मनोहर मनोज
भारत में आर्थिक असमानता को लेकर ना केवल कई गैर सरकारी राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां की तरफ से प्रतिकुल रिपोर्टें आ रही हैं बल्कि सरकारी एजेंसियां और नीति आयोग भी इस तथ्य को भलीभांति स्वीकार कर रही हैं। लिहाजा भारत में अपेक्षित आर्थिक प्रगति के बावजूद असमानता बड़े अनपेक्षित ढंग से बढती गई है। एक आंकड़ा सबका ध्यान बरबस खीचता है कि देश के एक फीसदी अमीरों की संपत्ति में पैसठ फीसदी बढोत्तरी हुई तो देश के पैसठ फीसदी आबादी के दौलत में महज एक फीसदी की बढोत्तरी हुई। यानी अमीर लोगों की अमीरी राकेट की रफतार से तो बहुसंखयक निर्धनों की दौलत बैलगाड़ी की रफतार से। परंतु विडंबना ये है कि भारत में असमानता को लेकर हो रहे विमर्श संपूर्ण समाधान परक ना होकर एकंागी और अपने अपने नजरिये से परोसे जा रहे हैं। वैसे भारत में सामाजिक आर्थिक संरचना इस तरह की रही जिसमे उच्च वर्ग की संपत्ति व आय में बढोत्तरी की रफतार और निचले पायदान पर स्थित निम्र श्रमिक व मध्य वर्ग की आय संपत्ति की रफतार में जमीन आसमान का फर्क पहले भी रहा। अलबत्ता नयी आर्थिक नीति के बाद यह फर्क और बढता गया। यह अंतर हमे उंची जाति व निचली जातियों के बीच, कृषि व उद्योग के बीच, शहरी व ग्रामीण आबादी के बीच, संगठित वर्ग व असंगठित वर्ग के बीच आसानी से दिखता रहा है। पर साथ साथ सच ये भी है कि नब्बे के दशक के पूर्व अमीर वर्ग की आय थोड़ी बहुत बढ रही थी पर निमन वर्ग की आय बिल्कुल नहीं। इस दौरान पिछले तीन दशक में देश में अर्थव्यवस्था को जो नया परिवेश हासिल हुआ उसमे उच्च श्रेष्ठी व घनाढय वर्ग की आय व संपत्ति को पर लग गए और निमन स्तर पर मिला विकास रिस रिस कर जरूर पहुंचा लेकिन कई जगह और कई बार यह सिस्टम की खामियों और अपूर्णताओं का शिकार हुआ।
मौजूदा असमानता को लेकर वृहद फलक पर कई अर्थशास्त्रियों द्वारा एक यह व्याक्खा सामने आ रही है कि चीन जैसे सामयवादी देश में भी पिछले चार दशक केे दौरान हुई तीव्र आर्थिक विकास में वहां गैरबराबरी तेजी से बढी। इसी तरह ब्राजील में भी गैर बराबरी की रफतार इस कालक्रम में भारत से ज्यादा पाई गई है। ऐसे में भारत में तीव्र आर्थिक प्रगति के दौर में असमानता का बढना अस्वाभाविक नही है। अर्थशास्त्रियों की दूसरी व्याखया यह परोसी जा रही है कि भारत में करोंं की हिस्सेदारी पहले की तुलना में काफी प्रगतिशील और समतागामी रही है। इस क्रम में यह कहा जा रहा है कि नब्बे के दशक के पूर्व देश में सकल घरेलू उत्पाद में कर का योगदान कम था और इस वजह से निर्धनता निवारण व जनकल्याण कार्यक्रमों के प्रति सरकारी आबंटन बेहद अपर्याप्त होने से असमानता को प्रभावी तरीके से नहीं रोका जा सका। नियोजित अर्थव्यवस्था को स्थानापन्न कर चुकी बाजार अर्थव्यवस्था का यही फंडा ज्यादा परिणामूलक माना गया कि सरकारें अपने विकास दर को बढायें और इस क्रम में यदि मध्य व उच्च वर्ग की प्रगति की रफतार तेज गति से बढती है तो इसे प्रतिकूल तत्व ना मानकर केवल अपने कर राजस्व में पर्याप्त बढोत्तरी को अपना लक्ष्य बनाये। फिर बढे कर राजस्व के जरिये सरकार अनौपचारिक क्षेत्र के विकास व मानव विकास पर संसाधनों का ज्यादा राशि आबंटन करे । यानी निर्धन वर्ग की आय व उपभोग में बेहतरी लाकर असमानता के निवारण का तरीका ही सबसे बेहतर तरीका है।
