
अशोक भाटिया
पहलगाम तनाव के बीच मोदी सरकार जातिगत जनगणना करवाने जा रही है, मोदी सरकार ने यह बड़ा फैसला ले लिया है। अब जब भारत और पाकिस्तान के बीच में जबरदस्त तनाव है, जब इस समय हर किसी की नजर सैन्य कार्रवाई पर है, उस बीच जातिगत जनगणना पर फैसला लेकर सरकार ने सभी को हैरान कर दिया है।केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव के अनुसार राजनीतिक मामलों की कैबिनेट समिति ने बुधवार को फैसला किया है कि जाति गणना को आगामी जनगणना में शामिल किया जाना चाहिए। अब इस एक फैसले के मायने बड़े हैं, इसे जानकार भी गेमचेंजर मानते हैं।जनगणना के आंकड़ें संवेदनशील माने जाते हैं और इनका व्यापक असर होता है। खाद्य सुरक्षा, राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम और निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन जैसी कई योजनाएं इनपर निर्भर होती हैं। आंकड़ों का उपयोग सरकारों के साथ उद्योग जगत और शोध संस्थाएं भी करती हैं। जून, 2024 तक भारत दुनिया भर में उन 44 देशों में से एक था जिन्होंने इस दशक में जनगणना नहीं कराई।
इसके पहले केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने 20 जुलाई 2021 को लोकसभा में एक सवाल के जवाब में कहा था कि फिलहाल केंद्र सरकार ने अनुसूचित जाति और जनजाति के अलावा किसी और जाति की गिनती का कोई आदेश नहीं दिया है। बताना जरूरी होगा कि भारत में जनगणना के उपलब्ध आंकड़ों से यह पता नहीं चलता कि देश में किस जाति के कितने लोग हैं। जनगणना से यह तो पता चलता है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के कितने लोग हैं लेकिन ओबीसी वर्ग में कितनी जातियां हैं, इसका पता नहीं चल पाता। वैसे देश की राजनीति ऐसी रही है कि यहां पर एक जमाना ऐसा था जब कई क्षेत्रीय पार्टियों का जन्म ही जातिगत राजनीति के आधार पर हुआ। यह 1980 का दशक था जब निचली जातियों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने की बात हुई। यह अलग बात है कि मंडल कमीशन 1990 में जाकर लागू हुआ और उसने देश की राजनीति हमेशा के लिए बदल दी। अब विपक्षी पार्टियों को लगता है कि जातिगत जनगणना बीजेपी के हिंदुत्व का काट है। अगर हिंदू को ही बांट दिया गया तो बीजेपी के लिए अपनी सियासत करना मुश्किल हो जाएगा।
कुछ लोग सोच सकते हैं कि ‘एक हैं तो सेफ हैं’ की बात करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जातीय जनगणना के लिए तैयार कैसे हो गए? सुप्रीम कोर्ट में कास्ट सेंसस से बचने के लिए कई तरह की दलीलें केंद्र सरकार की ओर से दी गई थी। बिहार की जातीय सर्वे की खुले मंच से आलोचना की गई थी। मगर, अब हालात बदल गए हैं। महागठबंधन के साथ रहकर बिहार में कास्ट सर्वे कराने के बाद नीतीश कुमार अब नरेंद्र मोदी के पाले में हैं। वैसे, बिहार की कई योजनाओं को केंद्र सरकार ने बड़े स्तर पर स्वीकार किया है। उसमें अब बिहार का जातीय सर्वे भी शुमार हो गया।यही कारण है कि सरकार की ओर से फैसले की घोषणा के साथ फिर से राजनीतिक बयानबाजी तेज हो गई। कांग्रेस समेत कई विपक्षी दल जहां इसे अपनी जीत बता रहे हैं वहीं भाजपा की ओर इतिहास स्पष्ट किया गया और कहा गया कि जाति जनगणना पहली बार होने जा रही है। इस फैसले के बाद एकबारगी जहां देश का ध्यान पाकिस्तान से हटकर घरेलू राजनीति पर आया वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक झटके में विपक्षी का बड़ा चुनावी मुद्दा भी छीन लिया।
