प्रदीप शर्मा
ये विचित्र बात है कि जिन विषम परिस्थितियों में सरकारों को जिम्मेदार व जवाबदेह भूमिका निभानी चाहिए, उसमें वे असहाय नजर आती हैं। हर बार इसके लिये देश की शीर्ष अदालत को निर्देश देने पड़ रहे हैं। राज्य व देश में स्थितियां शांतिपूर्ण रहें और सार्वजनिक जीवन उपद्रवमुक्त हो, यह सरकारों का पहला कर्तव्य होना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता तो विधायिका और कार्यपालिका की भूमिका पर सवाल उठना लाजिमी है। हरियाणा के नूंह व अन्य स्थानों पर हुई हिंसा के बाद सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार समेत हरियाणा, उत्तर प्रदेश व दिल्ली की सरकारों को निर्देश दिये हैं कि घटनाओं के विरोध में होने वाले विरोध प्रदर्शन के दौरान सुनिश्चित किया जाये कि नफरती भाषण न होने पाएं। कोर्ट का मानना है कि विरोध प्रदर्शन और अपनी बात कहना हर नागरिक का हक है, लेकिन सीमाओं का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता।
कोर्ट ने संवेदनशील इलाकों में अतिरिक्त सुरक्षा बलों की उपस्थिति सुनिश्चित करने को भी कहा। साथ ही प्रदर्शन के दौरान वीडियोग्राफी करने के भी निर्देश दिये हैं ताकि उपद्रव करने वालों की शिनाख्त की जा सके। निस्संदेह, दोषियों को सजा दिलाने के लिये तथ्यों का प्रमाणीकरण बेहद जरूरी है। बदलते वक्त के साथ तकनीक के इस्तेमाल से हम अपराधियों की शिनाख्त बेहतर ढंग से कर सकते हैं। इस बात का ध्यान तो खुद पुलिस-प्रशासन के अधिकारियों को रखना ही चाहिए। इसके लिये हर बार कोर्ट की तरफ से निर्देश देने की जरूरत क्यों पड़ती है, यह तथ्य विचारणीय है। जाहिर है कानून व्यवस्था को बनाये रखना पुलिस व प्रशासन का विभागीय व नैतिक दायित्व भी है। एक तरह से जुलूस व प्रदर्शनों के जरिये आमतौर पर शक्ति प्रदर्शन ही किया जाता रहा है। लेकिन चिंता की बात यह है कि कालांतर में यह सब-कुछ अराजक तत्वों के हाथों में चला जाता है। फिर एक समय स्थिति इतनी विकट हो जाती है कि पुलिस-प्रशासन भी लाचार नजर आता है। जैसा कि नूंह में हुई हिंसा के बाद पुलिस अपना ही बचाव करती नजर आई।
निश्चित रूप से किसी भी समाज में हिंसा किसी मकसद का विकल्प नहीं हो सकती। ऐसे मौकों पर जनप्रतिनिधियों की जो महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए, वो अक्सर नजर नहीं आती। पुलिस को पहले से ही ऐसे प्रदर्शनों पर कड़ी निगाह रखनी चाहिए, तकनीक के जरिये उपद्रवियों की पहचान सुनिश्चित करनी चाहिए। सुरक्षा बलों की संख्या उपस्थित भीड़ की स्थिति देखकर तय की जानी चाहिए। विश्वास किया जाना चाहिए कि सुप्रीमकोर्ट के निर्देश के बाद अधिकारी अपने दायित्वों का जिम्मेदारी से निर्वाह करेंगे।
वहीं दूसरी ओर यह सवाल भी उठता है कि आजादी के अमृतकाल तक पहुंचने के बाद भी लोग इतने विवेकशील क्यों नहीं बन पाए हैं कि वे आसानी से नफरती बोलों के फेर में फंस जाते हैं? क्यों वे अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं करते हैं कि उनकी प्रतिक्रिया का समाज व देश पर क्या असर पड़ेगा? क्यों उन्हें अहसास नहीं होता है कि भड़काऊ बयानों से उन्हें भड़काकर राजनीतिक स्वार्थसिद्धि का उपक्रम जारी है। आज के दौर में जब कोरोना संकट से उबरे देश में रोजी-रोटी के संघर्ष जटिल हो गये हैं, हम क्यों इन संकीर्णताओं में उलझकर अपना व देश का नुकसान कर रहे हैं। लोगों को यह भी समझ में आना चाहिए कि हिंसा-नफरत का जवाब हिंसा-नफरत से नहीं दिया जा सकता।
समाज में शांति व सद्भाव की स्थापना जहां हर नागरिक का दायित्व है, वहीं उसके विकास के लिये भी जरूरी है। यह हमारे नागरिक कर्तव्यों में शामिल भी है। साथ ही ये हमारा नैतिक दायित्व भी है। हमारा यह दायित्व हर धर्म के नेता व राजनेता के विषैले बोलों के विरुद्ध होना चाहिए। अक्सर ऐसा भी होता है कि कई घातक बयान, जो मीडिया की सुर्खी नहीं बनते, वे अक्सर नजरअंदाज कर दिये जाते हैं। ऐसे किसी भी अभिव्यक्ति का अतिक्रमण करने वाले बयान का नोटिस लेकर शासन प्रशासन को स्वत: कार्रवाई करनी चाहिए। अब चाहे वह व्यक्ति किसी भी धार्मिक समूह या वैचारिक समूह का अगुवा क्यों न हो। कोर्ट, पुलिस-प्रशासन व सरकार से पहले यदि हम अपने नागरिक दायित्वों का निर्वहन करें तो हर जहरीले बोल नाकाम हो जाएंगे।