- विदेशी कोच से बेहतर हैं, हमारे देशी भारतीय कोच
- भारतीय हॉकी के लिए आने वाला समय बहुत मुश्किल
- निराशाजनक प्रदर्शन पर विदेशी कोच की जवाबदेही तय की जानी चाहिए
- विदेशी भारत की कोचिंग टीम में सलाहकार तक ही बेहतर
सत्येन्द्र पाल सिंह
नई दिल्ली : भारत की 1980 में मास्को में आठवीं और अंतिम बार ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतने तथा 1982 में बॉम्बे(मुंबई) एफआईएच हॉकी विश्व कप में सबसे ज्यादा 12 गोल करने वाले पेनल्टी कॉर्नर विशेषज्ञ राजिंदर सिंह सीनियर बतौर कोच भी खासे कामयाब रहे। बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि राजिंदर सिंह सीनियर को ही 2004 के एथेंस ओलंपिक शुरू होने के महज 24 दिन पहले चीफ कोच के पद से हटाकर उनके सहायक रहे जर्मनी के गेरहर्ड राख को भारत का पहला विदेशी कोच नियुक्त किया गया था। बतौर चीफ कोच राजिंदर सीनियर ने अपने मार्गदर्शन में भारत को 2001 में जूनियर हॉकी विश्व कप जिताया । तब तत्कालीन अब भंग भारतीय हॉकी संघ (आईएचएफ) ने उन्हें अगले साल सीनियर भारतीय हॉकी टीम का कोच नियुक्त कर दिया था। भारत ने राजिंदर सी. के मार्गदर्शन में तब ऑस्ट्रेलिया में खिताब जीतने के बाद जर्मनी में हैम्बर्ग मास्टर्स खिताब और पहली बार एशिया कप और अफ्रो एशियन खेलों में हॉकी खिताब जीता। 2004 के शुरू में भारत के ढीले प्रदर्शन के चलते एथेंस ओलंपिक से ठीक चलते राजिंदर सी. को चीफ कोच के पद से हटा दिया। तब दिलीप टिर्की की कप्तानी और चीफ कोच गेरहार्ड राख के मार्गदर्शन में भारतीय टीम 2004 में तब एथेंस ओलंपिक में सातवें स्थान पर रही थी। भारत ने 2004 से लेकर 2023 तक गेरहार्ड राख(जर्मनी) से लेकर ग्राहम रीड तक बीते करीब दो दशक में भारत ने नौ विदेशी कोच अब तक आजमाए हैं। अफसोस आठ बार के ओलंपिक चैंपियन भारत के हाथ पिछले दो दशक में ग्राहम रीड के मार्गदर्शन में टोक्यो में महज कांसा को विदेशी कोच को टीम की बागडोर सौंपने के बावजूद कुछ हासिल नहीं हुआ है। राजिंदर सिंह हॉकी इंडिया की कार्यशैली से खासे खफा हैं। ऑस्ट्रेलिया के ग्राहम रीड के भुवनेश्वर-राउरकेला में 15 वें एफआईएच पुरुष हॉकी विश्व कप में संयुक्त रूप से नौवें स्थान पर रहने के बाद भारत के चीफ कोच पद से इस्तीफा देने के बाद फिर विदेशी कोच को टीम की बागडोर सौंपने की चर्चाओं के बीच राजिंदर सिंह सीनियर से चंडीगढ़ से खास बातचीत।
भारत के बीते करीब दो दशक में नौ विदेशी कोच को आजमाने के बावजूद टोक्यो ओलंपिक में 41 बरस के बाद कांसा जीतने को छोड़ बड़े मंच पर पदक को तरसने पर आप क्या कहेंगे?
पिछले दो दशक में भारत द्वारा आजमाए विदेशी कोचों का कार्यकाल अधिकतम दो बरस ही रहा। उपलब्धि के नाम पर आठ बार के ओलंपिक चैंपियन भारत के हाथ पिछले दो दशक में ग्राहम रीड के मार्गदर्शन में टोक्यो में महज कांसा ही हासिल हुआ। मैं हॉकी इंडिया की भारतीय हॉकी टीम के लिए विदेशी कोच को नियुक्त करने की नीति को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ‘मेक इन इंडियाÓ के नारे एकदम उलट मानता हूं। अब तक हमारे जो भी विदेशी कोच आए अंतर्राष्टï्रीय हॉकी मंच नर उपलब्धि के नाम पर उनसे कमोबेश हमें आशा की जगह निराशा ही अधिक हाथ लगी है। मेरा मानना है कि हॉकी इंडिया के पास भारतीय हॉकी को आगे ले जाने के लिए कोई रोडमैप नहीं है। हॉकी इंडिया को न तो यह मालूम है कि उसे भविष्य के लिए किस तरह अपने खिलाड़ी तैयार करने है। हॉकी इंडिया ने इस बाबत तो गंभीरता से कभी सोचा है कि अपने देशी भारतीय कोचों को भी तैयार करना किया जाए। देशी कोच अपने भारतीय खिलाडिय़ों के मिजाज से अच्छे से वाकिफ होते है। मेरा साफ तौर पर मानना है कि विदेशी कोच से आज भी हमारे अपने भारतीय यानी देशी कोच बेहतरं हैं। विदेशी कोच भारत में महज पैसा बनाने आते हैं। अंग्रेजी में दो शब्द बोल अपना करार पूरा कर चले जाते हैं। विदेशी कोच के लिए भारत का कोच पद महज ‘नौकरीÓ से ज्यादा कुछ नहीं है। भारत के निराशाजनक प्रदर्शन के लिए टीम के विदेशी कोच की जवाबदेही तय की जानी चाहिए। अपने देशी भारतीय हॉकी कोच को हॉकी इंडिया विदेशी कोच जैसी तवज्जो ही नहीं देती। अब भी यदि भारतीय हॉकी टीम के लिए जल्द ही कोई विदेशी कोच ही आता है तो भले ही हम एशियाई खेलों में खिताब जीत 2024 के पेरिस ओलंपिक के लिए उसके मार्गदर्शन में सीधे क्वॉलिफाई कर जाएं लेकिन टीम के इसमें बहुत आगे तक जाने की मुझे उम्मीद कम है।
तो फिर हॉकी इंडिया और भारत को क्या करना चाहिए?
