अब पराली बनी सियासत वाली

Now stubble has become political

ऋतुपर्ण दवे

ठण्ड की दस्तक के साथ ही, धान की कटाई और पराली जलाई के बीच आई दिवाली पर खतरनाक स्तर तक पहुंचे प्रदूषण के लिए फिर पराली को ही जिम्मेदार ठहराने में पंजाब और दिल्ली की राज्य सरकारें इस बार आमने-सामने रहीं। यह सच है कि पराली के चलते दोनों राज्यों के अलावा भी कई राज्य इसका प्रदूषण भुगत रहे हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि पंजाब-दिल्ली की सरकारें बजाए सुलह के एक दूसरे को दोषी ठहरा, प्रदूषण से कैसे निपटेंगी? आसमान से निगरानी और लाइव तस्वीरों के इस दौर में भी सच सामने होने के बावजूद राजनीतिक बयानबाजी बेहद हैरानगी भरी है। सच है कि प्रदूषण की दमघोटू हवा इसके प्रभाव में आने वाले हर किसी को तकलीफ देती है। यह भी सही है कि कोरोना के बाद बहुतेरे लोगों में प्रदूषण को बरदास्त करने की क्षमता भी घटी है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि सरकारें बयानों से बचाव करें। हालाकि इस बार दिल्ली में क्लाउड सीडिंग यानी कृत्रिम बारिश की बात की जा रही है जो यह लिखे जाने तक दिखी नहीं। फिर भी देखना होगा यह तकनीक कितनी कामियाब होती है। लेकिन प्रदूषण को लेकर यह स्थाई विकल्प हो पाए, ऐसा लगता नहीं है।

इधर सुप्रीम कोर्ट ने भी बीते बरस, दिल्ली में बढ़े वायु प्रदूषण पर केंद्र को कड़ी फटकार लगाई तो पंजाब और हरियाणा सरकारों को भी चेताया। बावजूद इसके तो काबू पाया जा सका न ही कोई विकल्प खोजा गया। अदालत में तब पेश जवाब पर ही सवाल खड़े होना लाजिमी थे जो हुए। फिलाहाल दिल्ली में दिवाली के फौरन बाद प्रदूषण का स्तर बेहद खतरनाक पहुंचना बेहद चिंताजनक है। 301 से ऊपर का वायु गुणवत्ता सूचकांक यानी एयर क्वालिटी इण्डेक्स(एएक्यूआई) इमरजेंसी स्थिति मानी जाती है। दिल्ली में 27 अक्टूबर तक प्रदूषण के स्तर में सुधार जरूर हुआ है, लेकिन धान कटाई और पराली जलाने की घटनाओं में भी पंजाब व आसपास तेजी से स्तर कब कहां पहुंच जाए कहना मुश्किल है। ध्यान देने वाली बात यह है कि न केवल एनसीआर बल्कि दूसरे क्षेत्रों में प्रदूषण बढ़ा हुआ है। पंजाब भी बुरी तरह से इसकी गिरफ्त में है। लेकिन यह सच है कि दिल्ली के मुकाबले वहां प्रदूषण अभी कम है। भले अभी पंजाब को कैसे दोषी ठहराया जा सकता है क्योंकि इसी मंगलवार लुधियाना में दिवाली के ठीक पहले 271, जालंधर में 247, अमृतसर में 224, पटियाला में 206 वायु गुणवत्ता सूचकांक दर्ज किया गया।

