एमपी में गुजरात मॉडल का मतलब शिवराज फार्मूले में बदलाव।

नरेंद्र तिवारी

मध्यप्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव में गुजरात मॉडल अपनाए जाने का बहुत शोर सुनाई दे रहा है। ऐसी आवाजें भाजपा के अंदर से ही सुनाई दे रहीं है। गुजरात मॉडल का इतना हल्ला होने का मूल कारण भाजपा द्वारा 14 माह पूर्व गुजरात राज्य के मुख्यमंत्री सहित मंत्रिमंडल में व्यापक फेरबदल और फिर विधानसभा चुनाव में सत्ता विरोधी मतदान से बचने के लिए 5 मंत्रियों सहित करीब 36 मौजूदा विधायकों का टिकिट काट दिए जाने के क्रांतिकारी परिवर्तन के बाद ऐतिहासिक सफलता हासिल करना है। भाजपा नैतृत्व को लगता है, उक्त परिवर्तन गुजरात राज्य में सफल रहा जिसने सत्ता विरोधी लहर को खत्म करते हुए गुजरात मे बीजेपी की प्रचंड विजय का रास्ता तैयार किया है। गुजरात की प्रचंड विजय से प्रफुल्लित भाजपा आलाकमान और नेतागण इस मॉडल को पूरे देश मे अपनाने की बात कहने लगे है। भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने मध्यप्रदेश के हरदा में गुजरात मॉडल को पूरे देश मे लागू करने की बात कही। प्रदेश के मैहर विधानसभा के विधायक नारायण त्रिपाठी ने मध्यप्रदेश में गुजरात मॉडल को अपनाने की वकालत करतें हुए राष्ट्रीय अध्यक्ष को सत्ता और संगठन दोनों में गुजरात मॉडल लागू करने संबन्धी पत्र लिखकर दें डाला। अब सवाल यह उठता है कि मध्यप्रदेश में गुजरात मॉडल अपनाने को लेकर भाजपा संगठन से ही क्यों मांग उठ रही है ? क्या प्रदेश में 2003, 2008 ओर 2013 विधानसभा में सफलता का शिवराज फार्मूला अब विफल हो गया है ? क्या गुजरात मे चुनाव से 14 माह पूर्व मुख्यमंत्री सहित सम्पूर्ण मंत्रिमंडल को बदलने का प्रयोग एमपी में भी अपनाने पर विचार किया जा रहा है ? क्या विधानसभा चुनाव 2023 में सत्ता विरोधी लहर से निपटने के लिए कमजोर प्रदर्शन करने वाले मौजूदा विधायकों, मंत्रियों के टिकिटों को काटकर नए चेहरों पर दांव खेला जाएगा ? गुजरात मॉडल के प्रयोग की उठती मांगों के बीच इन प्रश्नों पर भी चर्चाओं का बाजार गर्म है। गर्म चर्चाओं के बाजार में मुख्यमंत्री का चेहरा बदलने की चर्चा भी जोरों पर चल रही है। मध्यप्रदेश में सबसे अधिक समय तक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज रहने वाले शिवराज सिंह का नैतृत्व क्या अब उतना प्रभावी नहीं रहा जितना विगत चुनावों में दिखाई दे रहा था। प्रदेश में शिवराज फार्मूले का कमजोर प्रदर्शन तो 2018 के विधानसभा चुनाव में ही दिख गया था। जब जनता ने शिवराज के नैतृत्व को अस्वीकार कर दिया था। काँग्रेस से ज्योतिरादित्य सिंधिया की नाराजगी ने भाजपा और शिवराज को पुनः मध्यप्रदेश राज्य की सत्ता पर काबिज करा दिया। याने 2018 में ही प्रदेश में काँग्रेस के मुकाबले कम सीट लाकर शिवराज फार्मूला असफल हो चुका था। दरअसल जनता में अब शिवराज के चेहरे का पुराना जादू कम होता जा रहा है।

मुख्यमंत्री के रूप में उनकी कार्यशैली में जनप्रतिनिधियों के स्थान पर प्रशासनिक अधिकारियों का हस्तक्षेप अधिक दिखाई देने लगा। भाजपा के विधायकों और सांसदों को अपने कार्यो के लिए जिला कलेक्टरों के भरोसे रहना पड़ रहा हैं। असल में विगत कुछ बरसों से शिवराज फार्मूले में संगठन के स्थान पर प्रशासन का हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है। दूसरा शिवराज सिंह की कार्यप्रणाली में मौलिकता का अभाव भी साफ दिखाई देने लगा है। शिवराज जैसे उदारवादी जनप्रिय मुख्यमंत्री में आक्रमकता हावी हो गयी है। यह उनकी मौलिक शैली में हुए बदलाव को प्रदर्शित करतीं है। जनता में अपने मुख्यमंत्री की बदली छवि बेहद कौतूहल का विषय बनी हुई हैं। प्रदेश में प्रशासनिक हस्तक्षेप की अधिकता के परिणाम स्वरुप सरकारी तंत्र में नेताओं का प्रभाव कम होता दिखाई दें रहा है। सरकारी दफ्तरों में भ्रष्टाचार का बोलबाला बढ़ता जा रहा है। काम कम घोषणाएं ज्यादा का चस्पा शिवराज सिंह पर लग चुका है।

