कुदरत की घड़ी

nature's clock

संदीप पांडे ‘शिष्य

कुदरत ही हमारी पहली आत्मा है।कुदरत हमारे साथ तब से जुड़ जाती है जब हम इस जगत में अपनी पहली सांस लेते हैं। इसीलिए तो यह कहावत बहुत प्रचलित है कि ‘कुदरत की घड़ी देखकर चलने वाला हमेशा कुदरत जैसा सुंदर और चुस्त-दुरुस्त रहता है।’ फिर भी इस भौतिक जगत में कुदरत से अलग आदमी की रची कृत्रिमता हम सबका कुछ तो मन लुभा ही लेती है। यह सच है कि कुदरत की भीतरी चमक का कोई मुकाबला नहीं है। यह भौतिक जगत भले ही तेज बनकर अपनी मति और गति से चौंकाना चाह रहा है, लेकिन युगों से अपनी धुरी पर समान गति से घूमती धरती अनुशासन में रहने का वह संदेश प्रदान करती रही है, जो एक सार्थक जीवन का सार है, अपने अंदर बहुतेरी जीवंतता समेटे हुए।ऋतु चक्र हो या रात से बदलती सुबह, सभी अपने नियम से आते-जाते हैं। नियम में थोड़ा-सा भी बदलाव जीव-जंतुओं के लिए विपदा का कारण बन जाता है। वार्षिक औसत वर्षा में बीस फीसद की भी कमी रह जाए तो अकाल पड़ने लग जाता है। ग्रीष्म काल कम हो तो पेड़-पौधों का विकास अधूरा रह जाए और ज्यादा गर्मी हो जाए तो भी सब तरफ त्राहिमाम। कल्पना करना भी मुश्किल है कि सर्दी में भी गर्मी जारी रहे तो हिमनदों में जमी बर्फ पिघल कर समुद्र से जा मिले और फिर कितने थलचर जल समाधि लेने को मजबूर हो जाएं.इस सृष्टि में सब कुछ अपने आप नियम कर्म से घटित हो रहा है और मां स्वरूपा प्रकृति हमको पैदा होने के साथ ही अनुशासन का पाठ पढ़ाना प्रारंभ कर देती है। अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम इन पाठों को गहनता से ग्रहण करते हैं या लापरवाह विद्यार्थी की तरह सीखने से परहेज करते हैं। मुंह में दांत आना, बोलने में स्पष्टता, अपने पैरों पर चलना या समयानुसार शरीर में आने वाले बदलाव- सब समय अनुशासन में बंधे हैं। जैसे सूर्य के चारों ओर घूमते सभी ग्रह अपनी धुरी और गति में स्थिरता बनाए रखते हैं, वैसे ही विभिन्न चक्र समेटे शरीर, दिमाग रूपी सूर्य की ऊर्जा से हर प्राणीमात्र का जीवन आलोकित रहता है।

कुछ क्षणों का जीवन जीने वाले जीव हों या कई बार शतायु से भी ज्यादा जीवन जीने वाला मनुष्य, सब अपना नियमित जीवन जीने के लिए जन्म पाते हैं। जीने के सहज अनुशासन का भान प्रकृति खुद कराने में सक्षम है, पर अतिरिक्त दिमाग पाया इंसान जब प्राकृतिक नियम तोड़कर अपने नियम का पालन करना शुरू कर देता है तो महामारी और जलजलों का सूत्रपात होना शुरू हो जाता है। कुछ समय के लिए अपनी रंगत बिखेरते पुष्प हों या देर तक खिले रहने वाले गुलाब, सभी अनुशासित, लेकिन ‘जब तक जिओ खुल कर जिओ’ का संदेश प्रसारित करते हैं। ‘सहज पके सो मीठा’ की कहावत भी प्रकृति की समझ रखने वाले व्यक्ति की ही है। इंजेक्शन लगे सब्जी-फल का रूप-रंग बदल देना प्रकृति के अनुशासन में दखल ही है ।

जीवन-श्रृंखला को चलायमान रखने के लिए हर थलचर-नभचर और जलचर की तीन ही मूलभूत आवश्यकता है- भोजन, आश्रय और नवजीवन सृजन। एक परिवार को कुछ दिन पहले सुबह अपने कस्बे की सड़क पर घंटों खड़े होकर कुछ निहारते हुए देखा तो एक व्यक्ति ने अपनी मोटरसाइकिल चुपचाप एक खेत पर रोक ली और उन सबकी हरकत पर नजर रखने लगा। मगर उस समूह ने हांफते हुए उसकी ओर आकर कहा, ‘ओह, दोस्त यह क्या किया तुमने! तुम्हारी इस गाड़ी की तेज आवाज से वे खरमोर पक्षी हमारी नजरों से ओझल हो गए।’ उस व्यक्ति से जवाब देते नहीं बन रहा था। फिर उस परिवार ने कहा कि हर वर्ष मानसून में खरमोर पक्षी की अठखेलियां देखने और व्यवहार समझने के लिए वे यहां इस जगह आते हैं।

एक समय में ये पक्षी राजस्थान की विशेषता थे, पर अब ये संख्या में बहुत कम रह गए हैं। घास के मैदान इन पक्षियों के प्रजनन के लिए बहुत मुफीद स्थान हैं। वहां वे अंडे देते हैं और डेढ़-दो महीने बाद पलायन कर जाते हैं। राजस्थान के इस इलाके में रहने वाले सजग लोगों को भी शायद इस पर ध्यान नहीं जा पाता है कि खरमोर यहां इस तरह आते हैं और जीवन-तत्त्व हासिल कर चले जाते हैं। कहने का मतलब यह कि जलचर और नभचर तो प्रकृति के नियम से बंधे अपने जीवन का निर्वाह कर ही लेते हैं।
बस थलचर में मानव ही सबका स्वामी बनने के लालच में दूसरों के आश्रय मे सेंधमारी कर बहुत सारे जीवों को जीने के अधिकार से वंचित करने पर तुला है। यह प्रकृति के अनुशासन में दखल है और घातक परिणामों में भागीदारी है। विकास की अंधी दौड़ के बजाय प्रकृति से तालमेल बनाते हमें हर जीवमात्र के लिए जीने का अधिकार प्रदान करना होगा, अन्यथा प्रकृति की न्याय प्रणाली में सुनवाई का अवसर नहीं मिलता, भूकम्प, सुनामी, महामारी जैसे भयानक फैसले ही प्रसारित होते हैं।अब तो हम सबको जाग जाना चाहिए। यही हमारे लिए उचित है।