नरेंद्र मोदी 75 की ओर: मार्गदर्शक मंडल की अटकलें और भारतीय राजनीति की दिशा

Narendra Modi turns 75: Margdarshak Mandal's speculation and the direction of Indian politics

निलेश शुक्ला

17 सितम्बर 2025 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 75 वर्ष के हो जाएंगे। भारतीय राजनीति में यह केवल एक जन्मदिन नहीं है, बल्कि एक प्रतीकात्मक पड़ाव है। बीजेपी में यह उम्र विशेष महत्व रखती रही है। पार्टी ने अतीत में कई वरिष्ठ नेताओं—लाल कृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे दिग्गजों—को 75 वर्ष पार करने के बाद सक्रिय राजनीति से हटाकर मार्गदर्शक मंडल में भेज दिया था। लेकिन अब सवाल यह उठ रहा है कि क्या यही नियम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भी लागू होगा?

मोदी जी वर्ष 2014 से लगातार सत्ता में हैं। अब तक उनके प्रधानमंत्रित्व काल को 11 वर्ष पूरे हो चुके हैं और यह उनका 12वां साल है। हाल ही में 2024 के लोकसभा चुनाव में जनता ने उन्हें एक बार फिर स्पष्ट बहुमत के साथ चुना है, जिससे साफ है कि देश की जनता ने उन्हें 2029 तक प्रधानमंत्री पद की जिम्मेदारी सौंपी है। ऐसे में यह अटकलें लगाना कि मोदी जी को 75 वर्ष पूरे होने पर मार्गदर्शक मंडल में भेज दिया जाएगा, राजनीति की जटिलता और सत्ता समीकरणों का हिस्सा तो है, परंतु इसकी व्यावहारिकता संदिग्ध है।

मार्गदर्शक मंडल की राजनीति और बीजेपी का इतिहास
भारतीय जनता पार्टी ने 2014 से पहले अपने अंदर एक परंपरा बनाई थी कि 75 वर्ष से ऊपर के नेताओं को सक्रिय राजनीति की भूमिका से अलग कर मार्गदर्शक मंडल में स्थान दिया जाएगा। इसका सबसे बड़ा उदाहरण आडवाणी और जोशी हैं।
लेकिन यहाँ एक अंतर है। उस समय पार्टी में सत्ता का चेहरा नरेंद्र मोदी पहले से उभरकर सामने आ चुके थे। 2013 में उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने के बाद कार्यकर्ताओं और जनता दोनों ने उन्हें भारी समर्थन दिया। ऐसे में पुराने नेताओं को किनारे करना पार्टी के लिए मुश्किल नहीं था।

परंतु आज की स्थिति अलग है। बीजेपी में मोदी जैसा कद रखने वाला कोई दूसरा नेता मौजूद नहीं है। उनके व्यक्तित्व, लोकप्रियता और जनाधार की बराबरी कोई नहीं कर पा रहा। ऐसे में मोदी को किनारे कर देना न केवल राजनीतिक रूप से असंभव है, बल्कि पार्टी के लिए आत्मघाती कदम भी साबित हो सकता है।

मोदी की लोकप्रियता और जनता का विश्वास
मोदी जी लगातार तीन बार प्रधानमंत्री बने हैं। 2014, 2019 और 2024—तीनों चुनावों में उन्होंने पार्टी को अकेले अपने चेहरे और करिश्मे के बल पर बहुमत दिलाया। भारतीय राजनीति में यह बेहद दुर्लभ है।

आम तौर पर 11 साल से ज्यादा सत्ता में रहने वाले नेताओं को एंटी-इनकंबेंसी का सामना करना पड़ता है, लेकिन मोदी इस परंपरा को तोड़ते नजर आ रहे हैं। उनकी छवि आज भी जनता में लोकप्रिय है।

पिछले चुनाव में विपक्ष ने बेरोजगारी, महंगाई और संस्थागत हस्तक्षेप जैसे मुद्दे उठाए, लेकिन जनता ने मोदी पर भरोसा करना ज्यादा उचित समझा।

ऐसे में सवाल उठता है कि जब जनता ने मोदी को 2029 तक का जनादेश दिया है, तो क्या आरएसएस या पार्टी संगठन उन्हें मार्गदर्शक मंडल में भेजने का जोखिम उठाएंगे?

