
क्या नई पीढ़ी बालेन शाह जैसे चेहरों के साथ जातीय ढांचे को बदल पाएगी?
1990 में लोकतंत्र की बहाली के बाद नेपाल ने अब तक 13 प्रधानमंत्री देखे। इनमें 10 पहाड़ी ब्राह्मण और 3 क्षत्रिय रहे। मधेशी, जनजातीय, दलित और महिला समुदाय से कोई भी प्रधानमंत्री नहीं बन पाया। संसद और नौकरशाही में भी इन समुदायों की भागीदारी बेहद सीमित है। नेपाल की लगभग 35% आबादी मधेशियों की है, लेकिन सत्ता में उनका प्रभाव लगभग नगण्य है। इस पृष्ठभूमि में काठमांडू के मेयर बालेन शाह का उदय केवल एक राजनीतिक घटना नहीं, बल्कि जातीय असमानता के खिलाफ एक प्रतीकात्मक चुनौती है, जिसे युवा पीढ़ी खुले दिल से अपना रही है।
डॉ. सत्यवान सौरभ
नेपाल हिमालय की गोद में बसा छोटा-सा देश है। आकार में भले छोटा हो, लेकिन राजनीति और जातीय समीकरण के लिहाज से इसकी जटिलता किसी बड़े देश से कम नहीं। नेपाल पिछले तीन दशकों से लोकतंत्र का प्रयोग कर रहा है, लेकिन सच्चाई यह है कि यह लोकतंत्र अब भी अधूरा है। सत्ता और संसाधनों पर एक ही वर्ग का कब्ज़ा है—पहाड़ी ब्राह्मण और क्षत्रिय जातियाँ। संसद से लेकर प्रशासन और सेना तक, हर जगह यही जातियाँ हावी हैं। मधेशी, जनजातीय, दलित और महिलाएँ अब भी सत्ता की सीढ़ियों के निचले पायदान पर खड़ी हैं।
1990 में नेपाल में बहुदलीय लोकतंत्र की वापसी हुई थी। जनता को उम्मीद थी कि अब सत्ता में विविधता आएगी और हर समुदाय को बराबरी का अवसर मिलेगा। लेकिन हुआ इसके ठीक उल्टा। 1990 से अब तक नेपाल ने 13 प्रधानमंत्री देखे। इनमें से 10 पहाड़ी ब्राह्मण और 3 क्षत्रिय रहे। यानी 35% मधेशियों की आबादी होने के बावजूद एक भी मधेशी प्रधानमंत्री नहीं बन पाया। जनजातीय और आदिवासी समूह संसद में मौजूद हैं, लेकिन उनके नेता केवल प्रतीकात्मक पदों तक सीमित रहे। दलित और महिलाएँ तो आज भी सत्ता के सबसे हाशिये पर खड़ी हैं। यह तस्वीर बताती है कि नेपाल का लोकतंत्र कितनी गहरी जातीय असमानता से ग्रस्त है। लोकतंत्र के नाम पर चेहरे तो बदले, लेकिन सत्ता का चरित्र वही रहा—ब्राह्मण और क्षत्रिय केंद्रित।
नेपाल की आधी से ज़्यादा आबादी 35 साल से कम उम्र की है। यही वह नई पीढ़ी है जिसे जनरेशन-Z कहा जाता है। यह सोशल मीडिया, पॉप कल्चर और वैश्विक राजनीति से जुड़ी हुई है। इनके लिए जाति और वंश की राजनीति पुरानी और अप्रासंगिक है। यह पीढ़ी पारदर्शिता चाहती है, समान अवसर चाहती है और सबसे बड़ी बात यह है कि यह बदलाव को केवल सोचती नहीं बल्कि मांग भी करती है। यही कारण है कि काठमांडू के मेयर बालेन शाह आज नेपाल के युवाओं के बीच परिवर्तन का प्रतीक बन चुके हैं।
2022 में जब बालेन शाह ने काठमांडू के मेयर का चुनाव जीता तो यह केवल एक चुनाव नहीं था, बल्कि सत्ता की पुरानी धारणाओं पर सीधी चोट थी। काठमांडू दशकों से मुख्यधारा की पार्टियों—नेपाली कांग्रेस, UML और माओवादी केंद्र—का गढ़ माना जाता था। लेकिन शाह ने स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में सबको चौंका दिया। वे न तो परंपरागत राजनीति से आए थे और न ही किसी जातीय वंश से जुड़े थे। उनकी पृष्ठभूमि हिप-हॉप कलाकार और इंजीनियर की थी। वे मधेशी भी हैं और बौद्ध भी। यानी हर लिहाज से नेपाल की मुख्यधारा की राजनीति से बिल्कुल अलग। उनकी जीत ने यह संदेश दिया कि जनता अब विकल्प चाहती है। खासकर युवा पीढ़ी, जो बार-बार जातीय गणित से चलने वाली राजनीति से ऊब चुकी है।
