ललित गर्ग
हर वर्ष 11 नवंबर को हम राष्ट्रीय शिक्षा दिवस के रूप में मनाते हैं। यह दिन केवल औपचारिक उत्सव का नहीं बल्कि आत्ममंथन का अवसर है। यह दिन हमें याद दिलाता है कि शिक्षा केवल परीक्षा उत्तीर्ण करने का माध्यम नहीं बल्कि राष्ट्र के चरित्र, संस्कृति और सृजनशीलता का आधार है। यह दिवस स्वतंत्र भारत के प्रथम शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की स्मृति में मनाया जाता है, जिन्होंने शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन, आत्मनिर्भरता और राष्ट्रीय एकता का सबसे सशक्त माध्यम माना। वे न केवल एक प्रखर राष्ट्रनायक थे बल्कि एक दूरदर्शी विचारक भी थे जिन्होंने कहा था कि “शिक्षा वह शेरनी है, जिसके दूध को पीने के लिए साहस चाहिए।” मौलाना आज़ाद का मानना था कि भारत की शिक्षा पद्धति ऐसी हो जो हर वर्ग, हर समुदाय, हर व्यक्ति को अवसर दे। उन्होंने प्राथमिक से उच्च शिक्षा तक सबके लिए समान अवसर की बात कही। उनका सपना था कि शिक्षा केवल ज्ञान अर्जन का माध्यम न रहकर जीवन को दिशा देने वाली प्रक्रिया बने। आज जब हम उनके विचारों की ओर देखते हैं तो यह महसूस होता है कि हमारी शिक्षा प्रणाली ने तकनीकी रूप से प्रगति की है, लेकिन मानवीय दृष्टि और मूल्य शिक्षा में कमी आई है। हमारी शिक्षा शांतिप्रिय, अहिंसक एवं सर्वांगीण विकसित बनाने की बजाय हिंसक, बीमार एवं अशांत बना रही है।
आज भारत की शिक्षा व्यवस्था में अनेक विसंगतियां हैं। शिक्षा आज ज्ञान की जगह अंक और प्रमाणपत्र की होड़ बन चुकी है। विद्यार्थी रट्टा मारने की मशीन बनते जा रहे हैं, सोचने और सृजन करने की क्षमता कुंठित हो रही है। शिक्षा में नैतिकता, सह-अस्तित्व, करुणा और अहिंसा जैसे मूल्य गौण हो गए हैं। समाज में शिक्षक की प्रतिष्ठा घटती जा रही है, वे अब प्रेरणा के स्रोत की बजाय ‘सिलेबस पूरा करने’ वाले कर्मचारी बनते जा रहे हैं। शहरी और ग्रामीण शिक्षा में गहरी असमानता है, शहरों में अत्याधुनिक विद्यालय हैं तो गाँवों में अब भी शिक्षा सुविधाओं का अभाव है। देश में लाखों एकल शिक्षक विद्यालय है। डिग्रियाँ बढ़ रही हैं पर रोजगार घट रहे हैं, शिक्षा और जीवन की आवश्यकताओं में असंतुलन बढ़ता जा रहा है। इन विसंगतियों को दूर करना ही राष्ट्रीय शिक्षा दिवस की वास्तविक सार्थकता है। आज का विद्यार्थी बचपन से ही एक ऐसी अंधी एवं प्रतिस्पर्धी दौड़ में धकेल दिया जाता है, जिसमें लक्ष्य अंक, ग्रेड, और रैंक बन गए हैं-ज्ञान, संवेदना और चरित्र नहीं। स्कूल अब शिक्षालय नहीं, बल्कि परीक्षा-केंद्र यानी गलाकाट प्रतियोगिता के केन्द्र बन चुके हैं। माता-पिता, शिक्षक और समाज-सभी ने मिलकर एक ऐसा माहौल बना दिया है, जहाँ “सफलता” का अर्थ केवल डॉक्टर, इंजीनियर, आईएएस या उच्च वेतन वाली नौकरी तक सीमित हो गया है। शिक्षा अब व्यक्ति के भीतर के मनुष्यत्व, रचनात्मकता और संवेदना को विकसित करने का माध्यम नहीं रही, बल्कि उसने जीवन को “प्रदर्शन की प्रतियोगिता” बना दिया है। छोटे बच्चों पर कोचिंग का बोझ, अभिभावकों की अपेक्षाएँ, और असफलता का भय?-ये तीन त्रिकोणीय दबाव उन्हें धीरे-धीरे मानसिक रूप से तोड़ देते हैं। शिक्षा अब एक बोझ और मानसिक तनाव का कारण बन गयी है।
भारत की शिक्षा प्रणाली को लेकर समय-समय पर प्रश्न खड़े होते रहे हैं। शिक्षा की विसंगतियों एवं दबावों के चलते भी अनेक सवाल खड़े हैं। इन्हीं से जुड़ा यह एक बेहद हृदय विदारक और चिंताजनक तथ्य है कि एक वर्ष में लगभग 14,000 स्कूली बच्चों ने आत्महत्या कर ली। इस तथ्य की पुष्टि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ( एनसीआरबी ) भी कर रही है। अधिक घातक तथ्य यह है कि बीते एक दशक में छात्रों की आत्महत्या के मामलों में लगभग 65 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। वर्ष 2019 की तुलना में यह संख्या 34 प्रतिशत अधिक है। यह केवल आंकड़े नहीं हैं, बल्कि उन मासूम सपनों की समाधियाँ हैं जिन्हें हमारी शिक्षा प्रणाली ने दम तोड़ने पर विवश कर दिया। यह स्थिति राष्ट्रीय शिक्षा दिवस मनाते हुए किसी एक स्कूल, राज्य या केन्द्रसरकार के लिये ही नहीं, बल्कि आमजन के लिये विमर्श का विषय बनना चाहिए।
