ललित गर्ग
नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा घोषित नई शिक्षा नीति की उपयोगिता एवं प्रासंगिकता धीरे-धीरे सामने आने लगी है एवं उसके उद्देश्यों की परते खुलने लगी है। आखिरकार उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक बड़ी क्रांति की शुरुआत करतेे हुए अगस्त तक डिजिटल यूनिवर्सिटी के शुरू होने और विदेशों के ऑक्सफोर्ड, कैंब्रिज और येल जैसे उच्च स्तरीय लगभग पांच सौ श्रेष्ठ शैक्षणिक संस्थानों के भारत में कैंपस खुलने शुरु हो जायेंगे। अब भारत के छात्रों को विश्वस्तरीय शिक्षा स्वदेश में ही मिलेगी और यह कम खर्चीली एवं सुविधाजनक होगी। इसका एक लाभ होगा कि कुछ सालों में भारतीय शिक्षा एवं उसके उच्च मूल्य मानक विश्वव्यापी होंगे।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की यह अनूठी एवं दूरगामी सोच से जुड़ी सराहनीय पहल है। यह शिक्षा के क्षेत्र में नई संभावनाओं का अभ्युदय है। भारत में दम तोड़ रही उच्च शिक्षा को इससे नई ऊर्जा मिलेगी। बुझा दीया जले दीये के करीब आ जाये तो जले दीये की रोशनी कभी भी छलांग लगा सकती है। खुद को विश्वगुरु बताने वाले भारत का एक भी विश्वविद्यालय दुनिया के 200 विश्वविद्यालयों में शामिल नहीं है। दो आइआइटी और एक आइआइएससी इस सूची में आते हैं लेकिन 175वें नंबर के बाद, इन त्रासद उच्च स्तरीय शिक्षा के परिदृश्यों में बदलाव लाने में यदि नयी पहल की भूमिका बनती है तो यह स्वागतयोग्य कदम है। लेकिन अनेक संभावनाओं एवं नई दिशाओं के उद्घाटित होने के साथ-साथ हमें यह भी देखना होगा कि कहीं यह पहल भारत के लिये खतरा न जाये?
विदेशी विश्वविद्यालयों के भारत में अपने परिसर खोलने के मसविदे को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने भले ही अभी अमली जामा पहनाया हो, हालांकि यह प्रस्ताव पुराना है। कई विदेशी विश्वविद्यालय बरसों से भारत में अपने परिसर खोलने के इच्छुक थे, मगर कुछ तकनीकी अड़चनों और शिक्षा की गुणवत्ता, पढ़ाने-लिखाने के तौर-तरीके के नियमन, शुल्क आदि को लेकर कई शंकाओं के चलते यह प्रस्ताव टलता आ रहा था। निस्संदेह इस नीति से उच्च शिक्षा में भारतीय विद्यार्थियों के लिए नए अवसर पैदा होंगे। आयोग ने फिलहाल विदेशी विश्वविद्यालयों को दस साल के लिए मंजूरी देने का प्रावधान रखा है। उनके प्रदर्शन को देखते हुए नौ साल बाद फिर उनका नवीकरण किया जाएगा। दाखिला प्रक्रिया और शुल्क निर्धारण के मामले में इन विश्वविद्यालयों को स्वतंत्रता होगी। पर इससे यह सुविधा तो होगी कि बहुत सारे भारतीय विद्यार्थियों को अपने देश में रह कर ही विदेशी विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों को पढ़ने की सुविधा मिल जाएगी।
अब भारतीय छात्रों को बहुआयामी पाठ्यक्रमों को चुनने का अवसर मिल सकेगा। बहुत सारे विद्यार्थी इसलिए बाहरी विश्वविद्यालयों में दाखिला लेने जाते हैं कि यहां के विश्वविद्यालयों में वैसे पाठ्यक्रम नहीं हैं, जो उनमें हैं। अब वे पाठ्यक्रम अपने देश में भी उपलब्ध हो सकेंगे। इससे स्वाभाविक ही अपने यहां के सरकारी और निजी विश्वविद्यालय भी उनकी प्रतिस्पर्धा में ऐसे पाठ्यक्रम शुरू करने का प्रयास करेंगे। इस तरह की प्रतिस्पर्धा से भारत की उच्च शिक्षा को उन्नत होने की दिशाएं उद्घाटित होंगी, इसमें संदेह नहीं है। नए साल में शिक्षा का स्तर भारत में बदला हुआ दिखाई देगा। अब प्रोफेशनल के साथ रोजगारपरक पढ़ाई पर फोकस किया जा रहा है। डिजिटल यूनिवर्सिटी खुलने और विदेशी शिक्षण संस्थानों के भारत में खुलने से उच्चस्तरीय पढ़ाई का स्तर अलग ही होगा। आसान व सुविधाजनक पढ़ाई के अवसर मिलेंगे। छात्रों को अध्ययन में लचीलापन, पाठ्यक्रमों तक आसानी से पहुंच, उच्च गुणवत्ता के कोर्स, कम लागत और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नेटवर्किंग की सुविधा मिल पाएगी। इन विश्वविद्यालयों के माध्यम से ऑनलाइन या दूरस्थ शिक्षा पाठ्यक्रम से कई छात्र अपनी आगे की पढ़ाई पूरी कर पाएंगे। इन विश्वविद्यालयों के माध्यम से पारंपरिक संस्थानों की तुलना में अधिक विस्तृत पाठ्यक्रम की पेशकश और डिग्री कार्यक्रम का संचालन किया जाता है। इसका सबसे बड़ा फायदा ऐसे क्षेत्र के छात्रों को मिलेगा, जो अब तक इससे वंचित थे। यह सांस्कृतिक आदान-प्रदान का भी जरिया बनेगा।