बालेन शाह का असर केवल राजनीति तक सीमित नहीं है। वे सोशल मीडिया पर बेहद सक्रिय हैं और सीधा संवाद करने का तरीका जानते हैं। नेपाल की मौजूदा राजनीति जहाँ अभी भी भाषण और रैलियों पर निर्भर है, वहीं शाह डिजिटल युग की राजनीति कर रहे हैं। उनका संगीत, उनकी स्पष्ट बातें और उनकी स्वतंत्र छवि युवाओं को तुरंत आकर्षित करती है। यह फर्क बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि नेपाल की राजनीति में पहली बार कोई ऐसा चेहरा सामने आया है जो राजनीति को कूल बना रहा है।
लेकिन सवाल यही है कि क्या नेपाल की पुरानी सत्ता संरचना इतनी आसानी से टूट जाएगी? नेपाली कांग्रेस, UML और माओवादी जैसे दल दशकों से सत्ता पर काबिज हैं। इनके नेता ब्राह्मण और क्षत्रिय समुदाय से आते हैं और इनकी पकड़ प्रशासन, सेना और नौकरशाही तक फैली हुई है। यह पूरा ढांचा बालेन शाह जैसे किसी नेता के लिए दीवार की तरह खड़ा हो सकता है। संभावना है कि शाह को “अनुभवहीन” या “पॉपुलिस्ट” कहकर खारिज करने की कोशिश की जाएगी। उनकी स्वतंत्र पहचान पर सवाल उठाए जाएंगे। और सबसे बड़ी बात यह है कि सत्ता में बैठे लोग कभी आसानी से अपनी कुर्सी नहीं छोड़ते।
अगर नेपाल बालेन शाह जैसे नेता को प्रधानमंत्री बनने का मौका देता है, तो यह केवल एक व्यक्ति की जीत नहीं होगी, बल्कि ऐतिहासिक होगा। नेपाल पहली बार किसी गैर-ब्राह्मण/क्षत्रिय प्रधानमंत्री को देखेगा। यह संदेश जाएगा कि लोकतंत्र केवल नाम का नहीं बल्कि वास्तविक रूप से समावेशी है। मधेशी, जनजातीय और दलित समुदाय को यह विश्वास मिलेगा कि सत्ता में उनकी भी हिस्सेदारी है। युवाओं को लगेगा कि उनकी आवाज़ मायने रखती है।
लेकिन अगर बदलाव की इस मांग को दबाया गया, तो इसके नतीजे गंभीर होंगे। युवा पीढ़ी पहले ही अधीर है। वे सोशल मीडिया पर अपनी नाराज़गी और सपनों को साझा कर रहे हैं। अगर उनकी आवाज़ दबाई गई, तो असंतोष सड़क पर आंदोलन में बदल सकता है। नेपाल ने पहले भी जनआंदोलन देखे हैं और इतिहास गवाह है कि जब जनता चाहती है, तो कोई भी सत्ता ढांचा स्थायी नहीं रह पाता।
नेपाल आज दो राहों पर खड़ा है। एक तरफ पुरानी राजनीति है, जहाँ सत्ता कुछ जातियों के बीच बंटी हुई है। दूसरी तरफ नई राजनीति है, जो समावेशी, पारदर्शी और युवाओं से जुड़ी है। बालेन शाह इस बदलाव का प्रतीक हैं। लेकिन असली सवाल यह नहीं है कि शाह प्रधानमंत्री बनेंगे या नहीं। असली सवाल यह है कि क्या नेपाल जातीय ढांचे वाली राजनीति से आगे बढ़ पाएगा या नहीं।
अगर नेपाल यह कदम उठाता है, तो वह दक्षिण एशिया में एक मिसाल बन सकता है। भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे देशों में भी राजनीति अक्सर वंशवाद और जातीय समीकरण में उलझी रहती है। नेपाल अगर इस ढांचे से बाहर निकलता है, तो यह पूरे क्षेत्र के लिए प्रेरणा होगी। लेकिन अगर पुरानी सत्ता संरचना कायम रहती है, तो लोकतंत्र अधूरा ही रहेगा। युवाओं का भरोसा टूटेगा और यह भरोसा टूटना किसी भी लोकतंत्र के लिए सबसे खतरनाक स्थिति होती है।
नेपाल की राजनीति दशकों से पहाड़ी ब्राह्मण और क्षत्रिय जातियों के कब्ज़े में रही है। लोकतंत्र आया, चेहरे बदले, लेकिन चरित्र वही रहा। आज की पीढ़ी इसे चुनौती दे रही है। बालेन शाह इसका चेहरा हैं। यह पीढ़ी जाति, वंश और सत्ता के पुराने ढांचे को स्वीकार नहीं करना चाहती। नेपाल का लोकतंत्र अब एक ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ा है। या तो यह समावेशी होकर सबको बराबरी देगा, या फिर पुरानी असमानता को जारी रखेगा।
भविष्य का फैसला अब नेपाल की नई पीढ़ी के हाथ में है और उनकी मांग साफ है—अबकी बार राजनीति सबकी, सिर्फ ब्राह्मण-छत्री की नहीं।