भारत की शिक्षा केवल बौद्धिक नहीं बल्कि समग्र विकास का माध्यम होनी चाहिए। प्राचीन भारत की गुरुकुल परंपरा में विद्यार्थी के शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक विकास पर समान बल दिया जाता था। शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञान प्राप्ति नहीं बल्कि आत्म-ज्ञान, आत्म-नियंत्रण और समाज सेवा की भावना जगाना होता था। आज फिर उसी संतुलित दृष्टि की आवश्यकता है। भावात्मक शिक्षा का अर्थ है संवेदनशीलता का विकास। एक विद्यार्थी जब दूसरे के दुःख को महसूस करना सीखता है तभी वह सच्चा नागरिक बनता है। मानसिक शिक्षा का अर्थ है एकाग्रता, अनुशासन और मानसिक दृढ़ता। यह वह शक्ति है जो व्यक्ति को संकटों में भी स्थिर रखती है। बौद्धिक शिक्षा तर्क, विवेक और सृजनशीलता का विकास करती है।
शारीरिक शिक्षा स्वस्थ तन के बिना स्वस्थ मन संभव नहीं होने का बोध कराती है, योग, खेल और व्यायाम को शिक्षा का अभिन्न भाग बनाना चाहिए। शैक्षणिक शिक्षा में ज्ञान और व्यावसायिक दक्षता दोनों का समन्वय होना चाहिए ताकि विद्यार्थी जीवनोपयोगी कौशल प्राप्त कर सके। इन सभी पक्षों का समन्वय ही सम्पूर्ण शिक्षा पद्धति कहलाता है।
भारत की शिक्षा पद्धति ऐसी होनी चाहिए जो परंपरा और आधुनिकता का संगम बने। गांधीजी ने कहा था कि “शिक्षा का मतलब है शरीर, मन और आत्मा का समान विकास।” यही भारत की शिक्षा की आत्मा है। हमारी शिक्षा जीवन-केंद्रित हो, केवल नौकरी-केंद्रित नहीं। वह मूल्य-आधारित हो ताकि समाज में नैतिकता और मानवता बनी रहे। उसमें स्थानीय और वैश्विक दृष्टि का संगम हो ताकि विद्यार्थी अपनी जड़ों से जुड़ा रहे पर विश्व की नवीनतम तकनीक से भी परिचित हो। उसमें अनुसंधान और नवाचार को प्रोत्साहन मिले ताकि भारत ‘ज्ञान अर्थव्यवस्था’ का नेतृत्व कर सके। वह समानता और समावेशिता को आधार बनाए चाहे वह भाषा, लिंग या वर्ग के स्तर पर क्यों न हो।
कोई भी शिक्षा प्रणाली उतनी ही सशक्त होती है जितना सशक्त उसका शिक्षक होता है। शिक्षक केवल पढ़ाने वाला नहीं बल्कि प्रेरक, निर्माता और मार्गदर्शक होता है। आज आवश्यकता है कि शिक्षकों को उचित सम्मान, प्रशिक्षण और आत्मसंतोष मिले। मौलाना आज़ाद ने कहा था कि “अच्छे शिक्षक ही राष्ट्र की आत्मा हैं।” शिक्षक को तकनीकी दक्षता के साथ-साथ भावनात्मक और नैतिक दृष्टि से भी सशक्त बनाना होगा। भारत की नई शिक्षा नीति 2020 ने शिक्षा में कई सुधारों का मार्ग प्रशस्त किया है। 5$3$3$4 संरचना, मातृभाषा में शिक्षा, कौशल विकास और बहुविषयी अध्ययन जैसी अवधारणाएं स्वागतयोग्य हैं। लेकिन इन सुधारों का वास्तविक प्रभाव तभी पड़ेगा जब इन्हें जमीनी स्तर पर संवेदनशीलता और समर्पण से लागू किया जाए। भारत की शिक्षा का लक्ष्य केवल डिग्रियाँ बाँटना नहीं बल्कि विश्व को नैतिकता और आध्यात्मिकता की दिशा देना होना चाहिए। हमारे यहाँ शिक्षा का अर्थ रहा है- “सा विद्या या विमुक्तये” अर्थात् जो मुक्ति दे वही सच्ची विद्या है। आज शिक्षा का अर्थ हो गया है- “सा विद्या या नियुक्तये” यानी जो नौकरी दे चही सच्ची शिक्षा है। भारत यदि अपनी शिक्षा में विज्ञान के साथ विवेक, तकनीक के साथ नैतिकता और प्रतिस्पर्धा के साथ करुणा को जोड़ दे तो वह विश्व का मार्गदर्शक बन सकता है। राष्ट्रीय शिक्षा दिवस हमें यह याद दिलाता है कि शिक्षा केवल आर्थिक विकास का नहीं बल्कि संस्कृति, चरित्र और चेतना के निर्माण का माध्यम है। मौलाना आज़ाद के स्वप्न के अनुरूप यदि भारत की शिक्षा नीति में समानता, गुणवत्ता, मूल्य और आत्मा का समन्वय हो सके तो यह राष्ट्र फिर से “विश्वगुरु” बनने की दिशा में अग्रसर हो सकता है। शिक्षा का लक्ष्य केवल यह नहीं कि हम क्या बनें बल्कि यह भी कि हम किसके लिए बनें। शिक्षा यदि मनुष्य को संवेदनशील, आत्मनिष्ठ और समाजोपयोगी बना दे तो वही मौलाना आज़ाद की सच्ची श्रद्धांजलि होगी।