दूसरी बात कि वर्ष 2000 तक अर्थशास्त्री ये भी मानते थे कि करों में अप्रत्यक्ष करों की प्रत्यक्ष करों की तुलना में ज्यादा हिस्सेदारी होना असमानता मूलक अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित करता है। लेकिन अभी दोनो मानकों पर भारत की मौजूदा कर अर्थव्यवस्था ज्यादा प्रगतिशील हुई है। भारत के सकल घरलू उत्पाद में करों की हिस्सेदारी 1990 के दशक तक 12 फीसदी के आसपास थी वह अब बढकर विकसित देशों के समान 17 से 18 फीसदी के आसपास पहुंच गई है। दूसरा सकल कर आय में प्रत्यक्ष करों की हिस्सेदारी इस दौरान जो 45-48 फीसदी हुआ करती थी जो अब नये बजट में दिये आंकड़े के मुताबिक 58 फीसदी पर चली गई है। और प्रत्यक्ष करों की बात करें तो इसमें समतामूलक आय कर का योगदान सर्वाधिक 36 फीसदी हो गया है। ये बात अलग है कि ये स्थिति इस बात से उत्पन्न हुई कि कर दर को कम करने और करदाताओं काआधार ज्यादा विस्तृत करने की नीति अपनायी गई। इस वजह से देश में आयकर रिटर्न भरने वालों की संखया भी पिछले एक दशक में दोगुनी हो गई है। प्रत्यक्ष कर में जीएसटी और कारपोरेट टैक्स का योगदान 27-27 फीसदी है और केन्द्रीय कस्टम डयूटी 9 फीसदी है। ये सारे मानक देश में असमानता को मैक्रों यानी वृहद स्तर पर अंकुश डालने वाले कारक हैं लेकिन माइक्रो यानी पारिवारिक स्तर पर देखा जाए तो भारत में अमानता ना केवल एक आर्थिक अवधारणा है बल्कि एक बड़ी सामाजिक अवधारणा भी है। भारतीय समाज को लेकर ये माना जाता है कि यहां के सोशल पिरामिड में सामाजिक रूप से श्रेस्ठ जातियां हीं इसकी चोटी पर विराजमान है जो आर्थिक रूप से भी समुन्नत हैं। उसके बाद अवरोही क्रम में उस पिरामिड में जिसकी जैसी सामाजिक आर्थिक हैसियत है वैसी जगह है। भारत में सामाजिक आर्थिक असमानता दूर करने में राजनीतिक प्रशासनिक आरक्षण के प्रावधान को सबसे बड़ा पैमाना बना दिया गया। यह एक ऐसा पैमाना था जो भारत की लोकतांत्रिक राजनीति का एक बड़ा डिस्कोर्स बनता रहा बल्कि उसका स्थायी हिस्सा बन चुका है। इस क्रम में देश में समाजिक आर्थिक रूप से दलित पिछड़े समूह में एक नया अभिजात वर्ग पैदा हुआ जो इस आरक्षण व्यवस्था की मुखय रूप से पैरोकारी करता रहा है । इनके जरिये इन वर्गों के भीतर असमानता का एक नया ब्लाक पैदा हुआ है। इस क्रम में सुप्रीम कोर्ट के अभी हाल के उस फैसले को देखा जा सकता है जिसमे दलित वर्ग में पिछड़ी जातियों की तरह उपसमूह यानी क्रीमी लेयर रेखांकित करने की बात कही गई।
आरक्षण के जरिये असमानता दूर करने का कथित पोलीटिकल डिस्कोर्स भारतीय राजनीतिक सामाजिक व्यवस्था में इस कदर व्याप्त है कि उसके आगे आर्थिक सामाजिक सशक्तीकरण तथा व्यापक मानव विकास का एजेंडा गौड़ पड गया और इस वजह से भारत में असमानता पर प्रभावी नकेल लगाने का एक दीर्घकालीन रोडमैप तैयार नहीं हो पाया। दूसरी बात ये देखी गई कि आरक्षण की इस व्यवस्था को यदि चलायमान रखा जाना भी था तो इसे केवल सरकारी क्षेत्र में थोपा जाना और निजी क्षेत्र को इससे वंचित रखा जाना लेवल प्लेयिंग सिद्धांत के प्रतिकूल है। भारत में यह विराजमान व्यवस्था की एक ऐसी व्यथा है जो देश में असमानता