ललित गर्ग
चुनाव लोकतंत्र की जीवनी शक्ति है, यह राष्ट्रीय चरित्र का प्रतिबिम्ब होता है, लोकतंत्र में स्वस्थ मूल्यों की स्थापना के लिये चुनाव की स्वस्थता एवं उसकी शुद्धि अनिवार्य है। चुनाव की प्रक्रिया गलत एवं मूल्यहीन होने से लोकतंत्र की जड़े तो खोखली होती ही है, राष्ट्र भी मूल्यहीनता की ओर अग्रसर होता है। चरित्र-शुद्धि के अभाव में चुनाव शुद्धि की कल्पना नहीं की जा सकती है। इस बार पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में ऐसा ही देखने को मिल रहा है, रेवड़ी-संस्कृति, लोकलुभावने वायदों और गारंटियों का जो कोलाहल सुना जा रहा है, येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतने की होड़ देखने को मिल रही है, जो कालांतर में देश के सशक्त होने, आर्थिक अनुशासन व योग्य जनप्रतिनिधियों के चयन के लिये एक चुनौती बन सकता है। लगातार चुनावों में मुक्त की रेवड़िया बांटने की परम्परा ने चुनाव प्रक्रिया एवं उसके आदर्श को धुंधलाया है। यह विडंबना है कि लोग जनप्रतिनिधि की योग्यता, कर्मठता, चारित्रिक उज्ज्वता की प्राथमिकता को दरकिनार करके संकीर्ण सोच के लाभों को प्राथमिकता देने लगे हैं। इस दूषित परंपरा से राजनेताओं और जनता का प्रलोभन विस्तार ले रहा है। इस बढ़ती बुराई एवं विकृति को देखकर आंख मूंदना या कानों में अंगुलिया डालना अपनी जिम्मेदारी से पलायन है, इसके विरोध में व्यापक जन-चेतना जगाने की अपेक्षा है। आज चुनाव में बढ़ता भ्रष्टाचार का रावण मानवता एवं चुनाव शुद्धि की सीता का अपहरण करके ले जा रहा है, सब यह अनर्थ होते हुए देख रहे हैं, पर कोई भी जटायु आगे आकर उसका विरोध करने की स्थिति में नहीं हैं। चुनाव-भ्रष्टाचार के प्रति जनता, राजनीतिक दलों एवं नेताओं का यह मौन, यह उपेक्षाभाव उसे बढ़ायेगा नहीं तो और क्या करेगा?
मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में विधानसभा चुनावों के लिए मतदान हो चुका है। अब केवल तेलंगाना में मतदान होना शेष है। इन राज्यों के चुनाव प्रचार के दौरान यह बात और उभरकर सामने आई कि मतदाता राजनीतिक दलों के प्रलोभन का शिकार बनने के लिए तैयार है और राजनीतिक दल एवं उनके उम्मीदवार मतदाताओं को ठगने, लुभाने एवं गुमराह करने की होड़ में लगे हैं। ‘गरीब की थाली में पुलाव आ गया है…लगता है शहर में चुनाव आ गया है’ भारत की राजनीति एवं चुनावों पर ये दो पंक्तियां सटीक टिप्पणी हैं, जो दुःखद एवं विडम्बनापूर्ण है। आम तौर पर मतदाता राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों में यह नहीं देखता कि उसमें अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य व्यवस्था, रोजगार, नागरिक सुविधाएं, बिजली-पानी आदि के ठोस वादे किए गए हैं या नहीं? वह अब यह देखता है कि किस दल ने उन्हें क्या-क्या मुफ्त वस्तुएं और सुविधाएं देने के वादे किए हैं। वक्त की जरूरत है कि मतदाताओं को लालीपॉप देने, मुक्त की रेवड़िया बांटने के बजाय उन्हें ऐसे अवसर दिये जाने चाहिए ताकि वे कालांतर आत्मनिर्भर बन सकें, सशक्त लोकतंत्र के निर्माण में अपनी सार्थक भूमिका निभा सके, देश के सशक्त आर्थिक विकास में योगभूत बन सके।
भ्रष्ट चुनाव से तो भ्रष्ट नेतृत्व ही मिलेगा, ऐसी भ्रष्ट स्थितियों से देश के आर्थिक विकास में भी भ्रष्टता ही व्यापक होगी, शासन के सामने आर्थिक चुनौतियों खड़ी होगी। इस तरह मुफ्त की योजनाओं और गारंटियों से सिर्फ हमारा राजकोषीय घाटा ही नहीं बढ़ेगा, बल्कि भ्रष्टाचार को पनपने का खुला मौका मिलेगा। मतदाता यदि किसी राजनीतिक दल की दूरगामी नीतियों व विकास योजनाओं को नजरअंदाज करके तात्कालिक लाभ को प्राथमिकता देगा तो भविष्य में उसे इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। उम्मीदवारों के षड़यंत्र एवं मतदाताओं के लोभ हमारी चुनाव प्रक्रिया को भी संकट में डालते हैं। जाहिर बात है कि मुफ्तखोरी की संस्कृति के बूते सत्ता में आने वाला नेता कालांतर में सरकारी संसाधनों के दोहन को अपनी प्राथमिकता बनायेगा। जो धन उसने चुनाव के दौरान बांटा है उसका कई गुना