संदीप ठाकुर
क्या हमारी व्यवस्था को राज्यपाल पद की जरूरत है ? राज्यों में यदि
राज्यपाल न हाें ताे काैन सी आफत आ जाएगी। यह सवाल मौजूं इसलिए है कि देश
के कई राज्यों में राज्यपालों के पद लंबे समय से खाली पड़े हैं। प्रभारी
राज्यपालों से काम चल रहा है। कई केंद्र शासित प्रदेशों में उप राज्यपाल
और प्रभारी का पद भी खाली है। वहां भी प्रभारियों के जरिए काम चल रहा है।
जब कोई प्रशासनिक कामकाज रुकता नहीं तो फिर राज्यपाल की क्या उपयोगिता है
? वैसे भी अधिकांश राज्यों में राज्यपाल और मुख्यमंत्री में मधुर संबंध
तो रहे नहीं,ऐसे में प्रशासनिक कामकाज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। ताजा
उदाहरण दिल्ली का है जहां उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री में छत्तीस का
आंकड़ा है। ऐसे में सवाल उठने लगा है कि क्याें न राज्यपाल या उपराज्यपाल
की व्यवस्था समाप्त कर दी जाए।
देश के कई राज्यों में अभी राज्यपाल के पद खाली पड़े हैं। या फिर
कार्यवाहक राज्यपाल से काम चल रहा है। उपराज्यपाल पद से किरण बेदी के
इस्तीफा देने के बाद पिछले करीब दो साल से पुडुचेरी के उपराज्यपाल का पद
खाली है। उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदी बेन पटेल के भी पांच साल पूरे
हो गए हैं। वे जनवरी 2018 में मध्य प्रदेश की राज्यपाल बनी थीं और जुलाई
2019 में उनको उत्तर प्रदेश का राज्यपाल बनाया गया था। असम के राज्यपाल
जगदीश मुखी का कार्यकाल पूरा हो गया है। पिछले साल अक्टूबर में उनके पांच
साल पूरे हुए लेकिन वे अभी पद पर हैं और साथ ही विगत कई माह से नागालैंड
के राज्यपाल का एडिशनल प्रभार संभाल रहे हैं। इसी तरह अरुणाचल प्रदेश के
राज्यपाल बीडी मिश्रा का कार्यकाल पिछले साल अक्टूबर में पूरा हो गया।
लेकिन वे अपने पद पर हैं और साथ ही सत्यपाल मलिक के रिटायर होने के बाद
खाली हुए मेघालय का भी प्रभारी संभाल रहे हैं। इस तरह पूर्वोत्तर के चार
राज्य हो गए, जहां राज्यपाल की नियुक्ति होनी है। तेलंगाना की राज्यपाल
तमिलिसाई सौंदर्यराजन अतिरिक्त प्रभार संभाल रही हैं। इसी तरह अंडमान
निकोबार में एडमिरल आनंद कुमार जोशी का कार्यकाल पिछले साल अक्टूबर में
पूरा हो गया। लक्षद्वीप में दादरा नगर हवेली व दमन और दीयू के प्रशासक
प्रफुल्ल खोड़ा पटेल अतिरिक्त जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। पंजाब के
राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित ही चंडीगढ़ के भी प्रशासक हैं। कहीं प्रभारी
राज्यपालों से काम चल रहा है और कुछ जगह तो प्रभारी राज्यपाल का भी
कार्यकाल पूरा हो गया है। लेकिन सरकार का ध्यान नई नियुक्ति की तरफ है ही
नहीं।
राज्यपाल का इतिहास बताता है कि संविधान निर्माताओं ने केंद्र और
राज्यों के बीच संतुलन साधने वाले सेतु के रूप में इस पद को संवैधानिक
मान्यता दी थी। आज यह पद पूरी तरह से दया या कृपा नियुक्ति हो गया है।
