सोनम लववंशी
साल 2017 में अक्षय कुमार अभिनीत एक फ़िल्म आई थी- टॉयलेट एक प्रेम कथा। इस फ़िल्म की कहानी ग्रामीण इलाकों में स्वच्छता के महत्व जैसे गंभीर मुद्दे पर प्रकाश डालती है, लेकिन आज़ादी के अमृत काल में भी अगर आधी आबादी को खुले में शौच के लिए जाना पड़े। फिर अमृत काल और सरकारी तंत्र पर सवालिया निशान खड़े होना लाज़िमी है। स्वच्छ भारत अभियान को शुरू हुए एक लंबा अरसा बीत गया है। इसके बावजूद आज़ादी के अमृत काल में 26 प्रतिशत अदालती परिसरों में महिलाओं के लिए टॉयलेट उपलब्ध नहीं है। जो यह सोचने पर मजबूर कर रहा है कि अगर अदालत परिसरों का यह हाल है तो फिर अन्य जगहों के हालात कैसे होंगे? टॉयलेट जैसी मूलभूत सुविधाएं एक सभ्य और संभ्रांत समाज की आवश्यकता है। ऐसे में सिर्फ़ स्वच्छ भारत अभियान का ढिंढोरा पीटने से हमारी जिम्मेदारी पूर्ण नहीं होगी। महिलाओं को टॉयलेट जैसी सुविधाएं मयस्सर करवाना समाज और सरकार की जिम्मेदारी में शामिल होना चाहिए।
आज हम देश के विकास में नित नए कसीदे पढ़ रहें हैं। जबकि हमारे ही देश की आधी आबादी आज भी खुले में शौच करने को मजबूर है। वैसे तो वर्तमान सरकार शौचालयों के निर्माण में अरबों- करोड़ों रुपये खर्च होने का दम्भ भी भरती है, लेकिन जब कोई रिपोर्ट आती है। फिर सच्चाई से सामना समाज और सरकार का होता है। आधुनिक भारत में भी महिलाएं शौचालय के लिए संघर्ष करने को मजबूर है, तो यह दुःखद स्थिति बयाँ करती है। आख़िर क्या वजह है जो वर्तमान समय में भी हमारे देश में सभी के लिए शौचालय उपलब्ध नहीं है। स्वच्छता तो मानव जीवन में बहुत जरूरी है और महिलाओं को विशेषकर घर की इज्ज़त से जोड़कर देखा जाता है। फिर उन्हें शौच के लिए बाहर भेजने में आख़िर क्या समझदारी कही जा सकती है? शौच जो हमारी दैनिक दिनचर्या का अहम हिस्सा है, लेकिन वर्तमान समय में दुनिया की एक बड़ी आबादी के पास स्वच्छता और उससे जुड़ी बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। पूरी दुनिया के लगभग 3.6 बिलियन लोगों के लिए शौचालय तक पहुंच आज भी नामुमकिन है। यहां तक कि सतत विकास लक्ष्य में भी साफ पानी और स्वच्छता की बात कही गई है और साल 2030 तक इस लक्ष्य को पूरा करने का प्रयास भी किया जा रहा है। लेकिन अभी भी पर्याप्त जागरूकता की कमी साफ नज़र आ रही है। यही वज़ह है कि महिलाएं अदालत परिसरों में भी शौचालय की सुविधाओं से वंचित रह जाती हैं।
इतना ही नहीं शौचालय हर परिवार की बुनियादी जरूरत है, लेकिन विडंबना देखिए टॉयलेट एक प्रेम कथा जैसी फ़िल्म के आने के पांच-छह साल बाद भी इसे लेकर ग्रामीणों क्षेत्रों में जागरूकता का अभाव है। गांवों में अब तक शौच के लिए बाहर जाने को स्वास्थ्य के लिए बेहतर माना जाता है। यही वजह है कि देश शौचालयों की कमी से जूझ रहा है। सरकार द्वारा स्वच्छ भारत मिशन जैसी योजनाओं के द्वारा जागरूकता लाने की तमाम कोशिशों के बावजूद लक्ष्य हासिल करने