“वन नेशन,वन इलेक्शन” सुधार या किसी एक पार्टी की जीत का बनेगा आधार

संदीप ठाकुर

पूरे देश में एक साथ चुनाव। माेदी सरकार ने अपने इस सपने काे आकार देने
का प्रयास शुरू कर दिए हैं। इसकी संभावनाओं का तलाशने के लिए पूर्व
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अगुवाई में एक समिति का गठन कर दिया गया है।
भारतीय इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि देश के प्रथम नागरिक काे सरकार
द्वारा काेई काम साैंपा गया हाे। समिति काे जल्द से जल्द रिपोर्ट सौंपने
काे कहा गया है। ऐसे में सवाल यह है कि आखिर यह एक देश, एक चुनाव क्या है
? इससे देश काे क्या फायदा हाेगा ? क्या चुनाव आयाेग इसके लिए तैयार है ?
इस प्रक्रिया में कितना समय लगेगा ? क्या तमाम राजनीतिक दल इसके लिए
तैयार हाेंगे ? देश भर में एक साथ चुनाव के लिए क्या हमारे पास संसाधन
हैं ? कमेटी का मकसद दलों, नेताओं के साथ आम लोगों से भी सलाह मशविरा
करना है। इसके बाद एक ड्राफ्ट तैयार किया जाएगा। जिसकाे आधार बना सरकार
कानून बनाने के लिए आगे बढ़ेगी और संसद में बिल लेकर आएगी।

क्याें जरूरत है ” वन नेशन,वन इलेक्शन ” की

भारत उन देशों में हैं जहां चुनाव कराना बेहद खर्चीला माना जाता है। वन
नेशन, वन इलेक्शन के पक्ष में सबसे बड़ी दलील यही दी जा रही है कि इससे
चुनावी खर्च में कमी आएगी। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के मुताबिक साल 2019
में हुए आम चुनावों पर 55,000 हजार करोड़ रुपये का खर्च आया था जो 2016
में अमेरिका में हुए राष्ट्रपति चुनावों से भी अधिक है। पिछले लोकसभा
चुनावों में हर वोटर पर आठ डॉलर का खर्च आया था। जबकि देश में आधी से
ज्यादा आबादी रोजाना तीन डॉलर से भी कम पर गुजारा करने को मजबूर है। ऐसे
में चुनावों पर भारी-भरकम खर्च को लेकर सवाल उठने ठीक हैं। सेंटर फॉर
मीडिया स्टडीज के मुताबिक 1998 से 2019 के बीच चुनावी खर्च में छह गुना
बृद्धि हुई है।1998 में यह राशि 9,000 करोड़ रुपये थी जबकि 2019 में
55,000 करोड़ रुपये पहुंच गई।

चुनावी खर्च हाेगा ?

पीएम मोदी कह चुके हैं कि एक देश, एक चुनाव से देश के संसाधनों की बचत
होगी। इसके साथ ही विकास की गति भी धीमी नहीं पड़ेगी। 2019 के लोकसभा
चुनावों में 60,000 करोड़ रुपये खर्च किए गए थे। इस राशि में चुनाव लड़ने
वाले राजनीतिक दलों द्वारा खर्च की गई राशि और चुनाव आयोग ऑफ इंडिया
द्वारा चुनाव कराने में खर्च की गई राशि शामिल है। वहीं, 1951-1952 में
हुए लोकसभा चुनाव में 11 करोड़ रुपये खर्च हुए थे। इस संबंध में लॉ कमीशन
का कहना था कि अगर 2019 में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाते
हैं तो 4,500 करोड़ का खर्चा बढ़ेगा। ये खर्चा ईवीएम की खरीद पर होगा
लेकिन 2024 में साथ चुनाव कराने पर 1,751 करोड़ का खर्चा बढ़ेगा। इस तरह
धीरे-धीरे ये अतिरिक्त खर्च भी कम होता जाएगा। इसके अलावा, एक साथ चुनाव
कराने के समर्थकों का तर्क है कि इससे पूरे देश में प्रशासनिक व्यवस्था
में दक्षता बढ़ेगी।

क्या हैं चुनौतियां?