अगले कुछ वर्षों में विश्वगुरु बनने की ओर अग्रसर भारत की धरती पर कई विदेशी विश्वविद्यालय ज्ञान बांटेंगे। निश्चित ही इससे भारत का उच्च स्तरीय शिक्षा का स्तर सुधरेगा एवं दुनिया की एक बड़ी ताकत बनने की दिशा में किये जा रहे प्रयासों में उसे सहायता मिलेगी। निश्चित ही यह पहल नया भारत, सशक्त भारत के संकल्प को आकार देने में सहायक होगी। एक महाशक्ति बनना एवं एक आदर्श शक्ति बनना- दोनों में फर्क है। भारत को इन दोनों के बीच संतुलन बनाये रखना होगा। उच्च शिक्षा एवं विदेशी विश्वविद्यालयों के लिये भारत के दरवाजे खोलने का अर्थ हमारे मूल शिक्षा के आदर्शों को जीवंत बनाये रखना होना चाहिए। धीरे-धीरे पढ़ाई के बदलते स्वरूप में अच्छा नागरिक या बेहतर मनुष्य बनने का उपक्रम गुम नहीं होना चाहिए। यदि वह अच्छी नौकरी पाने का ज़रिया है और अच्छी नौकरी का मतलब अच्छा काम नहीं, अच्छे पैसे देने वाला काम है तो इससे हम आगे बढ़ने की बजाय पिछे ही जायेंगे।
वैसे ही उच्च शिक्षा भटकी हुई प्रतीक होती है, हमारा मूल उद्देश्य ही कहीं भटकाव एवं गुमराह का शिकार न हो जाये। आज देश में बहुत चमचमाते एवं भव्यतम विश्वविद्यालय परिसरों की बाढ़ आ गई है। ये निजी विश्वविद्यालयों के परिसर हैं जिनकी इमारतें शानो-शौकत का नमूना लगती हैं, लेकिन ज्यादातर विश्वविद्यालय छात्रों से भारी फीस वसूलने एवं शिक्षा के व्यावसायिक होने का उदाहरण बन रहे हैं, जो शिक्षकों को कम पैसे देने, पढ़ाई का ज्यादा दिखावा करने, राजनीतिक एवं साम्प्रदायिक विष पैदा करने एवं हिंसा- अराजकता के केन्द्र बनेे हुए है। विदेशी संस्थानों के आने से ये चुनौतियां ज्यादा न बढ़ जाये, यह एक चुनौती है। वैसे ये विदेशी विश्वविद्यालय निजी विश्वविद्यालयों की तरह ही अपने छात्रों को राजनीति एवं साम्प्रदायिकता से दूर रखेंगे। तब सरकार को किसी आंदोलन का, छात्रों की ओर से किसी प्रतिरोध एवं हिंसा का डर नहीं होगा। इसका शिक्षा के मूल उद्देश्यों पर जो भी असर पड़े, सरकार की सेहत पर नहीं पड़ेगा। लेकिन इस तरह सरकार अपनी असुविधाओं के चलते अपनी जिम्मेदारियों से पला झाड़ने की मुद्रा में कैसे आ सकती है?
विदेशी विश्वविद्यालयों को न्यौता देना सूझबूझभरा तभी है जब हम अपनी विवशता के चलते ऐसा नहीं करें। क्योंकि हमारे यहां एक बड़ी समस्या यह भी है कि बढ़ती आबादी के अनुपात में स्कूल-कालेज और विश्वविद्यालय खोलना सरकार की क्षमता से बाहर होता गया है। सरकारी संरक्षण में पल रही शिक्षा का प्रभावी संचालन एवं परिणामदायी व्यवस्था भी सरकार के सामने दूसरी बड़ी चुनौती है। शिक्षा पर अपेक्षित बजट न होने के चलते सबके लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराना चुनौती बना हुआ है। ऐसे में निजी संस्थानों को प्रोत्साहित किया जाने लगा। सरकार अपने स्कूलों, कालेजों को पीपी मॉडल पर देने के लिये निजी संस्थानों को आमंत्रित कर रही है। देश में आमजन को उन्नत शिक्षा उपलब्ध न करा पाना सरकार की बड़ी नाकामी रही है। इसी के चलते निजी स्कूल और कालेजों की बाढ़ तो आ गई, मगर उनमें मिलने वाली शिक्षा की कीमत चुकाना हर किसी के वश की बात नहीं रह गई है। इसलिए भी निजी शिक्षण संस्थान सदा आलोचना का विषय रहे हैं। क्या विदेशी विश्वविद्यालय इन आलोचनाओं का शिकार नहीं होंगे? एक और बात अखर रही है कि नई शिक्षा नीति में एक वादा यह भी किया गया है कि निजी स्कूलों में शुल्क आदि के निर्धारण का व्यावहारिक पैमाना तय किया जाएगा, जिससे स्कूलों की मनमानी फीस वसूली पर लगाम लगाई जा सके। पर निजी और विदेशी उच्च शिक्षण संस्थानों को इस मामले में छूट क्यों है? पहले ही हमारे यहां उच्च निजी संस्थानों में फीस इतनी ऊंची है कि बहुत सारे विद्यार्थी इसलिए यूक्रेन आदि देशों का रुख करते हैं कि वहां यहां से कम खर्च पर गुणवत्तापूर्ण पढ़ाई हो जाती है। ऐसी विडम्बना एवं विसंगतियों पर ध्यान दिया जाना जरूरी है, तभी विदेशी विश्वविद्यालयों का भारत आना सार्थक होगा।