केन्द्रीय प्रदूषण बोर्ड के आंकड़ों जो कि 27 अक्टूबर तक के हैं देखने से पता चलता है कि दिल्ली में प्रदूषण में गिरावट के बावजूद वायु गुणवत्ता सूचकांक 301 पर बना हुआ है जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों से 1,900 प्रतिशत अधिक है। इसी दिन बहादुरगढ़ में वायु गुणवत्ता सूचकांक 381 से बढ़कर 387 हो गया है। जबकि दिल्ली सहित नौ शहरों में यह 300 के पार है। वहीं देश में शिलांग की हवा सबसे साफ रही जबकि भारत के 256 शहरों में से केवल 23 प्रतिशत में ही हवा साफ है यानी 77 प्रतिशत में हवा खराब है। गनीमत है कि बीच-बीच में बदलते मौसम से हालात इस बार पिछली बार जैसे नहीं बन पा रहे हैं।
समझना होगा कि प्रदूषण के लिए केवल भारत ही नहीं पाकिस्तान की पराली का धुंआ भी जिम्मेदार है। नासा की एक रिपोर्ट, वर्ल्डव्यू एनिमेशन, सेटेलाइट तस्वीरें, चंडीगढ़ पीजीआई और पंजाब यूनिवर्सिटी के शोध से भी साफ हो गया है कि भारतीय पंजाब के मुकाबले पाकिस्तानी पंजाब में पराली ज्यादा जलती। इस पर पड़ोसी पर भी लगाम की जरूरत है।

आखिर कैसी कोशिशें हैं कि सालों साल से यह मसला बजाए सुलझने के हर बार नए आरोपों में घिर जाता है? रही बात सरकारों की तो केन्द्र या राज्य की सरकारें किसानों को लेकर दावा कुछ भी करें लेकिन किसानों की भी तो अपनी समस्याएं हैं। संसाधनों की कमीं से जूझते छोटे-छोटे किसानों को भला ऋण कैसे मिलेगा ताकि पराली से विभिन्न उत्पाद बनाने वाली मशीनें खरीद सकें? किसानों की अपनी मजबूरी है।

खेती मौसम पर निर्भर है और एक-दो दिन का बिगड़ा मौसम महीनों की मेहनत पर पानी फेर देता है। इसी चलते किसान भी तुरंत पराली जलाने को मजबूर होते हैं। किसान अगली फसल की बुवाई की जल्दबाजी मौसम के डर के बीच हालातों से जूझता है। दूसरी फसल के लिए बहुत कम वक्त के चलते खासकर छोटे किसान असमंजस में जानते-समझते मजबूरन पराली जलाने का अपराध करते हैं।

दिल्ली में वायु प्रदूषण दशकों पुराना मुद्दा है। 1985 में भी आवाज उठी थी। जब कीर्ति नगर जैसे घने रिहायशी क्षेत्र में एक फर्टीलाइजर संयंत्र की जहरीली हवा से लोग बीमार होने लगे। तब एक वकील एम.सी. मेहता ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की। हकीकत देखिए, सुनवाई के दौरान ही प्लांट से ओलियम गैस रिसी और तीस हजारी कोर्ट के एक वकील की जान चली गई। कइयों की हालत बिगड़ी। इसके बाद कई कंपनियों पर प्रतिबंध लगा। आबादी वाले क्षेत्र में क्लोरीन, सुपर क्लोरीन, ओलियम, फॉस्फेट जैसी जहरीले उत्पाद बनाने पर रोक लगी। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने भी प्रदूषण मुक्त वातावरण में रहने को मौलिक अधिकार बनाया।

धरातल पर देखें तो सिवाय कागजी योजना बनाने, बैठकें और आखिर में आरोप-प्रत्यारोप से ज्यादा भला अब तक क्या हासिल हुआ है? न तमाम प्रभावित राज्य सरकारें और न ही केन्द्र, पराली के दूसरे उपयोग किसानों को समझा पाया। क्लाउड सीडिंग से कृत्रिम बारिश की बातें करने वाली दिल्ली सरकार भी खतरनाक स्तर तक प्रदूषण से फौरी राहत ही दिला पाई जो कुछ देशों ने कर दिखाया। बजाए आपसी तू-तू, मैं-मैं के पराली संग्रहण, इसके व्यावसायिक उपयोगों पर पूरे साल चर्चा होती तो शायद जलाने की नौबत ही न आती। लगता नहीं कि पराली मुद्दा गंभीर जरूर है लेकिन निदान असंभव नहीं? काश, सरकारी तंत्र और हुक्मरान यह समझ पाते!