में लंबा वक्त लग रहा है। वैसे तो खुले में शौच करने में सभी को परेशानी होती है लेकिन महिलाओं को ज्यादा दिक़्क़तों का सामना करना पड़ता है। लोक-लज्जा के साथ ही सुरक्षा का ख़तरा भी बना रहता है। यही वजह है कि अब महिलाएं भी इस मुद्दे पर अपनी आवाज़ बुलंद कर रही है। बीते दिनों खुले में शौच के दौरान बलात्कार की घटना के बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने कहा कि यदि देश में शौचालय होंगे तो बलात्कार जैसी घटनाओं पर अंकुश लगेगा। ये सच है कि शौच के लिए महिलाओं को रात के अंधेरे में घर से बाहर जाना पड़ता है। ऐसी स्थिति में सुरक्षा का ख़तरा बना रहता है। कई बार देखा गया है कि ग्रामीण क्षेत्रों में शौच के लिए गयी लड़कियां बलात्कार का शिकार हो गई और यही वजह है कि पिछले कुछ सालों में शौचालय को लेकर महिलाओं ने घर परिवार से लेकर सरकारी सिस्टम तक लंबी लड़ाई लड़ी है। यहां तक कि कई बार तो महिलाओं ने अपने ससुराल तक आने से मना कर दिया। जब तक घर में शौचालय नहीं होगा तब तक ससुराल नहीं जाएंगी। ये कहानियां भी सोशल मीडिया पर देखने और सुनने को मिली।
प्रधानमंत्री मोदी ने साल 2019 में ही भारत को ‘खुले में शौच मुक्त’ घोषित कर दिया था। खुले में शौच मुक्त का सीधा सा मतलब है कि अब हमारे देश में लोग खुले में मल त्याग नहीं करेंगे। लेकिन अब भी न केवल ग्रामीण क्षेत्रों में बल्कि शहरी आबादी में भी लोग खुले में शौच करते देखे जा सकते हैं। खासकर सड़कों व रेल की पटरियों के किनारे, खेतों में यहां तक कि घर के बाहर खुले में लोग मल त्याग करते हैं। जो स्वच्छ भारत मिशन पर सवाल तो खड़े करता है। साथ ही सरकार और समाज की सोच पर भी करारा प्रहार करता है। एनएसएसओ की एक रिपोर्ट कि माने तो भारत के 71.3 प्रतिशत घरों में ही अब तक शौचालय बन पाएं हैं। ऐसे में सोचने वाली बात है कि जब शौचालय ही 100 प्रतिशत घरों में नहीं बने तो भारत पूरी तरह खुले में शौच से मुक्त कैसे हो गया? वैसे सवाल यह भी है कि क्या शौचालय का इस्तेमाल करने वाले गंदगी नहीं फैला रहे? सच तो यह है कि पर्याप्त सुविधाओं के अभाव के चलते ‘खुले में शौच मुक्त’ होना भी एक नयी समस्या को जन्म दे रहा है।
बात अगर प्रसिद्ध नारीवादी चिंतक एवं लेखक सिमोन द बोउवर कि करे तो उनका मानना था कि- “नारी पैदा नहीं होती बल्कि उसे नारी बना दिया जाता है”। हमारे देश की कुल आबादी में लगभग आधी हिस्सेदारी महिलाओं की है जो आज भी राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक रूप से वंचित और उपेक्षित है। देश को आजाद हुए सात दशक से अधिक होने को है। फिर भी महिलाओं को पर्याप्त हिस्सेदारी नहीं मिली है। आज भी महिलाओं को पितृसत्तात्मक समाज अपने पैरों की जूती ही समझता है तभी तो महिलाओं की परेशानी पुरुष प्रधान समाज को नज़र नहीं आती है। खासकर ग्रामीण क्षेत्रो में तो महिलाओं की स्थिति और भी ज्यादा दयनीय है। आज भी अपनी छोटी छोटी