प्रोफ़ेसर हरेन्द्र सिंह असवाल
कबीर ने जब ये कहा -:
” संस्कीरत है कूप जल भाषा बहता नीर ”
कबीर साहब का , क्या यही मतलब रहा होगा ? उनका कहने का ये मतलब तो नहीं रहा होगा ,ज़रूर कुछ और रहा होगा , वह नहीं जो हम आज लगा लगा रहे हैं । हम से कुछ चूक हुई है । कबीर कोई तुक बाज नहीं थे । ज्ञान को आँधी कहने वाला सन्त संस्कृत को अगर कूप जल कह रहा था तो उसके पीछे उस समय के उन पंडों , पुरोहितों का विरोध था , भाषा के रूप में संक्कृत का नहीं । लेकिन जैसे कबीर जिन बातों के विरोधी थे उनके पंथियों ने उन्हीं बातों को लेकर कबीर पंथ खड़ा कर दिया वैसे ही उनकी बातों का ,शिक्षा का भी ग़लत अर्थ लगा लिया गया और संस्कृत भाषा का विरोध किया जाने लगा । संस्कृत जब वैदिक संस्कृत से आगे बढ़ी तो लौकिक संस्कृत कहलाई । लौकिक का अर्थ ही होता है लोक की । तब वह आगे क्यों नहीं बढ़ पाई ? ऐसे कौन से कारण थे जिनके कारण संस्कृत जनता से दूर होती गई ? बहुत सी बातें कही जा सकती हैं जैसे कि वह कर्मकांड की तरफ मुड़ गई , या उस पर कुछ लोगों का स्वामित्व हो गया , या अब वह लोक की चिंता की जगह परलोक की चिंता करने लग गई , ज्ञान की जगह वह कर्म कांड की सीमा में जकड़ने लग गई , वर्ण व्यवस्था ने उसे अपना हथियार बना लिया , व्याकरण की बन्दिशों ने उसे बाँध लिया , वह कुछ लोगों की रोज़ी रोटी की का शिकार हो गई या वह पुराणपंथी अवतारवाद के कारण ख़ुद मरणासन्न हो गई । कुछ भी कहा जा सकता है । लेकिन कुछ तो हुआ ही है । वरना आगे बढ़ने वाली भाषा विलुप्त नहीं हो सकती थी । जिस भाषा में लिखा हुआ ज्ञान समय की सभी सीमाओं को तोड़ता हुआ आज भी जीवन्त और प्रासंगिक है वह भाषा कैसे पीछे छूट गई जबकि उसकी लिपि बनी हुई है ? इन तमाम प्रश्नों की तलाश में मन व्याकुल हैं । बहुत से आचार्यों का मानना है संस्कृत जब लोक से दूर हुई तो पालि भाषा ने उसका स्थान लिया , तो क्या पालि ही संस्कृत के विनाश का कारण बनी ? बुद्ध के वचन पालि में हैं तो क्या पालि भाषा बुद्ध से पहले लोक में स्थान बना चुकी थी ? यदि यह सत्य है तो बुद्ध का समय ईसा से पांच सौ साल पहले ठहरता है जबकि संस्कृत वैयाकरण के आचार्य पाणिनी और उनका ग्रन्थ अष्टाध्यायी ईसा पूर्व छटी सातवीं शताब्दी का ही माना जाता है , तब इन दो सौ सालों में ऐसा क्या हुआ कि संस्कृत भाषा लोक से उठ गई ? लौकिक संस्कृत के अधिकांश ग्रन्थ इसके बाद लिखे गये , इसी समय में पुराणों की रचना हुई , तब संस्कृत भाषा जन मानस के कंठ से क्यों उठ गई ?
एक बात जो मेरे समझ आती है वह यह कि यह समय बड़े विद्रोह का समय लगता है । तमाम गणराज्य आपस में लड़ – भिड़ रहे थे । धार्मिक कर्म कांडों की वजह से जनता भी वर्ण व्यवस्था से आहत थी । कहीं ये तो नहीं हुआ कि जनता का विद्रोह भद्र लोक की उस भाषा से भी विद्रोह करने लगा था । इस बात को हम यों भी समझ सकते हैं जैसे वर्तमान समय में दलित साहित्यकारों की भाषा पर बहुत से लोग ये आरोप लगाते हैं कि उनकी भाषा भद्रलोक की भाषा नहीं है , उनका जबाब देते हुए मराठी के मूर्धन्य दलित साहित्यकार लिंबाबे ने ठीक कहा कि जो भाषा मुझे बचपन से मिली मैं उसी भाषा में लिखता हूँ वह भद्रलोक हमें नहीं मिला तो हम वह भद्रलोक की भाषा कहाँ से लाएँ । भाषा की सबसे महत्वपूर्ण बात यही है कि वह गढ़ी नहीं जा सकती , अगर गढ़ भी ली जाये तो चल नहीं सकती , चल भी जाये तो उसमें लोकजीवन का सत्य उद्घाटित नहीं हो सकता । इसी तरह स्त्री विमर्श वाले भी अपनी भाषा को अलग मानते हैं । कई बार विरोध के स्वर इतने मुखर हो जाते हैं कि वह विरोधी की हर बात का विरोध करने लगते हैं चाहे वह उनके हित की ही क्यों न हो । एक कहावत है कि जिसके गाँव ही नहीं जाना उसका नाम ही क्या लेना , ऐसा ही कुछ हुआ होगा । भद्र लोक का विरोध करते – करते संस्कृत का भी विरोध हो गया आख़िर ईश्वर का ख़्वाब दिखाने वाली भाषा ने जब मनुष्य को ताक पर रख दिया , बल्कि मनुष्यों के दुख – दर्द का कारण बन गई तो , परिणाम प्रतिकूल निकलना स्वाभाविक था ।
कारण जो भी रहा हो , संस्कृत लोक जीवन से उठ गई । संस्कृत उठ गई कहने से अच्छा होगा मैं यह कहूँ कि वह जम गई । जैसे वर्षों पहले हिमालय जम गया था वैसे ही । लेकिन जो जमेगा वह पिघलेगा भी जैसे हिमालय जमने के बाद जब पिघलने लगा तो अनेक रूपों में बहने लगा । उसी संस्कृत साहित्य ने हमें बताया कि हिमालय से निन्यान्वे नदियाँ निकलती हैं । ठीक उसी तरह जमी हुई संस्कृत से अनेकों बोलियों का जन्म हुआ । उन्हीं में सबसे बड़ी बोली हिन्दी बन गई जैसे कई छोटी – छोटी नदियाँ मिलकर गंगा बनती हैं उसी तरह कई बोलियाँ मिलकर हिन्दी बन गई । वह पूरे उत्तर भारत की प्राणधारा के रूप में बह रही है । जिस तरह से गंगा जड़ हिमालय से पिघल कर अनेक नदी नालों के रूप में बह कर आगे बढ़ी और फिर सब मिलकर गंगा बनी उसी तरह से अनेक बोलियाँ संस्कृत से निकल कर हिन्दी रूपी गंगा का रूप धारण कर लेती हैं । इसी लिए मैंने इसे हिमालय है संस्कृत और हिन्दी गंगा नीर कह कर पुकारा है । मुझे ऐसा सूझा है आप भी सोचना शायद आपको इससे भी बेहतर सूझे । हमें समझ की नदी को बनाए रखना है , किसी भी विचार को मरने नहीं देना है । भाषा और विचारों के मरने से संस्कृति मरती है ।