राज्यों में अपना एजेंडा चलाने के लिए केंद्र सरकार द्वारा राज्यपालों को
इस्तेमाल किया जाने लगा है। पार्टियां राज्यों में अपने हिसाब से चलने
वाले वाले लोगों को राज्यपाल बनाने में लगी हुई हैं। किसी पार्टी में रहे
बुजुर्ग सदस्यों को, चाहे वे लायक हों या अयोग्य, राज्यपाल बना दिया जाता
है। किसी पार्टी के नेतृत्व के प्रति समर्पण ही इस पद पर बने रहने की
एकमात्र योग्यता हो गया है। ऐसे में अधिकांश राज्यों में राज्यपाल और
मुख्यमंत्री के बीच आपसी तालमेल का न सिर्फ घनघोर अभाव है बल्कि दाेनाें
एक दूसरे के साथ दुश्मन सरीखा व्यवहार करते हैं। वैसे मुख्यमंत्री और
राज्यपाल के बीच नहीं बनना कोई नई बात नहीं। अतीत काे कुरेदें काे पता
चलता है कि नरेंद्र मोदी और गुजरात की राज्यपाल कमला बेनीवाल का विवाद
सबसे ज्यादा सुर्खियों में रहा था। जब तक मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री
रहे, उनकी कमला बेनीवाल से कभी नहीं बनी। अपने साढ़े चार साल ज्यादा के
कार्यकाल में बेनीवाल ने ऐसे कई निर्णय लिए, जिनका मोदी ने विरोध किया।
वर्ष 2013 में गुजरात लोकायुक्त कमीशन विधेयक पर भी बेनीवाल और मोदी के
बीच काफी ठनी।
उत्तराखंड के राज्यपाल अजीज कुरैशी का मामला याद कीजिए। कुरैशी पर जब
केंद्र से इस्तीफे का दबाव पड़ा ताे वे इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चले गए।
अंतत: उन्हें उत्तराखंड से मिजोरम जाना ही पड़ा।
मिजोरम में छह माह में छह नए राज्यपाल बने। वर्ष 2014 की जुलाई में वीबी
पुरुषोत्तमन को उत्तराखंड से नागालैंड भेजा गया। उन्होंने विरोध जता
इस्तीफा दे दिया था। उन्होंने यह भी कहा था कि राज्यपालों को क्लर्क नहीं
समझा जाना चाहिए। इसके बाद गुजरात की राज्यपाल कमला बेनीवाल को 9 जुलाई
2014 को मिजोरम भेजा गया। वे एक महीने ही यहां रह पाईं कि उन्हें हटा
दिया गया। इसके बाद 8 अगस्त को पूर्व केंद्रीय गृह सचिव वीके दुग्गल को
मणिपुर से मिजोरम भेजा गया। 20 दिन बाद ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया। फिर
महाराष्ट्र के राज्यपाल के. शंकरनारायण को मिजोरम भेजा गया, लेकिन
उन्होंने भी इस्तीफा दे दिया। जनवरी 2015 में मिजोरम के 15वें राज्यपाल
के रूप में अजीज कुरैशी ने कार्यभार संभाला। ये चंद उदाहरण इस बात के
गवाह हैं कि विचारधारा के टकराव के कारण अधिकांश मामलों में राज्यपाल और
मुख्यमंत्री के बीच तालमेल नहीं बैठ पाता। वैसे भी राज्यपाल पद पर बैठे
व्यक्तियों से अपेक्षा की जाती है कि वे दलगत भावना से ऊपर उठकर काम
करेंगे। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में ही ऐसी कई घटनाएं घटित हाे चुकी हैं
जिसमें राज्यपालों पर पार्टी विशेष के पक्ष में काम करने के आरोप लगे
हैं। पद की गरिमा समाप्त हाे गई है। ऐसे में सवाल है कि क्याें न
राज्यपाल की व्यवस्था काे ही खत्म कर दिया जाए।