आरएसएस की भूमिका और आंतरिक खींचतान
भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के रिश्ते हमेशा चर्चा का विषय रहे हैं। आरएसएस संगठनात्मक शक्ति है, जबकि बीजेपी उसका राजनीतिक चेहरा। कई बार आरएसएस ने अपने पसंदीदा नेताओं को आगे बढ़ाने की कोशिश की है।

हाल के महीनों में यह चर्चा जोर पकड़ रही है कि आरएसएस, नितिन गडकरी को आगे लाना चाहता है। गडकरी ने सड़क एवं परिवहन मंत्रालय में शानदार काम करके अपनी पहचान बनाई है। हाईवे और इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण में उनकी उपलब्धियों को नकारा नहीं जा सकता।

लेकिन यह भी सच है कि गडकरी का जनाधार मोदी के मुकाबले बेहद सीमित है। गडकरी को अभी भी एक सक्षम मंत्री माना जाता है, लेकिन प्रधानमंत्री के स्तर का जननेता नहीं। यही कारण है कि चाहे संघ का झुकाव गडकरी की ओर हो, मोदी की बराबरी करना उनके लिए लगभग असंभव है।

विपक्ष की कमजोरी और मोदी का फायदा
किसी भी लोकतंत्र में सत्ता के साथ-साथ विपक्ष की ताकत भी भविष्य तय करती है। लेकिन भारतीय राजनीति की वर्तमान स्थिति में विपक्ष बिखरा हुआ है। कांग्रेस लगातार कमजोर हो रही है, जबकि INDIA गठबंधन में भी आपसी मतभेद सामने आते रहे हैं।

ऐसे में मोदी को कोई बड़ा चुनौतीकर्ता दिखाई नहीं देता। विपक्ष की असफलता ने मोदी के पक्ष को और मजबूत किया है।
यही कारण है कि सोशल मीडिया पर कुछ पत्रकारों और असंतुष्ट नेताओं द्वारा चलाए जा रहे अभियान—कि मोदी को मार्गदर्शक मंडल में भेजा जाए—जनता के बीच कोई खास पकड़ नहीं बना पा रहा।

विश्व राजनीति में उम्र का सवाल
आलोचक अक्सर यह तर्क देते हैं कि 75 वर्ष से ऊपर नेता सक्रिय राजनीति में नहीं रह सकते। लेकिन अंतरराष्ट्रीय उदाहरण इस दावे को कमजोर करते हैं।

● डोनाल्ड ट्रंप (अमेरिका) 78 वर्ष की उम्र में भी चुनाव लड़ रहे हैं।

● व्लादिमीर पुतिन (रूस) 72 वर्ष की उम्र में सत्ता पर काबिज हैं और आगे भी बने रहने की संभावना है।

● ईरान और चीन के कई नेता 75 से ऊपर की उम्र में भी सत्ता संभाले हुए हैं।

● इज़राइल में भी बुजुर्ग नेता राजनीतिक रूप से सक्रिय बने रहते हैं।

इन उदाहरणों से साफ है कि उम्र केवल एक संख्या है, जब तक कि जनता का समर्थन और सत्ता पर पकड़ बनी हुई हो। मोदी भी इसी श्रेणी में आते हैं।

मार्गदर्शक मंडल: हकीकत या बहाना?
अब सवाल उठता है कि क्या मोदी को मार्गदर्शक मंडल में भेजने का दबाव वाकई हकीकत है, या केवल एक राजनीतिक बहस?
सच यह है कि बीजेपी के संविधान में ऐसा कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है कि 75 वर्ष की उम्र पार करते ही नेता को पद छोड़ना होगा। यह केवल एक “परंपरा” है, जिसे पार्टी ने समय-समय पर लागू किया है।
लेकिन परंपराएं राजनीति में स्थायी नहीं होतीं। परिस्थितियों के हिसाब से नियम बदलते रहते हैं।

2029 तक का रास्ता
मोदी के सामने सबसे बड़ी चुनौती अब उनकी राजनीतिक विरासत तय करने की होगी।
● क्या वे 2029 तक सत्ता में रहकर एक चौथी जीत की नींव रखेंगे?

● या फिर वे 2029 के पहले ही किसी उत्तराधिकारी को तैयार करेंगे?

● क्या बीजेपी मोदी के बाद भी उतनी ही मजबूत बनी रह पाएगी?

ये सवाल अभी अनुत्तरित हैं। लेकिन इतना तय है कि 2029 से पहले मोदी का पद छोड़ना व्यावहारिक नहीं दिखता।

नरेंद्र मोदी 17 सितम्बर 2025 को जब 75 वर्ष के होंगे, तब राजनीति में हलचल मचना स्वाभाविक है। लेकिन उनका कद, जनता का समर्थन और पार्टी की मजबूरी देखते हुए उन्हें मार्गदर्शक मंडल में भेजना संभव नहीं दिखता।

बीजेपी में मोदी जैसा दूसरा नेता नहीं है, विपक्ष बिखरा हुआ है और जनता ने उन्हें 2029 तक का जनादेश दिया है।

इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि मोदी अभी भी भारतीय राजनीति के निर्विवाद केंद्र बने रहेंगे।

आरएसएस की इच्छा, विपक्ष का शोर और पत्रकारों की आलोचना—इन सबसे ऊपर जनता का फैसला है। और जनता ने अभी तक मोदी को ही चुना है।