बिहार में जाति है की जाती नहीं ! जातीय जनगणना के आगे अब क्या?

प्रदीप शर्मा

यह अनुमान पहले से ही था कि आम चुनाव से पहले तीसरी बार सत्ता के लिये मैदान में उतरे राजग के विजय रथ को रोकने के लिये विपक्ष कोई बड़ा दांव खेलेगा। पिछले दिनों विपक्षी गठबंधन में एकजुटता की कवायद इसी कड़ी का हिस्सा था। बहरहाल, गांधी जयंती पर बिहार में बहुप्रतीक्षित जातीय जनगणना के परिणामों की घोषणा को विपक्ष के बड़े दांव के रूप में देखा जा रहा है। अब नीतीश सरकार की पहल की तर्ज पर दूसरे राज्यों में जातीय गणना की मांग की जा रही है। देश में नब्बे साल बाद हुई जाति आधारित गणना के परिणाम आशा के अनुरूप ही हैं, जिसमें अत्यंत पिछड़ा वर्ग 36 फीसदी भागीदारी के चलते बिहार का सबसे बड़ा सामाजिक वर्ग है। इसके बाद पिछड़ा वर्ग 27.13 फीसदी के साथ दूसरे स्थान पर है। जाहिर है ये बड़ा वोट बैंक चुनाव परिणामों में निर्णायक भूमिका निभा सकता है।

दूसरे शब्दों में नीतीश कुमार ने भाजपा की वैचारिक राजनीति के मुकाबले के लिये पहचान की राजनीति का जाति कार्ड खेलने का प्रयास शुरू कर दिया है। एक बार फिर मंडल बनाम कमंडल की तर्ज पर राजनीतिक मंच की तैयारी शुरू हो गई है। भले ही सुप्रीम कोर्ट 6 अक्तूबर को बिहार में जातिगत सर्वेक्षण को मंजूरी देने वाले पटना उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करेगा, लेकिन इस जाति आधारित जनगणना ने देश में एक नया राजनीतिक विमर्श तो पैदा कर ही दिया है। उल्लेखनीय है कि पिछले महीने कांग्रेस ने महिला आरक्षण विधेयक में ओबीसी उप-कोटा की वकालत की थी। साथ ही महिलाओं को उनकी आबादी के हिसाब से उचित अधिकार देने हेतु जाति-आधारित जनगणना की जरूरत बतायी थी। जिसके जवाब में प्रधानमंत्री ने कहा था कि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार गरीबों का है, उनके पास सबसे बड़ी आबादी है। बहरहाल, विभिन्न जातियों के लिये आबादी के हिसाब से कोटा संशोधन की मांग उठने लगी है।

वास्तव में आरक्षण से सामाजिक न्याय का लक्ष्य तभी पूरा होगा जब इसका लाभ क्रीमी लेयर तक सीमित रखने के बजाय वास्तविक वंचितों को मिलेगा। सामाजिक न्याय की अवधारणा तभी फलीभूत होगी जब वोटबैंक की राजनीति को न्यायसंगत लोककल्याण पर हावी न होने दिया जाएगा। फिक्र यह भी कि वोट बैंक के लिये जिन जातीय समीकरणों को उभारा जा रहा है, उसके चलते जाति संघर्ष के तमाम अप्रिय दृश्य उत्पन्न न हों। बहरहाल, पिछले एक दशक से सेकुलर राजनीति को विस्थापित करती जो राष्ट्रवादी राजनीति देश पर हावी प्रतीत हो रही थी, उसे जाति के दांव के जरिये चुनौती देने की कोशिश हुई है।

निस्संदेह इसका प्रभाव आसन्न राजनीतिक समीकरणों पर दिखेगा। अब दूसरे राज्यों में भी ऐसी जाति आधारित जनगणना की मांग विपक्ष करेगा। इंडिया गठबंधन इसके जरिये बढ़त की कोशिश करेगा क्योंकि बिहार में सूत्रधार जेडीयू-आरजेडी इसके घटक हैं। हालांकि, आम चुनाव आते-आते राजनीतिक परिदृश्य में बहुत कुछ बदलेगा, राष्ट्रीय नेता के रूप में नरेंद्र मोदी की स्वीकार्यता अच्छी-खासी है। हम न भूलें कि 2023 का भारत बीसवीं सदी के मंडल दौर से काफी आगे निकल चुका है। मतदाता की शिक्षा, सोच व मतदान का व्यवहार कई अन्य चीजों से भी प्रभावित होता है। वैसे बेहतर होता कि जनगणना के आंकड़े महज जातीय संख्या के बजाय इन जातियों की वास्तविक आर्थिक स्थिति को दर्शाते। ताकि पता चलता कि वास्तव में कौन जाति सबसे ज्यादा पिछड़ी है और किसे अधिक संबल की जरूरत है।

आंकड़ों का एक निहितार्थ यह भी है कि यदि राज्य में 84 फीसदी आबादी को किसी न किसी तरह का आरक्षण मिलता रहा है तो इनकी स्थिति में अपेक्षित सुधार क्यों नहीं हुआ? राजग नेताओं का यह सवाल भी वाजिब है कि लालू-नीतीश के कुल 33 साल के शासन में इन वर्गों की स्थिति क्यों नहीं सुधरी है? सवाल यह भी है कि भाजपा सनातन की चादर तले पिछड़ों व अति पिछड़ों को साधने के लिये नया क्या कुछ करती है। बहरहाल, बेहतर होगा यदि जनगणना से हासिल आंकड़ों का उपयोग राज्य के कमजोर वर्ग के लोगों के उत्थान हेतु किया जाए। सवाल यह भी है कि डॉ. अंबेडकर का जातिविहीन, समतामूलक, समरस समाज का सपना कब पूरा होगा?