को जारी रखने या इसे बढाने में अपनी महती भूमिका अदा कर रही है। एक नये आंकड़े के मुताबिक भारत में सरकारी नौकरी का अनुपात अमेरिका के 77 प्रति हजार और चीन के 57 प्रति हजार के मुकाबले सिर्फ 16 है, बाकी स्वरोजगार या निजी क्षेत्र के जरिये रोजगार प्राप्त हैं। इस बाबत सरकार ने आगामी वर्षो में कौशल विकास, कंपनी इंटर्नशिप व भविष्य निधि के सरकारी योगदान के जरिये देश के निजी क्षेत्र में हीं करीब चार करोड़ रोजगार प्रदान करने की एक पंचवर्षीय योजना बनायी है। ऐसे में आरक्षण के इस शक्तिशाली राजनीतिक ब्रह्मास्त्र को सरकार के साथ उस विशाल निजी क्षेत्र में भी लाने की फौरी जरूरत है।
देश में असमानता चाहे वह आर्थिक सामाजिक हो या आधुनिक अर्थशास्त्र के मानकों प्रति व्यक्ति आय, उपभोग, मानव विकास और प्राप्ति मूलक रोजगार के चिंताजनक स्तर पर आधारित हो वह निरंतर बढती जा रही है। दूसरी बात कि भारत में असमानता के राजनीतिक डिस्कोर्स में पूंजीपतियों के विरोध का जो राजनीतिक स्वर ज्यादा अनुगंूंजित होता है वह देश में असमानता को जड़ से और असल में कम करने के बजाए यथास्थितिवाद को पोषित करता आया है। क्योंकि बुनियादी तौर पर भारत में विरासत या उत्तराधिकार के आधार पर संरचित व स्थापित असमानता पर जब हम चर्चा करते है तो उसे निर्मूल करना प्रगतिशील करारोपण के बावजूद सरकार के लिए संभव नहीं हो पाया । लेकिन इससे इतर सिस्टम जनित असमानता का जो देश में विशाल सेटअप जो रोज ब रोज निर्मित हो रहा है उस पर हमला करने की चिंतन दृष्टि ना तो सरकार लेकर आ रही है और ना ही स्वतंत्र योजनाकार इस पर अपनी नजर दौड़ा पा रहे हैं। दरअसल विरासत जनित असमानता को नेस्तानाबुद करना विद्यमान राजनीतिक प्रशासनिक व्यवस्था के बश में नहीं है लेकिन सिस्टम जनित असमानता की मूल संरचना को नीतिगत व्यवस्थागत परिवर्तन के जरिये जरूर बदला जा सकता है। असमानता को लेकर सबसे बड़ी विडंबना ये दिखती है कि भारत में संविधान की सर्वोच्च प्रस्तावना अवसर की समानता का सर्वाधिक हनन दिखता है और इसका नतीजा ही सर्वाधिक असमानता होना है। असवर की समानता हमारे सिस्टम में कही से परिलक्षित नहंी होता है। हमारे यहां असमानता का जो विशाल वट वृक्ष और वृहदकाय होता जा रहा है वह पांच कारकों पर अवलंबित है, हमारी शिक्षा व्यवस्था, स्वास्थ्य व्यवस्था, श्रम नीति, रोजगार नीति और सामाजिक सुरक्षा नीति। इन पांचों अहम कारकों पर बहुस्तरीय व विभेदकारी नियमों, नीतियों व कार्यक्रमों तथा संरचनाओं की वजह से भारत में कई तरह की दुनिया फु लाई और फलाई जा रही है। इन्हीं पांच बिंदूओं पर भारत में कई तरह के सामजिक वर्ग रोज पैदा किये जा रहे हैं और हमारा सिस्टम अपने आंखों के सामने भारत में असमानता की खाई को दिन दुना और रात चौगुना करता जाता है। अगर इन पांच बिंदुओं पर सरकारों की एक समान नीति, एक परिवेश, एक इकोसिस्टम और एक समवेत दृष्टि हो तो आने वाले दिनों में भारतीय समाज का स्वरूप एक समतामूलक समाज की ओर तेजी से अग्रसर होता। और तब आर्थिक विकास की व्यवहारवादी डौक्ट्राइन यानी ट्रिकल डाउन थ्यौरी से रिस रिस कर होने वाली विकास देश की समस्त आबादी तक वैसे ही सुनिश्चित हो जाती जैसा कि अमेरिकी व यूरोपीय महाद्वीप के देशों में हुई।