प्रदीप शर्मा
राहुल गांधी ने अपनी हाल की लंदन यात्रा के दौरान जिस तरह से भारतीय लोकतंत्र पर सवाल उठाए, उससे भाजपा समर्थक नाराज हैं। जबकि उन्हें तो खुश होना चाहिए। क्योंकि राहुल और कांग्रेस जितने मजबूत होते जाएंगे, उतना ही संयुक्त विपक्ष कमजोर होगा।
इसका कारण यह है कि आज देश का विपक्ष बंटा हुआ है। एक तरफ कांग्रेसनीत यूपीए है, जिसके साथ उसके पुराने गठबंधन सहयोगी यानी शरद पंवार की राकांपा, एमके स्टालिन की डीएमके और सीताराम येचुरी की सीपीआई-एम हैं। वे 2024 में राहुल को महागठबंधन के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की तरह देखना चाहते हैं।
दूसरी तरफ ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल जैसे महत्वाकांक्षी क्षेत्रीय नेता हैं, जो राहुल का विरोध करते हैं। कुछ ऐसे भी हैं, जिन्होंने अभी तक अपने पत्ते नहीं खोले हैं और जिनका ध्यान अपनी जमीन बचाने पर ज्यादा केंद्रित है, जैसे जगनमोहन रेड्डी, नवीन पटनायक, अखिलेश यादव। ये सभी चिंतित हैं कि राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस उनकी सम्भावनाओं को क्षति पहुंचा सकती है। और इससे सीधे तौर पर भाजपा को लाभ होगा।
इसका कारण यह है कि राहुल एक राष्ट्रीय नेता के रूप में जितने मजबूत होंगे, उतना ही विपक्षी एकता का इंडेक्स कमजोर नजर आएगा। इसके आसार न के बराबर हैं कि ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल से राहुल एकमत हो सकेंगे। अगर विपक्ष को 2024 का चुनाव जीतना है तो उसे एकजुट होना पड़ेगा, लेकिन मोदी को चुनौती देने वाले नेता के तौर पर राहुल का उभार विपक्ष को एक नहीं करेगा, उलटे उन्हें बांट देगा।
तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर का ही उदाहरण लें। वे दोनों तरफ से खेल रहे हैं। बीते चार सालों से वे कांग्रेस के तीखे आलोचक रहे हैं, लेकिन ईडी के द्वारा उनकी बेटी पर लगाए आरोपों के बाद उन्होंने कांग्रेस से सुलह करना बेहतर समझा, फिर चाहे यह अल्पकालिक ही क्यों न हो।
कारण, जिस शराब घोटाले में उनकी बेटी कविता का नाम आया है, उसके तार आम आदमी पार्टी से जुड़े हैं, ऐसे में अब उन्हें आम आदमी पार्टी की प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस की मदद लेने की जरूरत महसूस हो रही है। संसद में महिला आरक्षण विधेयक पर जिस तरह से कविता ने सोनिया गांधी का सहयोग करने का प्रस्ताव रखा, वह इसी ओर संकेत करता है। यह स्थिति तब है, जब तेलंगाना में केसीआर का सीधा टकराव कांग्रेस पार्टी से ही है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2024 के चुनावों का महत्व समझते हैं। यही कारण है कि उन्होंने इसकी तैयारी के लिए पहले ही देशभर में लगभग सौ रैलियों की तैयारी कर ली है। ये आम चुनाव ऐतिहासिक साबित होने जा रहे हैं, क्योंकि अगर मोदी जीतते हैं तो वे जवाहरलाल नेहरू के बाद दूसरे ऐसे नेता बन जाएंगे, जो लगातार तीन बार प्रधानमंत्री चुने गए।
नेहरू 1952, 1957 और 1962 में चुनाव जीते थे, लेकिन अपना तीसरा कार्यकाल पूरा नहीं कर सके थे। इंदिरा गांधी भी तीन बार प्रधानमंत्री चुनी गई थीं, लेकिन वे लगातार तीन बार प्रधानमंत्री नहीं बनी थीं। 1967 और 1971 में प्रधानमंत्री चुने जाने के बाद वे 1977 में चुनाव हार गई थीं। फिर 1980 में प्रधानमंत्री बनीं।
गांधी परिवार और अन्य क्षेत्रीय दलों को यह चिंतित करता है कि अगर मोदी 2024 में भी जीत गए तो इससे उनके भविष्य की सम्भावनाओं को अपूरणीय क्षति होगी। अनेक पार्टियों के प्रमुख अब उम्रदराज हो रहे हैं। शरद पवार 81 के हो चुके हैं। 2029 में वे 87 के होंगे।
उनके बाद बहुत सम्भव है कि राकांपा अजित पवार और सुप्रिया सुले के धड़ों के बीच विभाजित हो जाए। नवीन पटनायक भी 76 के हैं और उनका कोई उत्तराधिकारी नहीं है। सोनिया 76 की हैं और स्वास्थ्य-सम्बंधी समस्याओं से जूझ रही हैं। 2029 में वो 83 की होंगी। खुद राहुल और प्रियंका गांधी 2029 में 60 के करीब होंगे। 2024 की शिकस्त उनका और उनके कार्यकर्ताओं का मनोबल तोड़ने वाली हो सकती है।
नरेंद्र मोदी को हराने के लिए विपक्ष को महत्वपूर्ण राज्यों में उनके जनाधार को काटना होगा। 2014 और 2019 में भाजपा ने अनेक बड़े राज्यों में कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया था, जबकि उनमें से कुछ में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को जीत मिली थी। लेकिन लोकसभा चुनाव में अगर नरेंद्र मोदी के सामने राहुल गांधी प्रबल दावेदार के रूप में खड़े होते हैं, तो इससे विपक्ष की एकता पर नकारात्मक असर पड़ना तय है।
2024 के चुनावों के परिप्रेक्ष्य में विपक्षी दलों के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती यही है कि अपनी एकता को कायम रखते हुए नरेंद्र मोदी को चुनौती देने वाले किसी एक नाम पर परस्पर सहमति कैसे बनाएं।