एक साथ चुनाव कराने के कई चुनौतियां भी हैं। इसके लिए राज्य विधानसभाओं
के कार्यकाल को लोकसभा के साथ जोड़ने के लिए संवैधानिक संशोधनों की
आवश्यकता होगी। इसके अलावा, लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के साथ-साथ अन्य
संसदीय प्रक्रियाओं में भी संशोधन करने की आवश्यकता होगी। एक साथ चुनाव
कराने को लेकर क्षेत्रीय दलों का प्रमुख डर यह है कि वे अपने स्थानीय
मुद्दों को मजबूती से नहीं उठा पाएंगे क्योंकि राष्ट्रीय मुद्दे केंद्र
में हैं। इसके साथ ही वे चुनाव खर्च और चुनाव रणनीति के मामले में
राष्ट्रीय दलों के साथ प्रतिस्पर्धा करने में भी असमर्थ होंगे। साल 2015
में आईडीएफसी संस्थान की तरफ से की गई स्टडी में पाया गया कि यदि लोकसभा
और राज्यों के चुनाव एक साथ होते हैं तो 77 प्रतिशत संभावना है कि मतदाता
एक ही राजनीतिक दल या गठबंधन को चुनेंगे। हालांकि, अगर चुनाव छह महीने के
अंतराल पर होते हैं, तो केवल 61 प्रतिशत मतदाता एक ही पार्टी को चुनेंगे।
देश के संघवाद के लिए एक साथ चुनावों से उत्पन्न चुनौतियों की भी आशंका
है।

संविधान में करने हाेंगे कम से कम 5 संशोधन

1999 में विधि आयोग ने भी अपनी एक रिपोर्ट में इसका समर्थन किया था।
अगस्त 2018 में एक देश-एक चुनाव पर लॉ कमीशन की रिपोर्ट भी आई थी। लॉ
कमिशन की रिपोर्ट में सुझाव दिया गया था कि देश में दो फेज में चुनाव
कराए जा सकते हैं। विधि आयोग ने कहा था कि एक साथ चुनाव कराने के लिए कम
से कम पांच संवैधानिक सिफारिशों की आवश्यकता होगी। केंद्रीय कानून मंत्री
अर्जुन राम मेघवाल ने संसद में बताया था कि देशभर में एक साथ चुनाव कराने
के लिए संविधान में संशोधन करना होगा। इसके लिए संविधान के अनुच्छेद- 83,
85, 172, 174 और 356 में संशोधन का जिक्र किया गया था।

एक साथ चुनाव हाे चुके हैं कई बार

1967 तक भारत में राज्य विधानसभाओं और लोकसभा के लिए एक साथ चुनाव होना
आम बात थी। आजादी के बाद वर्ष 1952, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और
विधानसभा चुनाव साथ-साथ हो चुके हैं। वर्ष 1967 के बाद कई बार लोकसभा और
विधानसभाएं अलग-अलग समय पर भंग होती रहीं, जिस कारण यह क्रम टूट गया। कुछ
विधानसभाओं को 1968 और 1969 में और 1970 में लोकसभा को समय से पहले भंग
कर दिया गया। एक दशक बाद, 1983 में चुनाव आयोग ने एक साथ चुनाव कराने का
प्रस्ताव रखा। हालांकि, आयोग ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में कहा कि
तत्कालीन सरकार ने इसके खिलाफ फैसला किया था। 1999 के विधि आयोग की
रिपोर्ट में भी एक साथ चुनाव कराने पर जोर दिया गया था। हाल ही में
भारतीय जनता पार्टी ने जोर दिया। बीजेपी ने 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए
अपने चुनावी घोषणापत्र में कहा था कि वह राज्य सरकारों के लिए स्थिरता
सुनिश्चित करने के लिए एक साथ चुनाव कराने का एक तरीका विकसित करने का
प्रयास करेगी।

क्या चुनाव आयोग एक साथ चुनाव कराने में समक्ष है ?

2022 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त सुशील चंद्र ने कहा था कि चुनाव
आयोग एक साथ चुनाव कराने में सक्षम है। हालांकि, उन्होंने कहा कि इस
विचार को लागू करने के लिए संविधान में बदलाव की जरूरत है और यह संसद में
तय किया जाना चाहिए। दिसंबर 2022 में, विधि आयोग ने देश में एक साथ चुनाव
कराने के प्रस्ताव पर राष्ट्रीय राजनीतिक दलों, भारत के चुनाव आयोग,
नौकरशाहों, शिक्षाविदों और एक्सपर्ट्स सहित हितधारकों की राय मांगी थी।