आखिर तीतर पहलवान को ही बडी ट्रॉफी के साथ पांच हजार रूपए मिले।

सालभर मे ही अब जिगनेश घर पर ही अनोखे जिमनेजियम मे युवाओ को स्वस्थ और आत्मविश्वासी बनाने के कार्य को अंजाम दे रहा है और स्वयं पूरी तरह से आत्मनिर्भर हो चुका है। घर के बाहर एक कोने मे बोर्ड लगा सबका ध्यान खींचना है – तीतर पहलवान जिम। कहानी संदीप पांडे, अजमेर,