चिंताजनक है कमजोर होती विज्ञान की बुनियाद

शिशिर शुक्ला

वैसे तो प्रत्येक विषय का ज्ञान के दृष्टिकोण से अपना अलग महत्व है, क्योंकि विषय कोई भी हो, वह अपने आप में ज्ञान का एक महासागर होता है। किंतु फिर भी यदि कुछ कसौटियों के आधार पर तुलना की जाए तो निष्कर्ष यह निकलता है कि विज्ञान का अपना अलग ही वर्चस्व है। विज्ञान की समस्त शाखाएं पूर्णतया विशिष्टता, क्रमबद्धता, सिद्धांत एवं तर्क की नींव पर आधारित हैं। यद्यपि रूचि के अनुसार प्रत्येक विषय का अध्ययन व्यक्तित्व को परिष्कृत एवं परिमार्जित करता है किंतु वही रुचि यदि विज्ञान के अध्ययन में हो तो व्यक्तित्व के परिमार्जन के साथ-साथ एक अद्भुत आनंद की अनुभूति होती है। विज्ञान का अध्ययन विद्यार्थी से अथक परिश्रम एवं पूर्ण समर्पण की मांग करता है। संपूर्ण ब्रह्मांड के कण-कण की प्रत्येक गतिविधि विज्ञान के ही मूलभूत नियमों व सिद्धांतों पर आधारित है। विज्ञान को आत्मसात करने के लिए अंतःकरण में सीखने एवं जानने की तीव्र ललक का होना नितांत अनिवार्य है।

वर्तमान में एक गंभीर चिंता का विषय यह है कि विज्ञान वर्ग से उच्च शिक्षा में प्रवेश लेने वाले विद्यार्थियों में अधिकांश ऐसे हैं जोकि विज्ञान के आधारभूत नियमों व सिद्धांतों से पूर्णतया अनभिज्ञ हैं। इंटरमीडिएट की कक्षा को उत्तीर्ण करके आए विद्यार्थियों को इंटरमीडिएट स्तर के विज्ञान का बीस प्रतिशत भी ज्ञान नहीं है। पिछली कक्षा से संबंधित एक छोटा सा प्रश्न पूछने पर अधिकतम विद्यार्थियों की जुबान पर मानो ताला लग जाता है। प्रश्न यह उठता है कि जिन विद्यार्थियों को विज्ञान की वर्णमाला का भी ढंग से ज्ञान नहीं है, उनसे विज्ञान की उच्च शिक्षा को लेकर क्या उम्मीद की जा सकती है? मूलभूत सिद्धांतों को ठीक से समझे बिना उच्च स्तर के पाठ्यक्रम को ऐसे विद्यार्थी किस स्तर तक समझ पाएंगे? विज्ञान वर्ग के विद्यार्थियों की यह दयनीय स्थिति निश्चित ही एक गंभीर विषय है। आखिरकार इस समस्या एवं स्थिति में सुधार कैसे संभव हो। विज्ञान की उच्च शिक्षा की ओर कदम बढ़ाने वाले शिक्षार्थियों को सही मायने में विज्ञान के योग्य कैसे बनाया जाए। इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढने से पहले हमें उन कारणों पर गहन चिंतन करना होगा जिनकी वजह से विज्ञान जैसे विषय को यह समस्या घेरकर खड़ी हुई है।