दरअसल अक्टूबर-नवंबर में बिहार चुनाव है जहां विपक्षी महागठबंधन इसे ही सबसे बड़ा मुद्दा बनाने की तैयारी में था। अब चुनाव में श्रेय की होड़ छिड़ेगी जहां राजग की ओर से यह बताया जाएगा कि आजादी के बाद पहली बार जाति जनगणना होने जा रही है। फैसले की जानकारी देते हुए सूचना व प्रसारण मंत्री अश्विनी वैष्णव ने विभिन्न राज्यों में जाति जनगणना के नाम पर जाति सर्वे पर भी सवाल खड़ा किया। उन्होंने साफ किया कि संविधान के अनुच्छेद 246 की केंद्रीय सूची में जनगणना को रखा गया है, इसीलिए राज्यों ने जाति जनगणना कराने का अधिकार नहीं है।
भाजपा ने जाति जनगणना को प्रमुख राजनीतिक मुद्दा बनाने वाली कांग्रेस को आड़े हाथ लिया हैं । उनके अनुसार हकीकत यही है कि कांग्रेस की सरकारों ने आज तक जाति जनगणना का विरोध किया है। इसका प्रमाण है कि आजादी के बाद सभी जनगणनाओं में जाति की गणना की ही नहीं गई। जाति जनगणना के मुद्दे को कांग्रेस व आइएनडीआइए गठबंधन दलों पर सिर्फ राजनीतिक लाभ के लिए उपयोग का आरोप लगाते हुए कहा कि मनमोहन सिंह सरकार ने 2010 में संसद में आश्वासन देने के बावजूद मनमोहन सिंह सरकार ने इसे नहीं कराया गया।
जाति जनगणना पर मंत्रीमंडल समूह की संस्तुति के बावजूद मनमोहन सिंह सरकार ने सामाजिक, आर्थिक, जातीय जनगणना के नाम सिर्फ सर्वे कराया। ध्यान देने की बात है कि जातीय जनगणना 1931 में जनगणना के साथ हुई थी। इसी जातीय जनगणना के आंकड़ों के आधार पर ओबीसी आरक्षण के लिए मंडल कमीशन ने 1980 में अपनी रिपोर्ट सौंपी थी और तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने 1991 में इसे लागू किया था। लेकिन पिछड़ी जातियों की मौजूदा जनसंख्या जानने और उसके अनुरूप में उनके उत्थान की नीतियां बनाने के लिए जातीय जनगणना कराने की मांग जोर पकड़ रही थी।
बताया जाता है कि 2011 के सामाजिक आर्थिक और जातीय जनगणना (एसईसीसी) से सीख लेते हुए सरकार इसका स्वरूप तय करने के लिये सर्वदलीय समिति का गठन कर सकती है। 2011 की एसईसीसी में 1931 के 4147 जातियों की तुलना में 46।80 लाख जातियां दर्ज की गई थी।इस बार सरकार जनगणना के साथ-साथ जातीय जनगणना कराने का फुलप्रूफ माडल तैयार करना चाहती है। मुद्दे की संवेदनशीलता को देखते हुए सरकार इस पर आम राय बनाने की कोशिश कर सकती है और उसका सबसे अच्छा तरीका सर्वदलीय समिति का गठन है। जिसकी अनुसंशाओं के अनुरूप जातीय जनगणना कराई जाएगी।
यहां पर कुछ जानकार तो कहते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी ने एक मास्टर स्ट्रोक कदम उठा लिया है क्योंकि उन्होंने सिर्फ जाति जनगणना लागू करने की बात नहीं की है बल्कि उनकी तरफ से इस एक दांव के जरिए विपक्ष के मुद्दे को भी उनके हाथ से छीन लिया गया है। जो राहुल गांधी, जो तेजस्वी यादव लगातार अपनी हर रैली में जाति जनगणना की बात कर रहे थे, यहां तक कह रहे थे कि सरकार बनने पर सबसे पहले इसी का ऐलान किया जाएगा, अब मोदी सरकार ने समय से पहले या कहना चाहिए चुनाव से ठीक पहले विपक्ष के उस मुद्दे की धार को खत्म कर दिया है।