आवश्यकताओं के लिए पुरुषों पर ही निर्भर रहना ही महिलाओं की नियति बन चुकी है। महिलाओं की अपनी पीड़ा और अपना दर्द है जिसे मर्दवादी समाज दरकिनार कर देता है। फिर बात चाहे मासिक धर्म की हो या फिर खुले में शौच की? उसे अपनी पीड़ा स्वयं झेलना होता है। आज भी सार्वजनिक क्षेत्रों, मार्केटों में महिलाओं के लिए अलग टॉयलेट आसानी से उपलब्ध नहीं होते हैं। जो यह दर्शाता है कि महिलओं की नियति में संघर्ष हर क़दम पर है।
केंद्र सरकार की प्रमुख योजना स्वच्छ भारत अभियान के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय, विशेषकर जिला न्यायालयों में टॉयलेट (शौचालय) के नवीनीकरण और मरम्मत करने के लिए स्वच्छ न्यायालय परियोजना लॉन्च की गई थी। इस परियोजना को सभी 16,000 अदालत परिसरों में स्थित टॉयलेट को छह महीनों के अंदर बेहतर स्थिति में करने के लिए लॉन्च किया गया था। लेकिन दिल्ली में न्यायिक सुधार पर काम करने वाली स्वायत्त संस्था ‘विधि’ की सर्वे रिपोर्ट जिला अदालतों में महिलाओं के लिए शौचालयों की स्थिति पर गंभीर सवाल खड़े कर रही है। इस सर्वेक्षण में अदालत परिसरों में स्थित टॉयलेट की दयनीय स्थिति का खुलासा हुआ है। रिपोर्ट के अनुसार देश की 665 जिला अदालतों में से करीब 100 जिला अदालतें ऐसी हैं, जिनमें महिलाओं के लिए टॉयलेट की सुविधा उपलब्ध नहीं है। आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, जम्मू एवं कश्मीर, झारखंड, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, मणिपुर, नगालैंड, ओडिशा, पंजाब, पुडुचेरी, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल ऐसे राज्य हैं जिसके कई ज़िलों में तो अदालत परिसरों में महिलाओं के लिए टॉयलेट ही नहीं हैं। इस रिपोर्ट में कहा गया कि, “आंध्र प्रदेश में 69 प्रतिशत अदालत परिसरों में महिलाओं के लिए टॉयलेट नहीं हैं। ओडिशा में 60 प्रतिशत और असम में 59 प्रतिशत अदालत परिसरों में यही स्थिति है।” गोवा, झारखंड, उत्तर प्रदेश और मिजोरम ऐसे राज्य हैं जहां सबसे कम अदालत परिसरों में टॉयलेट हैं।
अब आप सोच सकते हैं कि यहां महिलाएं कैसे काम करती होंगी या रोज़ाना उन्हें कितना संघर्ष करना पड़ता होगा? सर्वे रिपोर्ट में बताया गया है कि आधे से ज्यादा जिला अदालतों में सुविधाओं का अभाव है। अब सवाल ये उठता है कि सरकार कोर्ट परिसर को अपडेट करने के लिए करीब 7000 करोड़ रुपये खर्च कर रही है। आखिर वो पैसे कहां खर्च किए जा रहे हैं? सर्वे के मुताबिक देश में सिर्फ 40 फीसदी जिला अदालतें ऐसी हैं, जहां पूरी तरह सर्वसुविधायुक्त महिला शौचालय मौजूद हैं। सर्वे के अनुसार देश की 100 जिला अदालतों में महिलाओं के अलग से शौचालय की सुविधा तो बिल्कुल भी नहीं है। जिला अदालतों की ऐसी स्थिति निश्चित तौर पर चिंताजनक है। महिलाओं के लिए तत्पर दिखने का दावा करने वाली सरकार इसे कितनी गंभीरता से लेती है। ऐसे में अब ये देखने वाली बात होगी?