मेरा शुरू से ही मानना है कि भारत का चीफ कोच देशी ही होना चाहिए। विदेशी को सलाहकार के रूप में ही रखना हमारे लिए बेहतर होगा। हॉकी इंडिया और इससे पहले तत्कालीन अब भंग भारतीय हॉकी संघ (आईएचएफ) ने भारत में देशी कोच को तैयार करने के लिए कोई रणनीति ही नहीं बनाई। हमें एनआईएस से बतौर हॉकी कोच पास करने वाले कोच को तैयार करने के लिए विस्तृत योजना बनाने की जरूरत है। मेरा मानना है कि हमारे देशी भारतीय कोच विदेशी कोच से बेहतर हैं। भारतीय हॉकी के लिए आने वाला समय बहुत मुश्किल है, बेहतर होगा हॉकी इंडिया सतर्क हो जाए। भारतीय हॉकी को जिंदा रखने के लिए उसे भारतीय हॉकी को आगे ले जाने और इसके हित की सोचने वाले पुराने खिलाडिय़ों की समिति बना कर निरंतर समीक्षा करनी चाहिए।
तो विदेशी की सेवाओं का भारत किस तरह बेहतर इस्तेमाल कर सकता है?
मैं मानता हूं कि विदेशी भारत की कोचिंग टीम में सलाहकार तक ही बेहतर है कोच के रूप में नहीं। हॉकी इंडिया के लेवल एक या दो से आप बढिय़ा कोच तैयार नहीं कर सकते हैं। नीदरलैंड के रोलेंट ओल्टमैंस और फिर डेविड जॉन ने भारतीय हॉकी के डायरेक्टर हाई परफॉर्मेंस और कुछ समय अंतरिम कोच के रूप में कुछ नहीं किया। रिक चाल्र्सवर्थ 2008 में बमुश्किल दो महीने भारतीय हॉकी के तकनीकी निदेशक रहे और तत्कालीन आईएचएफ के अध्यक्ष केपीएस से गिल से पटरी न बैठने पर इस पद को छोड़ दिया। अब चाल्र्सवर्थ 70 बरस के हैं और फिर हॉकी इंडिया द्वारा अपने साथ जोडऩे की चर्चा है। चाल्र्सवर्थ अब फिर भारतीय हॉकी से किसी भी रूप में जुड़े तो भी इससे हमारी हॉकी कुछ होगी यह सुधरेगी मुझे संदेह है। हॉकी इंडिया से यहां सवाल किया जाना चाहिए कि ओल्टमैंस ने डायरेक्टर हाई परफॉर्मेंस सहित देशी यानी भारतीय कोचों को तैयार करने के लिए क्या कुछ किया। हॉकी इंडिया को बतौर चीफ कोच या डायरेक्टर हाई परफॉर्मेंस पद के लिए अच्छा प्रेजेंटेशन देने किसी के श्रेष्ठï होने का पैमाना नहीं हो सकता।
भारतीय हॉकी की मौजूदा स्थिति और आगे प्रतिभाओं को तैयार करने के लिए हॉकी इंडिया की योजना आपकी निगाह में ?
बात कड़वी जरूर, लेकिन सच है कि हॉकी इंडिया की राज्य इकाइयों का ध्यान ग्रासरूट से प्रतिभाओं को तलाशने की बजाए अपने निजी हित साधने पर ही लगा है। भारतीय पुरुष टीम अपने मौजूदा खिलाडिय़ों के बूते 2024 के ओलंपिक तक चल भी जाने के बाद आगे 2028 के ओलंपिक के लिए हॉकी खिलाड़ी और प्रतिभाएं कहां से आएंगी। आप विदेशी कोच तो ले फिर ले आएंगे लेकिन खिलाड़ी कहां से आएंगे। हॉकी इंडिया को इस बात को समझना होगा कि भारतीय हॉकी को जिंदा रखना है तो जमीनी स्तर पर देश में उन प्रदेशों पर करीबी निगाह रखनी होगी जहां आज भी हॉकी जमीनी स्तर पर खेली जाती है। 2028 के ओलंपिक खेलों के मद्देनजर भारत और हॉकी इंडिया को अभी से रणनीति बनानी होगी । बदकिस्मती यह है कि देश में जो भी घरेलू टूर्नामेंट थे उनका क्रेज लगभग खत्म हो गया और इसके लिए बेशक हॉकी इंडिया ही जिम्मेदार है। भारतीय हॉकी टीम के लिए इतने लंबे शिविर लगते हैं कि राष्टï्रीय टीम में खेलने वाले खिलाड़ी न तो घरेलू टूर्नामेंट और न ही अपने संस्थान के लिए इन टूर्नामेंट में खेलने के लिए आ पाते हैं। इससे देश के पुराने नामी गिरामी टूर्नामेंट अपनी चमक खो बैठे हैं।