
मुनीष भाटिया
भारत एक ऐसा देश है जहां प्रकृति की विविधता के साथ-साथ प्राकृतिक आपदाओं की विभीषिका भी बार-बार सामने आती है। कभी भारी बारिश, कभी बाढ़, कभी भूकंप और कभी भूस्खलन।वैज्ञानिक प्रगति और आधुनिक तकनीक ने हमें यह सुविधा तो दे दी है कि हम मौसम की भविष्यवाणी कर सकते हैं, वर्षा की तीव्रता और समय का अनुमान लगा सकते हैं, फिर भी हमारी तैयारी हर बार अधूरी रह जाती है। यही विडंबना आज सबसे गंभीर समस्या बन चुकी है।
राहत शिविरों की तैयारी, सड़क और पुलों की मजबूती, नालों की सफाई—ये सब काम कागजों पर तो दिखते हैं, पर जमीनी स्तर पर तब तक पूरे नहीं होते जब तक संकट सिर पर न आ जाए। यही कारण है कि हर साल हजारों लोग बेघर होते हैं और करोड़ों की संपत्ति का नुकसान उठाना पड़ता है। पर्वतीय इलाकों में भूस्खलन अब आम हो गए हैं। जंगलों की अंधाधुंध कटाई और पहाड़ों पर अवैध निर्माण ने भूमि को अस्थिर बना दिया है। सरकार बार-बार चेतावनी देती हैं, विशेषज्ञ रिपोर्ट पेश करते हैं कि अब पर्वतीय ढलानों पर निर्माण की सीमा समाप्त हो गई है। इसके बावजूद बड़े-बड़े बिल्डर और होटल प्रोजेक्ट धड़ल्ले से मंज़ूरी पा लेते हैं। नतीजा यह होता है कि बरसात के दिनों में ज़रा सी तेज बारिश भी जानलेवा साबित होती है और पूरा गांव या कस्बा भूस्खलन की चपेट में आ जाता है।
भारत का एक बड़ा भू-भाग भूकंप संवेदनशील क्षेत्रों में आता है। कुछ वर्षों में कोई न कोई बड़ा भूकंप हमें झकझोर देता है। जब हादसा होता है तो भूकंप-रोधी निर्माण की चर्चा जोरों पर होती हैं। इमारतों को सुरक्षित बनाने के सुझाव, निर्माण मानकों की सिफारिशें और सरकारी आदेश सामने आते हैं। लेकिन जैसे ही हालात सामान्य होते हैं, सब भुला दिया जाता है। बिल्डरों और आम नागरिकों तक को भूकंप-रोधी मानकों की जानकारी तो दी जाती है, लेकिन उनके पालन की निगरानी कभी कड़ी नहीं होती। यही कारण है कि जब अगली बार भूकंप आता है तो हमें फिर भारी नुकसान झेलना पड़ता है।
प्राकृतिक आपदाओं को पूरी तरह रोका नहीं जा सकता। लेकिन उनका असर कितना होगा, यह हमारी तैयारी पर निर्भर करता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम आपदा प्रबंधन को केवल आपदा आने के बाद की औपचारिकता न मानें, बल्कि इसे हमारी जीवनशैली और विकास नीति का हिस्सा बनाएँ। जब तक हम तैयारी को गंभीरता से नहीं लेंगे, तब तक हर साल हमें जान-माल की हानि झेलनी ही पड़ेगी।