अब जबकि 2023 में प्रदेश में विधानसभा का चुनाव होना है, शिवराज सिंह स्वयं और उनकी सरकार की गिरती साख प्रदेश में गुजरात मॉडल के प्रयोग की संम्भावनाओं को बढ़ा रहे है। सच यह भी है कि हर राज्य की अपनी परिस्थिति होती है। गुजरात में सफल रही भाजपा का कोई भी प्रयोग हिमालय में सफल क्यों नही हो पाया। क्यों दिल्ली के एमसीडी चुनाव में भाजपा आप से पीछे रह गयी। इस लिहाज से एमपी में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और राज्य सरकार की गिरती साख के बावजूद भी आक्रमकता से गुजरात मॉडल लागू करना कठिन भी होगा। एमपी में शिवराज फार्मूला ओर गुजरात मॉडल के बीच के रास्ता अपनाए जाने की अधिक सम्भावनाए दिखाई देती है। दरअसल मुख्यमंत्री के रूप में लंबे समय से काबिज शिवराज सिंह चौहान को बदलने के पूर्व एक नए चेहरे की तलाश भाजपा राष्ट्रीय नैतृत्व को करना होगी। एक ऐसा चेहरा जो प्रदेश के क्षेत्रीय नेताओं में संतुलन स्थापित कर सकें। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद प्रदेश के क्षेत्रीय नेताओं में संतुलन बनाने में काँमयाब रहें है।

इसलिए भी गुजरात फॉमूले को गुजरात जैसी आक्रमकता से मध्यप्रदेश में अपनाने की कम सम्भावना है। इसके बावजूद भाजपा का केंद्रीय नैतृत्व नवीन प्रयोग करने में किसी प्रकार का गुरेज नहीं करता है। केंद्रीय एजेंसियों के सर्वे सहित पार्टियों के निजी सर्वे में थोड़ी भी शंका होने पर वह किसी भी प्रयोग से नहीं हिचकेगी। वर्ष 2018 के परिणाम शिवराज सरकार की तुलना करने के बड़े आधार भी हो सकतें है। इसलिए जनवरी 2023 से मध्यप्रदेश की राजनीति काफी उथल पुथल से भरी रहने की संभावना है। आने वाला समय इस बात का साक्षी होगा कि एमपी के 2023 के चुनावी महासमर में भाजपा गुजरात मॉडल को अपनाएगी या शिवराज फार्मूले पर चलती रहेगी। एक तीसरा रास्ता भी है जो गुजरात मॉडल और शिवराज फार्मूले के मध्य का है। मतलब शिवराज बने रहेंगे कमजोर प्रदर्शन करने वाले मंत्री विधायकों को टिकिट नही दिया जाएगा। नवीन चेहरों को लेकर चुनावी महासमर में उतरा जाएगा। ताकि जनता के मध्य सरकार विरोधी रुख को बदला जा सकें। हर राजनीतिक दल चुनाव में विजय के लिए उतरता है। इस के लिए सभी प्रयोगों ओर फार्मूलों को अपनाया जाता है। जिस प्रयोग से चुनाव में सफलता प्राप्त हो उनका प्रयोग सबसे अधिक होता है। एमपी में भाजपा ने शिवराज फार्मूले से 2003, 2008, 2013 में सफलता प्राप्त की थी। यह फार्मूला 2018 में विफल रहा है। कांग्रेस पार्टी के आंतरिक विरोध के फलस्वरूप बनी शिवराज सरकार के पास अभी वर्षभर का समय हैं। क्या एक साल में शिवराज जनता में अपनी सरकार के प्रति विरोध को खत्म करने में काँमयाब होकर अपनी प्रासंगिकता को बनाए रखेंगे। इन प्रश्नों के जवाब 2023 के विधानसभा चुनाव में मिल सकेंगे। मध्यप्रदेश की राजनीति के लिहाज से आगामी वर्ष चेहरे, सत्ता ओर नैतृत्व परिवर्तन की संम्भावनाओं से भरा हुआ होगा।