इसके ऊपर भाजपा को एक और बड़ा फायदा होने वाला है। अभी तक तो बिहार में विपक्ष द्वारा लगातार ऐसा आरोप लगाया जा रहा था कि बीजेपी आरक्षण विरोधी है, वो आरक्षण खत्म करना चाहती है। बीजेपी के तमाम बड़े नेता रैली में इस बात का खंडन करते थे, लेकिन साथ में कोई ऐसा साक्ष्य नहीं था जो इस बात को साबित भी कर सके। इसी वजह से राहुल से लेकर तेजस्वी तक कई बार काफी तीखे वार कर चुके थे। लेकिन अब आरक्षण विरोधी वाली छवि को भी बदलने का मौका मिल चुका है, जाति जनगणना के एक ऐलान ने बीजेपी को नई संजीवनी दे दी है, पार्टी बिहार चुनाव में अब नेरेटिव अपने मुताबिक तय करेगी।
यहां पर एक और समझने वाली बात यह भी है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी बिहार में अपने स्तर पर जाति जनगणना करवा रखी है। बिहार की जैसी राजनीति रही है, इतने सालों बाद भी बीजेपी जेडीयू की छोटा भाई बनकर रह चुकी है। पिछली विधानसभा चुनाव में ज्यादा सीटें मिलने के बाद भी सीएम की कुर्सी नीतीश कुमार के पास ही गई। जानकार इसका एक बड़ा कारण यह मानते हैं कि पिछड़े, अति पिछड़े और दलितों में नीतीश कुमार का दबदबा आज भी कायम है और बीजेपी वैश्य और सर्वण वोट बैंक के आधार पर ही राजनीति करने की कोशिश कर रही है।
यहाँ यह भी बात ध्यान देने योग्य है कि देश का युवा आज नौकरी मांग रहा है, ग्रेजुएशन करने के बाद, तमाम डिग्री लेने के बाद भी जब वो बेरोजगार रह जाता है, उसके मन में भी कई सवाल कौंधते हैं। देश की बेरोजगारी दर भी इस बात की तस्दीक करती है कि लोग ज्यादा हैं, लेकिन उतनी नौकरियां ही इस समय मौजूद नहीं। लेकिन नौकरी ना होने का एक बहुत बड़ा कारण कौशल है, अंग्रेजी में बोलें तो स्किल। आज के समय में नौकरी उसी शख्स को मिल रही है जिसके पास कोई विशेष स्किल है, जो किसी एक काम में ज्यादा ही बेहतर काम करता है।अब जरूरत स्किल की भी है, लेकिन देश में बात चल रही है जाति की, नेता सिर्फ मंथन कर रहे हैं जातिगत जनगणना पर। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने तो इसे चुनावी मुद्दा बना लिया है, वे मानकर चल रहे हैं कि जब तक जातिगत जनगणना नहीं हो जाती, देश का असल विकास संभव नहीं, हर किसी को न्याय मिलना मुमकिन नहीं। अब जातिगत जनगणना की बात करने वाले लोगों का तर्क रहता है कि जब तक यह ना पता चले कि कौन सी जाति के कितने लोग हैं, उन्हें ना आरक्षण का सही लाभ मिल सकता है और ना ही सरकार की दूसरी योजनाओं का।लेकिन जातिगत जनगणना की बात करने वाले यह भूल रहे हैं कि कॉरपोरेट दुनिया में युवाओं को नौकरी इस आधार पर नहीं मिल रही कि वे कौन सी जाति से आते हैं। वहां कोई यह नहीं पूछ रहा है कि आप दलित हैं तो सिर्फ आप ही को हायर किया जाएगा। उन लोगों के लिए स्किल ही सबकुछ है, अगर कुछ अलग करने का टैलेंट है, तभी हायरिंग हो रही है। उदाहरण के लिए आज के समय में देश की कई ऐसी कंपनियां सामने आ रही हैं कि जिनके लिए AI नॉलेज बहुत जरूरी है, जब तक वो नहीं, किसी की हायरिंग नहीं हो रही।
अशोक भाटिया, वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार ,लेखक, समीक्षक एवं टिप्पणीकार