येन-केन-प्रकारेण वसूलेगा। जिससे लोकतंत्र में लूटतंत्र की मानसिकता को प्रोत्साहन मिल सकता है। चुनाव में मुफ्त रेवड़ी संस्कृति के साथ चुनाव का अधिकाधिक खर्चीला होना भी गंभीर चिन्ता का विषय है। एक-एक प्रत्याशी चुनाव प्रचार करने में करोड़ों रूप्ये व्यय करता है। यह धन उसे पूंजीपतियों एवं उद्योगपतियों से मिलता है। चुनाव जीतने के बाद वे उद्योगपति उनसे अनेक सुविधाएं जायज-नाजायज तरीकों से प्राप्त करते हैं। इसी कारण सरकार उनके शोषण के विरुद्ध कोई आवाज नहीं उठा पाती और अनैतिकता एवं भ्रष्टता की परम्परा का सिंचन मिलता है। यथार्थ में देखा जाये तो जनमंत्र अर्थतं. बन कर रह जाता हैं, जिसके पास जितना अधिक पैसा होगा, वह उतने ही अधिक वोट खरीद सकेगा। ऐसे में ईमानदार, योग्य एवं कर्मठ लोगों का राजनीति में आने का रास्ता ही बन्द हो जायेगा। चुनावों में लगातार बढ़ रही भ्रष्टता की नाजुक स्थिति में व्यक्ति-व्यक्ति की जटायुवृत्ति को जगाया जा सके, चुनावी भ्रष्टाचार के विरोध में एक शक्तिशाली समवेत स्वर उठ सके और उस स्वर को स्थायित्व मिल सके तो लोकतंत्र की जड़ों को सिंचन मिल सकता है और ऐसे हालातों में भी हमारा अमृत-काल भी चुनाव-प्रक्रिया के लिये भी अमृतमय बन सकता है।
इस बार पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्त पेशकश के मामले में होड़ करके राजनीतिक दल एक दूसरे को मात देने में लगे रहे। चुनाव में रेवड़ियों की इस बारिश के राजनीतिक एवं आर्थिक, दोनों निहितार्थ हैं। साथ ही यह उन राजनीतिक दलों के दोहरे रवैये को भी जाहिर करता है जो मुफ्त पेशकश के मामले में दूसरे दलों को तो आईना दिखाते हैं, लेकिन चुनाव जीतने के लिए खुद उनका सहारा लेने से कोई संकोच नहीं करते। यह दोहरा रवैया भाजपा के चरित्र में भी समाया है। सही मायनों में मुफ्त के उपहारों की हमेशा बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। यह हमारे लोकतंत्र की भी विफलता है कि आजादी के साढ़े सात दशक बाद भी हम अपने लोकतंत्र को इतना सजग व समृद्ध नहीं बना पाये कि मतदाता अपने विवेक से अपना दूरगामी भला-बुरा सोचकर मतदान कर सके। अतीत के अनुभव बताते हैं कि जिस भी राज्य ने मुफ्त खाद्यान्न, पानी, बिजली व सब्सिडी बांटी है उसकी अर्थव्यवस्था भविष्य में चरमराई ही है। सही मायनों में मुफ्त कुछ नहीं होता, वह करदाताओं की पसीने की कमाई से पैदा होता है। देश को कल्याणकारी नीतियों की जरूरत है, लेकिन वह आर्थिक अनुशासन और राजकोषीय विवेक पर आधारित होना चाहिए।
कोई भी दल यह बताने को तैयार नहीं कि वे मुफ्त वस्तुएं जैसे कि स्कूटी, लैपटाप, मोबाइल, सोना, मुफ्त बिजली-पानी-बस यात्रा समेत अन्य वस्तुएं और सुविधाएं देने के जो वादे कर रहे हैं उन्हें पूरा कैसे करेंगे? वास्तव में यह वह सवाल है जो मतदाताओं को करना चाहिए। वह यदि यह सवाल नहीं करता तो इसका कारण लालच और फौरी लाभ ही है। लेकिन मतदाताओं का यह लाभ का दृष्टिकोण समूचे लोकतंत्र के लिये कितना नुकसानदायी है, इस पर चिन्तन करना जरूरी है। ऐसा नहीं है कि रेवड़िया बांटने का खेल देश में पहले नहीं होता था, लेकिन आज जिस पैमाने पर हो रहा है, वह हर देशभक्त की चिंता का विषय होना चाहिए। कहीं न कहीं, मुफ्त की गारंटियों का यह खेल जवाबदेह प्रशासन व आर्थिक स्थिरता पर कालांतर गहरी चोट करेगा। वहीं ये गतिविधियां एक जिम्मेदार लोकतंत्र पर सवालिया निशान लगाती हैं। यह बड़ा सत्य है कि मुफ्त की रेवड़ियां बांटने से हमारी अर्थव्यवस्था व विवेकशील सुशासन पर घातक असर पड़ता है। अंततः रेवड़ी संस्कृति का आर्थिक दबाव सरकारी संसाधनों पर पड़ता है। राज्यों के आर्थिक संसाधन सीमित हैं। ऐसे में बांटा गया धन कालांतर में हमारे बुनियादी ढांचे व विकास परियोजनाओं के लिये निर्धारित धन में कटौती करता है। जिससे समग्र एवं संतुलित विकास का लक्ष्य हासिल नहीं हो पाता। निश्चित रूप से समाज के कमजोर वर्ग को आर्थिक संबल दिया जाना चाहिए। लेकिन मुफ्त रेवडियां बांटने से वह अकर्मण्य एवं कामजोर होंगे, जरूरत ठोस आर्थिक विकास व रोजगार के अवसर सृजन की होनी चाहिए।