वस्तुतः कहीं न कहीं इसके पीछे हम और हमारी शिक्षा व्यवस्था पूर्णरूपेण उत्तरदायी हैं। कुछ ही दशकों पूर्व की बात की जाए तो माहौल कुछ ऐसा हुआ करता था कि 10वीं एवं 12वीं की परीक्षाओं का परिणाम समाचार पत्रों में प्रकाशित होता था। विद्यार्थी बड़ी बेसब्री एवं घबराहटपूर्ण मनःस्थिति के साथ परिणाम की प्रतीक्षा करते थे और खास बात यह थी कि परिणाम का प्रतिशत अधिकांशतः 50 के नीचे रहा करता था। वही विद्यार्थी उत्तीर्ण हुआ करता था जो वास्तव में इस योग्य होता था। रही बात विज्ञान की, तो इसका अध्ययन करने वाले विद्यार्थी पूर्ण गंभीरता, तन्मयता एवं जिम्मेदारी के साथ इसे पढ़ते थे। आज का परिदृश्य पूर्णतया भिन्न है। आज 10वीं व 12वीं की परीक्षाओं का परिणाम शत-प्रतिशत रहता है, और उसमें भी नब्बे प्रतिशत से अधिक प्राप्तांक पाने वाले विद्यार्थियों की एक भीड़ प्रतिवर्ष तैयार हो जाती है। विद्यार्थियों के मूल्यांकन में बरती जाने वाली अतिशिथिलता एवं पाठ्यक्रम को अनावश्यक रूप से सरल बना देना ही इसका मुख्य कारण है। अंको का अच्छा प्रतिशत लुटा दिए जाने से ऐसे विद्यार्थी भी स्वयं को विद्वान समझने की गलतफहमी पाल लेते हैं जो कि वास्तव में ज्ञान के पैमाने पर शून्य की स्थिति पर होते हैं। बिना सोचे समझे ऐसे विद्यार्थियों की एक भीड़ उच्च शिक्षा में भी विज्ञान की राह पर चल पड़ती है। मजेदार बात तो यह है कि हमारे यहां विद्यार्थियों के साथ-साथ संस्थानों का भी एक सैलाब सा मौजूद है। बहुत से संस्थान तो ऐसे हैं जो शिक्षा को नहीं अपितु व्यापार को उद्देश्य बनाकर खोले गए हैं और विद्यार्थी के प्रति उनका व्यवहार भी एक ग्राहक के साथ किए जाने वाले व्यवहार जैसा होता है, यद्यपि इस पर अधिक चर्चा करना मूर्खता एवं समय को नष्ट करना ही होगा। विज्ञान के अध्ययन में प्रयोगों की महती भूमिका होती है किंतु दुर्भाग्य की बात है कि अधिकांश संस्थाओं में विज्ञान का प्रायोगिक परिदृश्य भी पूर्णतया बदल चुका है। आज विद्यार्थी प्रयोगशाला में आकर कुछ भी सीखना नहीं चाहता। किसी सिद्धांत को स्वयं अनुप्रयोगों के आधार पर समझने की प्रवृत्ति शनै: शनै: खत्म होती जा रही है। प्रयोग, प्रयोगशाला एवं प्रायोगिक परीक्षा सब कुछ महज एक औपचारिकता का रूप लेता जा रहा है। अधिकांश संस्थान एवं प्रायोगिक परीक्षक भी प्रायोगिक परीक्षा को एक औपचारिकता समझकर ही पूर्ण कर रहे हैं। उच्च शिक्षा में सेमेस्टर पद्धति लागू हो जाने से एवं बाह्य मूल्यांकन की अपेक्षा आंतरिक मूल्यांकन का महत्व अधिक हो जाने से विद्यार्थी आवश्यकता से अधिक निश्चिंत होता जा रहा है। निस्संदेह इस व्यवस्था से विद्यार्थी को डिग्री हासिल करने में बहुत आसानी हो गई है किंतु कटुसत्य यह है कि ऐसे डिग्रीधारक के पास ज्ञान एवं गुणवत्ता के नाम पर कुछ भी नहीं होगा। कितनी शर्म की बात है कि उच्च शिक्षा की डिग्री पाने के उपरांत भी उसे विज्ञान के आधारभूत सिद्धांतों एवं नियमों का ज्ञान नहीं होगा। चिंतायुक्त प्रश्न यह उठता है कि ऐसे विद्यार्थी समाज को किस दिशा में ले जाएंगे। जो स्वयं विज्ञान से अपरिचित है, वह नई पीढ़ी को विज्ञान से परिचित कैसे करा पाएगा।

निश्चित रूप से शिक्षा व्यवस्था में सुधार की महती आवश्यकता है। सर्वप्रथम तो हाईस्कूल से लेकर उच्च शिक्षा के स्तर तक मूल्यांकन में सख्ती का रुख अपनाया जाना चाहिए ताकि विद्यार्थी के अंदर परिश्रम करने की ललक एवं परीक्षा का यथोचित भय, जोकि समाप्त हो चुका है, पुनः जागृत हो। दूसरी बात, विज्ञान वर्ग में प्रवेश हेतु एक स्तरीय प्रवेश परीक्षा होनी चाहिए ताकि वही विद्यार्थी उच्च स्तर पर विज्ञान का अध्ययन करें जो इसके लायक हैं। प्रायोगिक विज्ञान के प्रति विद्यार्थियों की उपेक्षा एवं उदासीनता को रोकने के लिए प्रायोगिक पाठ्यक्रम के प्रति सख्तीपूर्ण रवैया अपनाया जाना चाहिए। उच्च शिक्षा से हमें उच्च कोटि का उत्पाद तभी मिलेगा जबकि विज्ञान की बुनियाद को मजबूत बनाया जाएगा, अन्यथा की स्थिति में विज्ञान का भविष्य अंधकार में डूबते देर नहीं लगेगी।