
बृज खंडेलवाल
कुछ समय पहले तमिल नाडु के एक छोटे शहर में जाना हुआ। अब आप कल्पना कीजिए— अपने ही देश में सफर पर निकले हैं, पर अचानक आपको महसूस होता है कि आपकी ज़ुबान ही आपके खिलाफ है। रेलवे स्टेशन पर टिकट खिड़की वाला आपकी भाषा नहीं समझता, सड़क का साइनबोर्ड पराई लिपि में है, और आसपास के लोग आपको अजनबी निगाहों से देखते हैं। यही है आज़ाद भारत का सबसे गहरा जख्म—भाषाई अलगाव। यह जख्म उस ऐतिहासिक भूल का नतीजा है, जब 1956 में पंडित नेहरू की सरकार ने राजनीतिक दबाव में आकर राज्यों का ऊटपटांग, बेतरतीब गठन भाषाई आधार पर कर डाला।
बेशक भारत की “विविधता में एकता” को सराहा जाता है, लेकिन भाषाई अराजकता आज सहअस्तित्व की जगह संघर्ष का चेहरा बन चुकी है। आज़ादी के 75 साल बाद भी भारत ‘राष्ट्रीय भाषा’ पर सहमति नहीं बना पाया है। नतीजतन, क्षेत्रीय भाषाई आंदोलनों ने कई राज्यों में सामाजिक दरारें चौड़ी की हैं और अनावश्यक राजनीतिक विरोध को अमरवेल के तरह पनपने का मौका दिया है।
1953 में गठित स्टेट्स रीऑर्गनाइजेशन कमीशन (SRC) ने साफ कहा था कि राज्य भूगोल, संसाधन और प्रशासनिक सुविधा के आधार पर बनाए जाने चाहिए। लेकिन 1956 में नेहरू ने राजनीतिक दबाव में आकर राज्यों का गठन भाषाई पहचान के आधार पर किया। इसी से शुरू हुआ एक ऐसा सिलसिला जिसने भारत को बार-बार झकझोरा। डॉ. अंबेडकर, सरदार के.एम. पन्निकर, आचार्य कृपलानी, काका कालेलकर और डॉ. लोहिया जैसे चिंतकों ने चेताया था कि भाषा-आधारित राज्यों का प्रयोग भविष्य में विभाजनकारी साबित होगा, पर उनकी चेतावनियों को अनसुना कर दिया गया।
परिणाम साफ है—
1965 में तमिलनाडु का हिंदी-विरोध हिंसक हुआ; सैकड़ों मौतें और आत्मदाह।
कर्नाटक–महाराष्ट्र सीमा विवाद (बेलगावी) आज तक अनसुलझा।
असम आंदोलन और असमिया–बांग्ला संघर्ष ने 80 के दशक में हिंसा और लाखों विस्थापन दिए।
पंजाब का पंजाबी आंदोलन धीरे-धीरे खालिस्तान जैसी अलगाववादी हिंसा में तब्दील हुआ।
आज भी विवाद थमे नहीं हैं।
NEET और UPSC जैसी परीक्षाओं में भाषा को लेकर असमानता का आरोप है। तमिलनाडु और कर्नाटक में त्रिभाषा फार्मूला को “भाषाई साम्राज्यवाद” करार दिया गया। बंगाल में हिंदीभाषी प्रवासियों और बांग्ला संगठनों के बीच तनाव बना हुआ है। बेंगलुरु में हिंदी साइनबोर्ड हटाने की घटनाएँ ताज़ा मिसाल हैं। नागालैंड और मणिपुर में भी स्थानीय भाषाओं को “अधिकार” दिलाने की मांग ने केंद्र और राज्यों को आमने-सामने ला खड़ा किया है। स्पष्ट है कि भारत में भाषाई कट्टरता महज़ इतिहास नहीं, बल्कि आज की राजनीति और सामाजिक असहमति का भी ईंधन है।
दुनिया में बेहतर उदाहरण मौजूद हैं। स्विट्जरलैंड में चार आधिकारिक भाषाएँ होते हुए भी राज्य भाषा पर नहीं बंटे। सिंगापुर ने चार भाषाओं को समान दर्जा दिया लेकिन शासन अंग्रेज़ी से चलता है। यानी संस्कृति भाषा से परे भी जीवित रह सकती है। लेकिन भारत ने भाषा को राजनीति और सत्ता का औजार बना दिया।
आज भारत में 28 राज्य और 8 केंद्रशासित प्रदेश हैं और लगभग हर समय नए राज्यों की मांग उठती रहती है। जबकि डिजिटल कनेक्टिविटी और AI अनुवाद ने भाषाई दूरी मिटा दी है। इसलिए नए भारत को चाहिए कि वह एक वैज्ञानिक और तर्कसंगत राज्य पुनर्गठन की दिशा में आगे बढ़े।
अब वक्त आ गया है कि एक नए राज्य पुनर्गठन आयोग इस पर विचार करके नई सिफारिशें दे। राज्य जनसंख्या, भूगोल और संसाधन पर आधारित हों, न कि भाषा पर। क्षेत्रीय भाषाओं को सामाजिक और सांस्कृतिक मंच पर बढ़ावा मिले, पर सत्ता और राजनीति का आधार न बनाया जाए।
1956 का भाषाई प्रयोग भारत में विभाजन और विद्वेष की स्थायी जड़ बन चुका है। नेहरू की उस भूल को अब सुधारने का समय है। अगर भारत को वास्तव में “विविधता में एकता” कायम रखनी है, तो भाषा को संघर्ष का हथियार नहीं बल्कि सांस्कृतिक धरोहर बनाना होगा।
नया SRC इस “भाषाई बम” को डिफ्यूज़ कर सकता है और एक एकीकृत भारत की नींव रख सकता है—जहाँ भाषा बँटवारे का नहीं, गर्व का प्रतीक हो।